मध्यमसिंहनिष्क्रीडित
From जैनकोष
सिंहनिष्क्रीडित व्रत का दूसरा भेद । इसमें क्रमश: एक, दो, एक, तीन, दो, चार, तीन, पांच, चार, छ:, पांच, सात, छ:, आठ, सात, आठ, नौ, आठ, सात, आठ, छ:, सात, पांच, छ: । चार, पाँच, तीन, चार, दो, तीन, एक, दो, एक कुल एक सौ त्रेपन उपवास तथा प्रत्येक उपवास के क्रम के बाद एक पारणा करने से तैंतीस पारणाएँ की जाती है । इस व्रत के फलस्वरूप मनुष्य वज्रवृषभनाराचसंहनन का धारक, अनंतवीर्य से संपन्न, सिंह के समान निर्भय और अणिमा आदि गुणों से युक्त होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है । हरिवंशपुराण 34.79, 83