मन:पर्यय: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञान की देश प्रत्यक्षता–देखें | <li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञान की देश प्रत्यक्षता–देखें [[ मन:पर्यय#3.6 | मन:पर्यय - 3.6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञान व अवधिज्ञान में | <li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञान व अवधिज्ञान में अन्तर–देखें [[ अवधिज्ञान#2 | अवधिज्ञान - 2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अवधि की अपेक्षा मन:पर्यय की | <li class="HindiText"> अवधि की अपेक्षा मन:पर्यय की विशुद्धिता–देखें [[ अवधिज्ञान#2 | अवधिज्ञान - 2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्यय, मति व श्रुतज्ञान में अन्तर–देखें | <li class="HindiText"> मन:पर्यय, मति व श्रुतज्ञान में अन्तर–देखें [[ मन:पर्यय#3 | मन:पर्यय - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्यय क्षायोपशमिक | <li class="HindiText"> मन:पर्यय क्षायोपशमिक कैसे–देखें [[ मतिज्ञान#2.4 | मतिज्ञान - 2.4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्यय निसर्गज है–देखें | <li class="HindiText"> मन:पर्यय निसर्गज है–देखें [[ अधिगम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्यय का दर्शन नहीं | <li class="HindiText"> मन:पर्यय का दर्शन नहीं होता।–देखें [[ दर्शन#6 | दर्शन - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञान में जानने का क्रम।–देखें | <li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञान में जानने का क्रम।–देखें [[ मन:पर्ययज्ञान#3 | मन:पर्ययज्ञान - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मोक्षमार्ग में मन:पर्यय की | <li class="HindiText"> मोक्षमार्ग में मन:पर्यय की अप्रधानता।–देखें [[ अवधिज्ञान#2 | अवधिज्ञान - 2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रत्येक तीर्थंकर के काल में मन:पर्ययज्ञानियों का | <li class="HindiText"> प्रत्येक तीर्थंकर के काल में मन:पर्ययज्ञानियों का प्रमाण।–देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्यय सम्बन्धी, गुणस्थान, | <li class="HindiText"> मन:पर्यय सम्बन्धी, गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञानियों की | <li class="HindiText"> मन:पर्ययज्ञानियों की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह ]]वह नाम।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सभी मार्गणास्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें | <li class="HindiText"> सभी मार्गणास्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।<br /> | <li class="HindiText"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">2-4. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> विपुलमति सामान्य का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText"> विपुलमति सामान्य का लक्षण।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> विपुलत्व का अर्थ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> विपुलमति के भेद व उनके लक्षण।<br /> | <li class="HindiText"> विपुलमति के भेद व उनके लक्षण।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।<br /> | <li class="HindiText"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मन:पर्यय का उत्पत्तिस्थान मन है, करणचिह्न नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> मन:पर्यय का उत्पत्तिस्थान मन है, करणचिह्न नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> दोनों ही ज्ञानों में मनोमति पूर्वक परकीय मन को जानकर पीछे | <li class="HindiText"> दोनों ही ज्ञानों में मनोमति पूर्वक परकीय मन को जानकर पीछे तद्गत अर्थ को जाना जाता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ऋजुमति में इन्द्रियों व मन की अपेक्षा होती है, विपुलमति में नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> ऋजुमति में इन्द्रियों व मन की अपेक्षा होती है, विपुलमति में नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अप्रशस्त वेद में नहीं | <li class="HindiText"> अप्रशस्त वेद में नहीं होता।–देखें [[ वेद#6 | वेद - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> उपशम | <li class="HindiText"> उपशम सम्यक्त्व व परिहार-विशुद्धि आदि गुण विशेषों के साथ नहीं होता–देखें [[ परिहार ]]विशुद्धि/7।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> द्वितीय व प्रथम | <li class="HindiText"> द्वितीय व प्रथम उपशमसम्यक्त्व के काल में मन:पर्यय के सद्भाव व अभाव सम्बन्धी हेतु।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पंचम काल में सम्भव | <li class="HindiText"> पंचम काल में सम्भव नहीं–देखें [[ अवधिज्ञान#2 | अवधिज्ञान - 2]]/7।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> परकीय मनोगत पदार्थ को जानना </strong></span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/973 <span class="PrakritGatha">चिंताए अचिंताए अद्धचिंताए विविहभेयगयं। जं जाणइ णरलोए तं चिय मणपज्जवं णाणं।973।</span> =<span class="HindiText"> चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ता के विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थ को जो ज्ञान नरलोक के भीतर जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान है। (पं.सं./प्रा./1/125); (ध.1/1,1,115/गा. 185/360); (क.पा.1/1,1/28/43/3); (गो.जी./मू./438/857)।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1,9/94/3 <span class="SanskritText">परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते। साहचर्यात्तस्य पर्ययणं परिगमनं मन:पर्यय:। </span>= <span class="HindiText">दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं, उसके मन के सम्बन्ध से उस पदार्थ का पर्ययण अर्थात् परिगमन करने को या जानने को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। (रा.वा./1/9/44/21); (क.पा. 1/1,1/14/19/1); (गो.जी./जी.प्र./438/858/21)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/9/4/44/19 <span class="SanskritText">तदावरणकर्मक्षयोपशमादिद्वितीयनिमित्तवशात् परकीयमनोगतार्थज्ञानं मन:पर्यय:।</span> = <span class="HindiText">मन:पर्यय ज्ञानवरण कर्म के क्षयोपशमादिरूप सामग्री के निमित्त से परकीय मनोगत अर्थ को जानना मन:पर्यय ज्ञान है। (पं. का.त.प्र./41); (द्र.सं./टी./5/17/2)। (न्या.दी./2/13/34)।</span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/28/6 <span class="SanskritText">परकीयमनोगतोऽर्थो मन:, तस्य पर्याया: विशेषाः मन:पर्याया:, तान् जानातीति मन:पर्ययज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">परकीय मन में स्थित पदार्थ मन कहलाता है। उसकी पर्यायों अर्थात् विशेषों को मन:पर्यय कहते हैं। उनको जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। (ध.13/5,5,21/212/4)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]। 3/2 (स्वमन से परमन का आश्रय लेकर मनोगत अर्थ को जानने वाला मन:पर्ययज्ञान हैं।) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> पदार्थ के चिन्तवन युक्त मन या ज्ञान को जानना </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> पदार्थ के चिन्तवन युक्त मन या ज्ञान को जानना </strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,2/94/4 <span class="PrakritText">मणपज्जवणाणं णाम परमणोगयाइं मुक्तिदव्वाइं तेण मणेण सह पच्चक्खं जाणदि।</span> =<span class="HindiText"> जो दूसरों के मनोगत मूर्तीक द्रव्यों को उस मन के साथ प्रत्यक्ष जानता है, उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,21/212/8 <span class="PrakritText">अधवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चिंतिए विअचिंतिए वि अत्थे वट्टमाणणाणविसया त्ति घेत्तव्वा। </span>= <span class="HindiText">अथवा ‘मन:पर्यय’ यह संज्ञा रूढिजन्य है। इसलिए चिन्तित व अचिन्तित दोनों प्रकार के अर्थ में विद्यमान ज्ञान को विषय करने वाली यह संज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।</span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> उपरोक्त दोनों लक्षणों का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> उपरोक्त दोनों लक्षणों का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,212/4<span class="SanskritText"> परकीयमनोगतोऽर्थो मन:, मनस: पर्याया: विशेषा: मन:पर्याया:, तान् जानातीति मन:पर्ययज्ञान्। सामान्यव्यतिरिक्तविशेषग्रहणं न संभवति, निर्विषयत्वात्। तस्मा्त सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहि मन:पर्ययज्ञानमिति वक्तव्यं चेत्–नैष दोष:, इष्टत्वात्। तर्हि सामान्य ग्रहणमपि कर्तव्यम्। (न), सामर्थ्यलभ्यत्वात्।</span><span class="PrakritText"> एदं वयणं देसामासियं। कुदो। अचिंतियाणं अद्धचिंतियाणं च अत्थाणमवगमादो।</span><br /> | ||
= <span class="HindiText">परकीय मन को प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है। उस मन (मनोगत पदार्थ) की पर्यायों या विशेषों का नाम मन:पर्याय है। उन्हें जो जानता है, वह मन:पर्यायज्ञान है।–विशेष देखें | = <span class="HindiText">परकीय मन को प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है। उस मन (मनोगत पदार्थ) की पर्यायों या विशेषों का नाम मन:पर्याय है। उन्हें जो जानता है, वह मन:पर्यायज्ञान है।–विशेष देखें [[ लक्षण नं#1 | लक्षण नं - 1]]। <strong>प्रश्न</strong>–सामान्य को छोड़कर केवल विशेष का ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि ज्ञान का विषय केवल विशेष नहीं होता, इसलिए सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को ग्रहण करने वाला मन:पर्ययज्ञान है, ऐसा कहना चाहिए। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है। <strong>प्रश्न</strong>–तो इसके विषयरूप से सामान्य का भी ग्रहण करना चाहिए। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि सामर्थ्य से ही उसका ग्रहण हो जाता है। अथवा यह वचन (उपरोक्त लक्षण नं. 1) देशामर्शक है, क्योंकि, इससे अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थों का भी ज्ञान होता है। अथवा (चिन्तित पदार्थों के साथ-साथ उस चिन्तवन युक्त ज्ञान या मन को भी जानता है–देखें [[ लक्षण नं#2 | लक्षण नं - 2]]।<br /> | ||
भावार्थ–‘परकीय मनोगत पदार्थ’ इतना मात्र कहना सामान्यविषय निर्देश है और ‘चिन्तित अचिन्तित आदि पदार्थ’ यह कहना विशेषविषय निर्देश है। अथवा ‘चिन्तित अचिन्तित पदार्थ’ यह कहना विशेषविषय निर्देश है और ‘इससे युक्त ज्ञान व मन’ यह कहना सामान्य विशेष निर्देश है। पदार्थ सामान्य, पदार्थ विशेष और ज्ञान या मन इन तीनों बातों को | भावार्थ–‘परकीय मनोगत पदार्थ’ इतना मात्र कहना सामान्यविषय निर्देश है और ‘चिन्तित अचिन्तित आदि पदार्थ’ यह कहना विशेषविषय निर्देश है। अथवा ‘चिन्तित अचिन्तित पदार्थ’ यह कहना विशेषविषय निर्देश है और ‘इससे युक्त ज्ञान व मन’ यह कहना सामान्य विशेष निर्देश है। पदार्थ सामान्य, पदार्थ विशेष और ज्ञान या मन इन तीनों बातों को युगपत् ग्रहण करने से मन:पर्यय ज्ञान का विषय सामान्य विशेषात्मक हो जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मन:पर्ययज्ञान का विषय</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मन:पर्ययज्ञान का विषय</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा </strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा </strong><br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4,10 (दूसरों के मन में स्थित संज्ञा, स्मृति, चिन्ता, मति आदि को तथा जीवों के जीवन-मरण, सुख-दु:ख तथा नगर आदि का विनाश, अतिवृष्टि, सुवृष्टि, दुर्भिक्ष-सुभिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय-रोग आदि पदार्थों को जानता है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2"> द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा</strong></span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/28<span class="SanskritText"> तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य। </span>= <span class="HindiText">(द्रव्य की अपेक्षा) मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में होती है। (त.सा./1/33)। </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,2/14/5<span class="PrakritText"> दव्वदो जहण्णेण एगसमयओरालियसरीरणिज्जरं जाणदि। उक्कस्सेण एगसमयपडिबद्धस्स कम्मइयदव्वस्स अणंतिमभागं जाणदि। खेत्तदो जहण्णेण गाउवपुधत्तं, उक्कस्सेण माणुसखेत्तस्संतो जाणदि, णो बहिद्धा। कालदो जहण्णेण दो तिण्णि भवग्गहणाणि। उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि जाणादि।</span> = <span class="HindiText">मन:पर्ययज्ञान द्रव्य की अपेक्षा जघन्यरूप से एक समय में होने वाले औदारिक शरीर के निर्जरारूप द्रव्य तक को जानता है। उत्कृष्टरूप से कार्मण द्रव्य के अर्थात् आठ कर्मों के एक समय में बँधे हुए समयप्रबद्धरूप द्रव्य के अनन्त भागों में से एक भाग तक को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्यरूप से गव्यूति पृथक्त्व अर्थात् दो तीन कोस तक क्षेत्र को जानता है और उत्कृष्टरूप से मनुष्य क्षेत्र के भीतर तक जानता है, उसके बाहर नहीं। काल की अपेक्षा जघन्यरूप से दो तीन भवों को और उत्कृष्टरूप से असंख्यात भवों को जानता है। (भाव की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण से निरूपण किये गये द्रव्य की शक्ति को जानता है )।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> मन:पर्ययज्ञान की त्रिकाल ग्राहकता </strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> मन:पर्ययज्ञान की त्रिकाल ग्राहकता </strong><br /> | ||
देखें | देखें [[ लक्षण नं#1 | लक्षण नं - 1 ]](दूसरे के मन को प्राप्त ऐसे चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित व चिन्तित पूर्व सब अर्थों को जानता है–और भी देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/10)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4,10 (अतीतविषयक स्मृति, वर्तमानविषयक चिन्ता और अनागत विषयक मति को जानता है। इस प्रकार वर्तमान जीव के मनोगत त्रिकाल विषयक अर्थ को जानता है।)</li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> मूर्त द्रव्यग्राही मन:पर्यय द्वारा जीव के अमूर्त भावों का ग्रहण कैसे ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> मूर्त द्रव्यग्राही मन:पर्यय द्वारा जीव के अमूर्त भावों का ग्रहण कैसे ?</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,63/333/5 <span class="PrakritText">अमूत्तो जीवो कधंमणपज्जवणाणेण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादो हेट्ठियेण परिच्छिज्जदे। ण मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिवंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो। स्मृतिरमूर्ता चेत्-न, जीवादो पुधभूदसदीए अणुवलंभा।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यत: जीव अमूर्त है अत: वह मूर्त अर्थ को जानने वाले अवधिज्ञान से नीचे के मन:पर्यय ज्ञान के द्वारा कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>- नहीं, क्योंकि, संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादि कालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता। <strong>प्रश्न</strong>–स्मृति तो अमूर्त है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, स्मृति जीव से पृथक् नहीं उपलब्ध होती है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5">मूर्तग्राही मन:पर्यय द्वारा अमूर्त कालद्रव्य सापेक्ष भावों का ग्रहण कैसे ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.3.5" id="1.3.5"></a>मूर्तग्राही मन:पर्यय द्वारा अमूर्त कालद्रव्य सापेक्ष भावों का ग्रहण कैसे ?</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,63/334/5 <span class="PrakritText">एत्तिए णकालेण सुहं होदि त्ति किं जाणादि आहो ण जाणादि त्ति। विदिएण पचक्खेण सुहावगमो, कालमपाणावगमाभावादो। पढमपक्खे कालेण वि पचक्खेण होदव्वं, अण्णहा सुहमेत्तिएण कालेण एत्तियं वा कालं होदि त्ति वोत्तुमजोगादो। ण च कालो मणपज्जवणाणेण पच्चक्खमवगम्मदे, अमुत्तम्मि तस्स वुत्तिविरोहादो त्ति। ण एस दोसो, ववहारकालेण एत्थ अहियारादो। णं च मुत्ताणं दव्वाणं परिणामो कालसण्णिदो अमुत्तो चेव होदि त्ति णियमो अत्थि, अव्ववत्थावत्तीदो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इतने काल में सुख होगा, इसे क्या वह जानता है अथवा नहीं जानता। दूसरा पक्ष स्वीकार करने पर प्रत्यक्ष से सुख का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके काल का प्रमाण नहीं उपलब्ध होता है। पहिला पक्ष मानने पर काल का भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योंकि, अन्यथा ‘इतने काल में सुख होगा या इतने काल तक सुख रहेगा’; यह नहीं जाना जा सकता। परन्तु काल का मन:पर्यय ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होता नहीं है क्योंकि, उसकी अमूर्त पदार्थ में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहाँ पर व्यवहार काल का अधिकार है। दूसरे, काल संज्ञावाले मूर्त द्रव्यों का (सूर्य, नेत्र, घड़ी आदि का) परिणाम अमूर्त ही होता है, ऐसा कोई नियम भी नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर अव्यवस्था की आपत्ति आती है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.6" id="1.3.6"> क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.6" id="1.3.6"> क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,11/67/10 <span class="PrakritText">एगागाससेडीए चेव जाणदि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, देव-मणुस्सविज्जाहराइसु णाणस्स अप्पउत्तिपसंगादो। ‘माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरदो चेव जाणेदि णो बहिद्धा’ त्ति वग्गणसुत्तेण णिद्दिट्ठादो माणुसखेत्तअब्भंतरट्ठिदसव्वमुत्तिदव्वाणि जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, माणुस्सुत्तरसेलसमीवे ठइदूण बाहिरदिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्पसंगादो। होदु च ण, तदणुप्पत्तीए कारणाभावादो। ण ताव खओवसमाभावे... अणिंदियस्स पच्चक्खस्स ... माणुसुत्तरसेलेण पडिघादाणुववत्तीदो। तदो माणुसुत्तरसेलब्भंतरवयणं ण खेत्तणियामयं, किंतु माणुसुत्तरसेलब्भंतरपणदालीसजोयणलक्खणियामयं, विउलमदि मदिमणपज्जवणाणुज्जोयसहिदखेत्ते धणागारेण ठइदे पणदालीसजोयणलक्खमेत्तं चेव होदि त्ति।</span> = <span class="HindiText">आकाश की एक श्रेणी के क्रम से ही जानता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर देव, मनुष्य एवं विद्याधरादिकों में विपुलमति मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति न हो सकने का प्रसंग आवेगा। ‘मानुषोत्तरशैल के भीतर ही स्थित पदार्थ को जानता है, उसके बाहर नहीं’ (देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/10/3) ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होने से, मनुष्य क्षेत्र के भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्यों को जानता है, उससे बाह्यक्षेत्र में नहीं; ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करने पर मानुषोत्तर पर्वत के समीप में स्थित होकर बाह्य दिशा में उपयोग करने वाले के ज्ञान की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग होगा। यह प्रसंग आवे तो आने दो, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि, उसके उत्पन्न न हो सकने का कोई कारण नहीं है। क्षयोपशम का तो अभाव है नहीं, और न ही मन:पर्यय के अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का मानुषोत्तर पर्वत से प्रतिघात होना सम्भव है। अतएव ‘मानुषोत्तर पर्वत के भीतर’ यह वचन क्षेत्र नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वत के भीतर 45,00,000 योजनों का नियामक है, क्योंकि, विपुल मतिज्ञान के उद्योत सहित क्षेत्र को घनाकार से स्थापित करने पर 45,00,000 योजन मात्र ही होता है। (इतने क्षेत्र के भीतर स्थित होकर चिन्तवन करने वाले जीवों के द्वारा विचार्यमाण द्रव्य मन:पर्ययज्ञान की प्रभा से अवष्टब्ध क्षेत्र के भीतर होता है, तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता है; यह उक्त कथन का तात्पर्य है–(ध.13); (ध.13/5,5,77/343/9); (गो.जी./जी.प्र./456/869/15)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.7" id="1.3.7"> मन:पर्ययज्ञान के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.7" id="1.3.7"> मन:पर्ययज्ञान के भेद</strong> </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/ | पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/43-4 <span class="PrakritText">विउलमदि पुण णाणं अज्जवणाणं च दुविह मणणाणं। </span>= <span class="HindiText">मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का है–ऋजुमति और विपुलमति। (म.बं. 1/2/3); (देखें [[ ज्ञानावरण#3.5 | ज्ञानावरण - 3.5]]); (त.सू. 1/23); (स.सि./1/23/129/7); (रा.वा./1/23/6/84/27); (ह.पु./10/153); (क.पा. 1/1-1/14/20/1); (ध.6/1,9-1,14/28/7); (ज.पा./13/52); (गो.जी./मू./439/858)।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> ऋृजुमति सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> ऋृजुमति सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/123/129/2 <span class="SanskritText">ऋज्वी निर्वर्तिता प्रगुणा च। कस्मान्निर्वर्तिता। वाक्कायमन:कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात्। ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमति:।</span> = <span class="HindiText">ऋजु का अर्थ निर्वर्तित (निष्पन्न) और प्रगुण (सीधा) है। अर्थात् दूसरे के मन को प्राप्त वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से निर्वर्तित या ऋजु जिसकी मति है वह ऋजुमति कहलाता है। (रा.वा./1/23/-/83/33); (ध.13/5,5,/62/330/5); (गो.जी./जी.प्र./439/858/16)। </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,10/62/9 <span class="SanskritText">परकीयमतिगतोऽर्थ: उपचारेण मति:। ऋज्वी अवक्रा। ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमति:। </span>= <span class="HindiText">दूसरे के मन में स्थित अर्थ उपचार से मति कहा जाता है। ऋजु का अर्थ वक्रता रहित है ( या वर्तमान काल है)–(देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]])। ऋजु है मति जिसकी वह ऋजुमति कहा जाता है। (पं.का./ता.वृ./43-4/87/3)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ऋजुत्व का अर्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> ऋजुत्व का अर्थ</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,10,62/9 <span class="SanskritText">कथमृजुत्वम्। यथार्थं मत्यारोहणात् यथार्थमभिधानगत्वान् यथार्थमभिनयगतत्वाच्च।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ऋजुता कैसे है? <strong>उत्तर</strong>–यथार्थ मन का विषय होने से, यथार्थ वचनगत होने से और यथार्थ अभिनय अर्थात् कायिक चेष्टागत होने से उक्त मति में ऋजुता है।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,62/330/1 <span class="PrakritText">मणस्स कधमुजुगत्तं। जो जधा अत्थो ट्ठिदो तं तधा चिंतयंतो मणो उज्जुगत्तो णाम। तव्विवरीयो मणो अणुज्जुगो। कधंवयणस्स उज्जुवत्तं। जो जेम अत्थो ट्ठिदो तं तेम जाणावयंतं वयणं उज्जुव णाम। तव्विवरीयमणुज्जुवं। कधं कायस्स उज्जुवत्तं। जो जहा अत्थो ट्ठिदो तं तहा चेव अहिणइदूण दरिसयंतो काओ उजुओ णाम। तव्विवरीयो अणुज्जुओ णाम।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मन, वचन व काय में ऋजुपना कैसे आता है? <strong>उत्तर</strong>–जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है, उसका उसी प्रकार से चिन्तवन करने वाला मन, उसका उसी प्रकार से ज्ञापन करने वाला वचन और उसको उसी प्रकार से अभिनय द्वारा दिखालाने वाला काय तो ऋजु है; और इनकी विपरीत चिन्तवन, ज्ञापन व अभिनययुक्त मन, वचन, काय अनृजु है।</span><br /> | ||
ध. | ध. 13/5,5,64/337/3 <span class="SanskritText">व्यक्तं निष्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं मन: येषां ते व्यक्तमनस: तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च संबन्धि वस्त्वन्तरं तत्र तस्य सामर्थ्याभावात्। कधं मणस्स माणववएसो। ... वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतत्रिकालसंबन्धिनमर्थं जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति। सूत्रार्थो व्याख्येय:।</span> = <span class="HindiText">व्यक्त (अर्थात् ऋजु) का अर्थ ‘निष्पन्न’ होता है। अर्थात् जिनका मन संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित है वे व्यक्त मनवाले जीव हैं, उन व्यक्त मनवाले अन्य जीवों से तथा स्व से सम्बन्ध रखने वाले अन्य अर्थ को जानता है। अव्यक्त मन वाले जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अन्य अर्थ को नहीं जानता है, चिन्तित अर्थयुक्त मन व्यक्त है, और अचिन्तित व अर्धचिन्तित अर्थयुक्त अव्यक्त है। (देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/10/1 में ध./13) क्योंकि, इस प्रकार के अर्थ को जानने का इस ज्ञान का सामर्थ्य नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–(सूत्र में) मन को ‘मान’ व्यपदेश कैसे किया है? <strong>उत्तर</strong>–वर्तमान जीवों के वर्तमान मनोगत त्रिकाल सम्बन्धी अर्थ को जानता है, अतीत और अनागत मनोगत विषय को नहीं जानता है, इस प्रकार सूत्र के अर्थ का व्याख्यान करना चाहिए। (चिन्तित अर्थयुक्त मन व्यक्त है और अचिन्तित व अर्धचिन्तित अर्थयुक्त अव्यक्त है। और भी देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4/1)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">ऋजुमति के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">ऋजुमति के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
म.ब. | म.ब. 1/2/24/4 <span class="PrakritText">यं तं उजुमदिणाणं तं तिविधं-उज्जुगं मणोगदं जाणदि। उज्जुगं वचिंगदं जाणदि। उज्जुगं कायगदं जाणदि।</span> = <span class="HindiText">जो ऋजुमति ज्ञान है, वह तीन प्रकार का है। वह सरल मनोगत पदार्थ को जानता है, सरल वचनगत पदार्थ को जानता है, सरल कायगत पदार्थ को जानता है। (ष.खं.13/5,5/सूत्र 62/329); (ध.9/4,1,10/63/1); (गो.जी./मू./439/858)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/23/7/84/29 <span class="SanskritText">आद्य ऋजुमतिमन:पर्ययत्रेधा। कुत:। ऋजुमनोवाक्कायविषयभेदात्–ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ: ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ: ऋजुकायकृतार्थज्ञश्चेति। तद्यथा, मनसाऽर्थं व्यक्तं संचिन्त्य वाचं वा धर्मादियुक्तामसंकीर्णामुच्चार्य कायप्रयोगं चोभयलोकफलनिष्पादनार्थमङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गनिपानाकुञ्चनप्रसारणादिलक्षणं कृत्वा। पुनरनन्तरे समये कालान्तरे वा तमेवार्थं चिन्तितमुक्तं कृतं वा विस्मृतत्वान्न शक्नोति चिन्तयितुम्, तमेवंविधमर्थं ऋजुमतिमन:पर्यय: पृष्ठोऽपृष्ठो वा जानाति ‘अयमसावर्थोऽनेन विधिना त्वया चिन्तित उक्त: कृतो वा’ इति। कथमयमर्थो लभ्यते। आगमाविरोधात्। आगमे ह्युक्तम् ...।</span> = <span class="HindiText">ऋजु मन, वचन व काय के विषय भेद से ऋजुमति तीन प्रकार का है―ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ। जैसे किसी ने किसी समय सरल मन से (देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/2) किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, स्पष्ट वाणी से कोई विचार व्यक्त किया और काय से भी उभयफल निष्पादनार्थ अंगोपांग आदि का सुकोड़ना, फैलाना आदि रूप स्पष्ट क्रिया की। कालान्तर में उन्हें भूल जाने के कारण पुन: उन्हीं का चिन्तवन व उच्चारण आदि करने को समर्थ न रहा। इस प्रकार के अर्थ को पूछने पर या बिना पूछे भी ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान जान लेता है, कि इसने इस प्रकार सोचा था या बोला था या किया था। और यह अर्थ आगम से सिद्ध है। यथा–(देखें [[ अगला सन्दर्भ ]]) देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4 (देखें [[ गो ]]जी./जी.प्र./440/859/17)। (अपने मन से दूसरे के मानस को जानकर ही तद्गत अर्थ को जानता है। चिन्तित या उक्त या अभिनयगत को ही जानता है। अचिन्तित, अर्द्धचिन्तित या विपरीत चिन्तित को अनुक्त, अर्द्ध उक्त व विपरीत उक्त को तथा इसी प्रकार के अभिनयगत को नहीं जानता।)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> ऋजुमति का विषय</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> ऋजुमति का विषय</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4.1" id="2.4.1"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4.1" id="2.4.1"> मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ष.ख./ | ष.ख./13/5,5 सूत्र/ 63-64/332-336 <span class="PrakritText">मणेण माणसं पडिविंदडत्ता परेसिं सण्णा संदि मदि चिंता जीविदमरणं लाहालाहं सुहुदुक्खं णयरविणासं देसविणासं ... अइवुट्ठि अणाबुट्ठि सुवुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुव्भिक्खं खेमाखेम भयरोग कालसं (प) जुत्ते अत्थे वि जाणदि।63। किंच भूओ–अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि णो अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि।64। (सूत्र नं. 63 की टीका पृ. 333 सद्दकलाओ सण्णा .... दिट्ठसुदाणुभूदट्ठ ... सदी। अणागयत्थविसय ... मदी। वट्टमाणत्थविसय ... चिंता।)</span> = <span class="HindiText">अपने मन के द्वारा दूसरे के मानस को जानकर (यह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान) काल से विशेषित दूसरों की संज्ञा (शब्दकलाप), स्मृति (अतीतकालगत दृष्ट श्रुत व अनुभूत विषय), मति (अनागतकालगत विषय), चिन्ता (वर्तमानकालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित-मरण, लाभ-अलाभ व सुख-दुःख को; तथा नगर, देश, जनपद, खेट, कर्वट आदि के विनाश को, तथा अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय और रोगरूप पदार्थों को भी [प्रत्यक्ष (टीका)] जानता है।63। और भी – व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को वह जानता है, अव्यक्त मनवाले जीवों से संबंध रखने वाले अर्थ को नहीं जानता (व्यक्त-अव्यक्त मन का अर्थ–देखें [[ पीछे मन:पर्यय#2.2 | पीछे मन:पर्यय - 2.2]])।64। (म.व. 1/2/24/5)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/2 (यथार्थ अर्थात् यथास्थित त्रिकालगत अर्थ को वर्तमान में संशयादि रहित होकर, मन से चिन्तवन अथवा वचन से ज्ञापन अथवा काय से अभिनय करने वाले किसी व्यक्ति के या अपने ही व्यक्त मन से सम्बन्ध रखनेवाले अर्थ को जानता है। अतीत व अनागत काल में वर्तने वाले के मन की बात नहीं जानता।)<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/3 (सरल मन वचन काय प्राप्त को ही जानता है वक्र को नहीं, अर्थात् वर्तमान काल में चिन्तवन ज्ञापन व अभिनय करने वाले को ही जानता है, अचिन्तित, अज्ञापित व अनभिनीत को नहीं जानता।)</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/23/7/85/7 <span class="SanskritText">व्यक्त: स्फुटीकृतोऽर्थश्चिन्तया सुनिर्वर्तितो यैस्ते जीवा व्यक्तमनसस्तैर्य्थं चिन्तितं ऋजुमतिर्जानाति नेतरै:। </span>= <span class="HindiText">व्यक्त या स्पष्ट व सरल रूप से अर्थ की चिन्ता करने वाले जीवों के व्यक्त (वर्तमान) मन में जो अर्थ चिन्तितरूप से स्थित है उसको ऋजुमति जानता है अव्यक्त व अचिन्तित को नहीं–विशेष देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/2।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,62/330/6 <span class="PrakritText">उज्जुवं पउणं होदूण मणस्स गदमट्ठ जाणदि तमुजुमदिमणपज्जवणाणं। अचिंतियमद्धचिंतियं विवरीयभावेण (चिंतियं च अट्ठं ण ) जाणदि त्ति भणिदं होदि। जमुज्जवं पउणं होदूण चिंतियं पउणं चेव उल्लविदमट्ठं जाणदि तं पि उजुमदिमणपज्जयणाणं णाम। अब्बोल्लिदमद्धबोल्लिदं विवरीयभावेण बोल्लिदं च अट्ठं ण जाणदि त्ति भणिदं होदि; ... उज्जुभावेण चिंतियं उज्जुवसरूवेण अहिणइदमत्थं जाणदि तं पि उजुमदिमणपज्जवणाणं णाम। उज्जुमदीए विणा कायवावारस्स उज्जुवत्तविरोहादो।</span> = <span class="HindiText">जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर मनोगत अर्थ को जानता है वह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है। वह अचिन्तित, अर्धचिन्तित या विपरीत रूप से चिन्तित अर्थ को नहीं जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर विचारे गये व सरल रूप से ही कहे गये अर्थ को जानता है, वह भी ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान है। यह नहीं बोले गये, आधे बोले गये या विपरीत रूप से बोले गये अर्थ को नहीं जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। जो ऋजुभाव से विचारकर एवं ऋजुरूप से अभिनय करके दिखाये गये अर्थ को जानता है वह भी ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है, क्योंकि ऋजुमति के बिना काय की क्रिया के ऋजु होने में विरोध आता है।</span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./441/860<span class="PrakritText"> तियकाल विसयरूविं चिंतितं वट्टमाणजीवेण उजुमणि णाणं जाणदि ...।441।</span> = <span class="HindiText">वर्तमान काल में त्रिकाल विषयक मूर्तीक द्रव्य को चिन्तवन करने वाले जीव के मन में स्थित अर्थ को ऋजुमति जानता है (अचिन्तित आदि यह नहीं जानता उसे विपुलमति जानता है।) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4.2" id="2.4.2"> द्रव्य की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4.2" id="2.4.2"> द्रव्य की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,10/63/5<span class="PrakritText"> तत्त्थ उज्जुमदी एगसमइयमोरालियसीरीरस्स णिज्जरं जहण्णेण जाणदि। सा तिविहा जहण्णुक्कस्स तव्वदिरित्तिओरालियसरीरणिज्जरा त्ति। अत्थं कं जाणदि। तव्वदिरित्तं। कुदो। सामण्णाणिद्देसादो। उक्कस्सेण एगसमयमिंदियणिज्जरं जाणदि। ... पुणो किमिंदियं घेप्पदि। चक्खिंदियं। कुदो। सेसेंदिएहिंतो अप्पपरिमाणत्तादो, सगारंभपोग्गलखंधाणं सण्णहत्तादो वा। ... चक्खिंदियणिज्जरा वि जहण्णुक्कस्स तव्वदिरित्त भेएण तिविहा, तत्थ काए गहणं। तव्वदिरित्ताए। कुदो। सामण्णणिद्देसादो। जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिम दव्ववियप्पे तव्वदिरित्ता उज्जुमदी जाणदि। </span>= <span class="HindiText">ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान जघन्य से एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीर की तद्वयतिरिक्त निर्जरा को जानता है, अर्थात् उसकी जघन्य व उत्कृष्ट निर्जरा को न जानकर (अजघन्य व अनुत्कृष्ट को जानता है), क्योंकि, यहाँ सामान्य निर्देश है। उक्त ज्ञान उत्कर्ष से एक समय सम्बन्धी चक्षुइन्द्रिय की निर्जरा को जानता है, क्योंकि, शेष इन्द्रियों की अपेक्षा यह इन्द्रिय (इसके मसूर के आकारवाला भीतरी तारा) अल्प परिणामवाली है और वह अपने आरम्भक पुद्गलों की श्लक्ष्णता अर्थात् सूक्ष्मता से भी युक्त है। इसमें भी उपरोक्त प्रकार से तद्वयतिरिक्त निर्जरा को जानता है, जघन्य व उत्कृष्ट को नहीं, क्योंकि, यहाँ भी सामान्य निर्देश है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यम द्रव्यविकल्पों को तद्व्यतिरिक्त अर्थात् सामान्य ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी जानता है। (गो.जी./मू./451/866)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4.3" id="2.4.3"> क्षेत्र, काल की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4.3" id="2.4.3"> क्षेत्र, काल की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.13/5,5/सूत्र 65-68/338-338<span class="PrakritGatha"> कालदो जहण्णेण दो तिण्णिभवग्गहणाणि।65। उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि।66। गदिमागदिं पदुप्पादेदि।67। खेत्तदो ताव जहण्णेण गाउवपुधत्तं उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भंतरदो णो बहिद्धा।68।</span> = <span class="HindiText">काल की अपेक्षा वह जघन्य से दो-तीन भवों को जानता है।65। और उत्कर्ष से सात-आठ भवों को जानता है।66। (अर्थात् वर्तमान भव को छोड़कर दो या सात भवों तथा उस सहित तीन या आठ भवों को जानता है। भव का काल अनियत जानना चाहिए–<strong>टीका</strong>); (इस काल के भीतर) जीवों की गति और अगति (भुक्त, कृत, प्रतिसेवित आदि अर्थो) को जानता है।67। क्षेत्र की अपेक्षा वह जघन्य से गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण (अर्थात् आठ-नौ घनकोश प्रमाण – टीका) क्षेत्र को और उत्कर्ष से योजन पृथक्त्व (आठ-नौ घनयोजन प्रमाण) के भीतर की बात जानता है, बाहर की नहीं।68। (म.व.1/2/25/3); (स.सि./1/23/130/1); (रा.वा./1/23/7/85/8); (ध.9/4,1,10/8); (गो.जी./मू./455,457/869,870)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4.4" id="2.4.4">भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.4.4" id="2.4.4"></a>भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,10/65/6 <span class="PrakritText">भावेण जहण्णुक्कस्सदव्वेसु तव्वाओग्गे असंखेज्जे भावे जहण्णुक्कस्सउजुमदिणो जाणंति।</span>=<span class="HindiText">भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यों में उसके योग्य असंख्यात पर्यायों को जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है।</span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./458/871 <span class="PrakritText">आवलिअसंखभावं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं।...।871।</span>=<span class="HindiText">ऋजुमति का विषयभूत भाव जघन्यपने आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्टपने उससे असंख्यात गुणा आवलि प्रमाण है। (अर्थात् अपने विषयभूत द्रव्य की इतनी पर्यायों को जानता है)। </span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदि का ग्रहण | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदि का ग्रहण क्यों नहीं करता</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,10/63/2 <span class="PrakritText">अचिंतिदमणुत्तमणमिणइदमत्थं किमिद ण जाणदे ण विसिट्ठ खओवसमाभावादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी मन से अचिन्तित, वचन से अनुक्त और शारीरिक चेष्टा के अविषयभूत अर्थ को क्या नहीं जानता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं जानता, क्योंकि उसके विशिष्ट क्षयोपशम का अभाव है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> वचनगत ऋजुमति की मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> वचनगत ऋजुमति की मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,62/330/11 <span class="PrakritText">उज्जुववचिगदस्स भणपज्जवणाणस्स उजुमदिमणपज्जवववएसो ण पावदि त्ति। ण एत्थ वि उज्जुमणेण विणा उज्जुववयणवुत्तीए अभावादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ऋजुवचनगत मन:पर्ययज्ञान की ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान संज्ञा नहीं प्राप्त होती ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ पर भी ऋजुमन के बिना ऋजुवचन की प्रवृत्ति नहीं होती।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">विपुलमति सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">विपुलमति सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/23/129/4 <span class="SanskritText">विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमति:।</span> = <span class="HindiText">जिसकी मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। (रा.वा./1/23/-/84/1); (ध. 9/4,1,11/5)।</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,11/66/2 <span class="SanskritText">परकीयमतिगतोऽर्थो मति:। विपुला विस्तीर्णा।</span> = <span class="HindiText">दूसरे की मति में स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण है।</span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./439/858/17<span class="SanskritText"> विपुला कायवाङ्मन:कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञान्निर्वर्तिता अनिर्वर्तिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमति:। स चासौ मन:पर्ययश्च विपुलमतिमन:पर्यय:। </span>= <span class="HindiText">सरल या वक्र मनवचन काय के द्वारा किया गया कोई अर्थ; उसके चिन्तवनयुक्त किसी अन्य जीव के मन को जानने से निष्पन्न या अनिष्पन्न मति को विपुल कहते हैं। ऐसी विपुल या कुटिल मति है जिसकी सो विपुल मति है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> विपुलत्व का अर्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> विपुलत्व का अर्थ</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,11/66/2 <span class="SanskritText">कुतो वैपुल्यम् ? यथार्थमनोगमनात् अयथार्थमनोगमनात् उभयथापि तदवगमनात्, यथार्थवचोगमनात् अयथार्थवचोगमनात् उभयथापि तत्र गमनात्, यथार्थकायगमनात् अयथार्थकायगमनात् ताभ्यां तत्र गमनाच्च वैपुल्यम्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–विपुलता किस कारण से है। <strong>उत्तर</strong>–यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकार के मन, तीनों प्रकार के वचन व तीनों प्रकार के काय को प्राप्त होने से विपुलता है। (और भी देखें [[ मन:पर्यय ]] /2/10/1)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">विपुलमति के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.9" id="2.9"></a>विपुलमति के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
म.ब. | म.ब.1/3/26/1 <span class="PrakritText">यं तं विउलमदिणाणं तं छव्विहं–उज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगं कायगदं जाणदि, अणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, एवं वचिगदं कायगदं च। एवं याव वत्तमाणाणं पि जीवाणं जाणदि।</span> = <span class="HindiText">जो विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है, वह छह प्रकार का है। वह सरल मनोगत पदार्थ को जानता है, सरल वचनगत पदार्थ को जानता है, सरलकायगत पदार्थ को जानता है, कुटिल मनोगत पदार्थ को जानता है, कुटिल वचनगत पदार्थ को जानता है, कुटिल कायगत पदार्थ को जानता है, यह वर्तमान जीव तथा अवर्तमान जीवों के अथवा व्यक्त मनवाले तथा अव्यक्त मनवाले जीवों के सुखादि को जानता है। (देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/10/1); (ष.ख. 13/5,5/सूत्र 70/340) (गो.जी./मू./440/859)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/23/8/85/11 <span class="SanskritText">द्वितीयो विपुलमति: षोढा भिद्यते। कुत:। ऋजुवक्रमनोवावकायविषयभेदात्। ऋजुविकल्पा: पूर्वोक्ता: वक्रविकल्पाश्च तद्विपरीता योज्या:। </span>= <span class="HindiText">द्वितीय विपुलमति ऋजु व वक्र मन वचन व काय के विषय भेद से छह प्रकार का है। इनमें से ऋजु के तीन विकल्प पहले कह दिये गये हैं। (देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/3)। उसी प्रकार वक्र के तीनों विकल्पों में भी लागू कर लेना चाहिए। (गो.जी./जी.प्र./440/860/1)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/10/1 (अपने मन के द्वारा दूसरे के द्रव्यमान को जानकर पीछे तद्गत अर्थ को जानता है। चिन्तित, अर्धचिन्तित, अचिन्तित व विपरीत चिन्तित को, उक्त, अर्धउक्त, अनुक्त, व विपरीत उक्त को, और इसी प्रकार चारों विकल्परूप अभिनयगत अर्थ को जानता है )।<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/8 (यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकार के मन वचन काय को प्राप्त अर्थ को जानता है )।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> विपुलमति का विषय</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> विपुलमति का विषय</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.10.1" id="2.10.1">मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10.1" id="2.10.1">मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.13/5,5/सूत्र 71-73/340-342 <span class="PrakritText">मणेण माणसं पडिविंदइत्ता।71। परेसिं सण्णा सदि मदि चिन्ता जीविदमरणं लाहालाहं सुहदु:क्खं णयरविणासं देसविणासं ... अदिवुट्ठि अणावुट्ठि सुवुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुब्भिक्खं खेमाखेमं भयरोग कालसंपजुत्ते अत्थे जाणदि।72। किंच भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि।73।</span> = <span class="HindiText">मन के द्वारा मानस को जानकर (अर्थात् अपने मतिज्ञान के द्वारा दूसरे के द्रव्यमन को जानकर, तत्पश्चात् मन:पर्ययज्ञान के द्वारा–टीका) दूसरे जीवों के काल से विशेषित संज्ञा (शब्दकलाप), स्मृति (अतीत कालगत दृष्टश्रुत व अनुभूत विषय, गति (अनागत कालगत विषय), चिन्ता (वर्तमान कालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, व सुख-दुःख को; तथा नगर, देश जनपद, खेट कर्वट आदि के विनाश को; तथा अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, क्षेम-अक्षेम भय और रोग रूप पदार्थों को भी (प्रत्यक्ष) जानता है। (71-72) और भी–व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवों से सम्बन्ध रखनेवाले अर्थ को जानता है।73। (कोष्ठकगत शब्दों के अर्थों के लिए देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4/1)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/8 (यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकार के मन, वचन व काय को प्राप्त अर्थ को जानता है।)<br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/9 सरल व कुटिल मन, वचन, कायगत अर्थ को तथा वर्तमान व अवर्तमान जीवों के व्यक्त व अव्यक्त मनोगत अर्थ को जानता है।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/23/8/85/13 <span class="SanskritText">तथा आत्मन: परेषां च चिन्ताजीवितमरणसुखदु:खलाभालाभादीन् अव्यक्तमनोभिर्व्यक्तमनोभिश्च चिन्तितान् अचिन्तितान् जानाति विपुलमति:।</span> =<span class="HindiText"> यह अपने और पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मन से चिन्तित या अचिन्तित (या अर्धचिन्तित) सभी प्रकार के चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि को जानता है।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,73/3<span class="PrakritText"> चिंताए अद्धपरिणयं विस्सरिदचिंतियवत्थु चिंताए अवावदं च मणमव्वत्तं, अवरं वत्तं, वत्तमाणाणमवत्तमाणाण वा जीवाणं चिंताविसयं मणपज्जवणाणी जाणदि। जं उज्जुवाणुज्जुवभावेण चिंतितमद्धचिंतिदं चिंतिज्जमाणमद्धचिंतिज्जमाणं चिंतिहिदि अद्धं चिंतिहिदि वा तं सव्वं जाणदि त्ति भणिदं होदि।</span> = <span class="HindiText">चिन्ता में अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तु के स्मरण से रहित और चिन्ता में अव्यापृत मन अव्यक्त कहलाता है, इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है। व्यक्त मन वाले और अव्यक्त मन वाले जीवों के चिन्ता के विषय को मन:पर्ययज्ञानी जानता है। ऋजु और अनृजुरूप से जो चिन्तित या अर्धचिन्तित है, वर्तमान में जिसका विचार किया जा रहा है, या अर्ध विचार किया जा रहा है, तथा भविष्य में जिसका विचार किया जायेगा उस सब अर्थ को जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। (और भी देखें [[ मन:पर्यय ]]/1/1); (गो.जी./मू./449/864)।</span><br /> | ||
गो.जी.मू./ | गो.जी.मू./441/860 <span class="SanskritText">तियकालविसयरूविं चिंतितं वट्टमाण जीवेण। ऋजुमतिज्ञानं जानाति भूतभविष्यच्च विपुलमति:।</span> =<span class="HindiText"> भूत, भविष्य व वर्तमान जीव के द्वारा चिन्तवन किये गये त्रिकालगत रूपी पदार्थ को विपुलमति जानता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.10.2" id="2.10.2"> द्रव्य की अपेक्षा </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10.2" id="2.10.2"> द्रव्य की अपेक्षा </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,11/66/7 <span class="PrakritText">दव्वदो जहण्णेण एगसमयमिंदियणिज्जरं जाणदि। ... उक्कस्सदव्वजाणावणट्ठं तप्पाओग्गासंखेज्जाणं कप्पाणं समए सलागभूदे ठवियमणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं विरलिय अज्जहण्णुक्कस्समेगसमयपबद्धं विस्सासोवचयविरहिदमट्ठकम्मपडिबद्धं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं विदियवियप्पो होदि। सलागरासीदो एगरूवमवणेदव्वं। एवमणेण विहाणेण णेदव्वं जाव सलागरासी समत्तो त्ति। एत्थ अपच्छिमदव्ववियप्पमुक्कस्सविउमदी जाणदि। जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्तविउलमदि जाणदि।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य से एक समयरूप इन्द्रिय निर्जरा को (अर्थात् चक्षु इन्द्रिय की निर्जरा को–देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4/2) जानता है। उत्कृष्ट द्रव्य के ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यात कल्पों के समयों को शलाकारूप से स्थापित करके, मनोद्रव्यवर्गणा के अनन्तवें भाग का विरलनकर विस्रसोपचय रहित व आठ कर्मों से सम्बद्ध अजघन्यानुत्कृष्ट एक समयप्रबद्ध को समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड द्रव्य का द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाका राशि में से एक रूप कम करना चाहिए। इस प्रकार इस विधान से शलाकाराशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिए। (देखें [[ गणित#II.2 | गणित - II.2]]), इनमें अन्तिम द्रव्य विकल्प को उत्कृष्ट विपुलमति जानता है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यम विकल्पों को तद्वयतिरिक्त अर्थात् मध्यम विपुलमति जानता है। (गो.जो./मू./452-454/867)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.10.3" id="2.10.3"> क्षेत्र व काल की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10.3" id="2.10.3"> क्षेत्र व काल की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.13/5,5/सूत्र 74-77/342-343 <span class="PrakritGatha">कालदो ताव जहण्णेण सत्तअट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि।74। जीवाणं गदिमागदिं पदुप्पादेदि।75। खेत्तादो ताव जहण्णेण जोयणपुधत्तं।76। उक्कस्सेण माणुस्सुत्तरसेलस्स अब्भंतरादो णो बहिद्धा।77।</span> = <span class="HindiText">काल की अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को और उत्कर्ष से असंख्यात भवों को जानता है।74। (इस काल के भीतर) जीवों की गति अगति (भुक्त, कृत, और प्रतिसेवित अर्थ) को जानता है।75। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजनपृथक्त्वप्रमाण (अर्थात् आठ-नौ घन योजन प्रमाण) क्षेत्र को जानता है।76। उत्कर्ष से मानुषोत्तर शैल के भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता।77। (अर्थात् 45,00,000 यो. घन प्रतर को जानता है–ध./9)। (म.ब.1/3/26/3); (स.सि./1/23/130/3); (रा.वा./1/23/8/85/14); (ध.9/4,1,11/67/8; 68/12); (गो.जी./मू./455-457/869)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.10.4" id="2.10.4">भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.10.4" id="2.10.4"></a>भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,11,/69/1 <span class="PrakritText">भावेण जं जं दिट्ठं दव्वं तस्स-तस्स असंखेज्जपज्जाए जाणदि।</span> =<span class="HindiText"> भाव की अपेक्षा, जो-जो द्रव्य इसे ज्ञात है, उस-उसकी असंख्यात पर्यायों को जानता है।</span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./858/871 <span class="PrakritText">तत्तो असंखगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी।</span> = <span class="HindiText">विपुलमति का विषयभूत भाव जघन्य तो ऋजुमति के उत्कृष्ट भाव से असंख्यात गुणा है और उत्कृष्ट असंख्यात लोकप्रमाण है। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> अचिन्तित अर्थगत विपुलमति को मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> अचिन्तित अर्थगत विपुलमति को मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,61/329/5 <span class="PrakritText">परेसिं मणम्मि अट्ठिदत्थविसयस्स विउलमदिणाणस्स कधं मणपज्जवणाणववएसो। ण, अचिंतिदं चेवट्ठं जाणदि त्ति णियमाभावादो। किंतु चिंतियमचिंतियमद्धचिंतियं च जाणदि। तेण तस्स मणपज्जवणाणववएसो ण विरुज्झदे।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दूसरों के मन में नहीं स्थित हुए अर्थ को विषय करने वाले विपुलमतिज्ञान की मन:पर्यय संज्ञा कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, अचिन्तित अर्थ को ही वह जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु विपुलमतिज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थ को जानता है, इसलिए उसकी मन:पर्यय संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12"> विशुद्धि व प्रतिपात की अपेक्षा दोनों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12"> विशुद्धि व प्रतिपात की अपेक्षा दोनों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/24<span class="SanskritText"> विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:।124। </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/24/131/4 <span class="SanskritText">तत्र विशुद्ध्या तावत्–ऋजुमतेर्विपुलमतिर्द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विशुद्धतर:। कथम्। इह य: कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्य: सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्त्यो भाग ऋजुमतेर्विषय:। तस्य ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेर्विषय:। अनन्तस्यानन्तभेदत्वात्। द्रव्यक्षेत्रकालतो विशुद्धिरुक्ता। भावतो विशुद्धिः सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगात्। अप्रतिपातेनापि विपुलमतिर्विशिष्ट: स्वामिनां प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात्। ऋजुमति: पुन: प्रतिपाती; स्वामिनां कषायोद्रेकाद्धीयमानचारित्रोदयत्वात्। </span>= <span class="HindiText">विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा इन दोनों (ऋजुमति व विपुलमति) में अन्तर है। 24। तहाँ विशुद्धि की अपेक्षा तो ऐसे हैं कि–ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विशुद्धतर है। वह ऐसे कि–यहाँ जो कार्मण द्रव्य का अनन्तवाँ अन्तिम भाग सर्वावधि का विषय है, उसके भी अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह ऋजुमति का विषय है। और इस ऋजुमति के विषय के अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमति का विषय है। अनन्त के अनन्त भेद हैं, अत: ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते हैं इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा विशुद्धि कही। भाव की अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्य को विषय करने वाला होने से ही जान लेनी चाहिए, क्योंकि, इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है, इसलिए ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योंकि, इसके स्वामियों के प्रवर्द्धमान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि, इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता है। (रा.वा./1/24/2/86/5); (गो.जी./मू./447/863)।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> मन:पर्यय का उत्पत्ति स्थान मन है, करणचिह्न नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> मन:पर्यय का उत्पत्ति स्थान मन है, करणचिह्न नहीं</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,62/331/10 <span class="PrakritText">जहा ओहिणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेससंबंधिसंठाणपरूवणा कदा, मणपज्जवणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेसाणं संठाणपरूवणा तहा किण्ण कीरिदे। ण, ... वियसियअट्ठदारविंद संठाणे समुप्पज्जमाणस्स ततो पुधभूदसंठाणाभावादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार अवधिज्ञानावरणीय के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का कथन किया है (देखें [[ अवधिज्ञान#5 | अवधिज्ञान - 5]]), उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरणीय के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का भी कथन क्यों नहीं करते। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि वह विकसित अष्ट पांखुड़ीयुक्त कमल के आकारवाले द्रव्यमन के प्रदेशों में उत्पन्न होता है।</span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./442/861 <span class="PrakritGatha">सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पज्जदे जहा ओही। मणपज्जवं च दव्वमणादो उप्पज्जदे णियमा।442।</span>= <span class="HindiText">भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्वांग से और गुणप्रत्यय करणचिह्नों से उत्पन्न होता है (देखें [[ अवधिज्ञान#5 | अवधिज्ञान - 5]]/1) इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान द्रव्यमन से उत्पन्न होता है। (पं.ध./पू./699)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">दोनों ही ज्ञानों में मनोमतिपूर्वक परकीय मन को जानकर पीछे | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">दोनों ही ज्ञानों में मनोमतिपूर्वक परकीय मन को जानकर पीछे तद्गत अर्थ को जाना जाता है। </strong> </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.13/5,5/सूत्र 63 व इसकी टीका/332<span class="PrakritText"> मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि मदि ... कालसंपजुत्ते अत्थे वि जाणदि।63। मणेण मदिणाणेण। कधं मदिणाणस्स मणव्ववएसो। कज्जे कारणोवयारादो। मणम्मि भवं लिंगं माणसं, अधवा मणो चेव माणसो। पडिविंदइत्ता चेत्तूण पच्छा मणपज्जवणाणेण जाणदि। मदिणाणेण परेसिं मणं घेत्तूण मणपज्जवणाणेण मणम्मि ट्ठिअत्थे जाणदि त्ति भणिदं होदि।</span> = <span class="HindiText">मन के द्वारा मानस को जानकर मन:पर्ययज्ञान काल से विशेषित दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति आदि पदार्थों को भी जानता है (विशेष देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/4/1 तथा 2/10/1); (म.ब. 1/2/24/5); (रा.वा./1/23/7,85/3); (ज.प./13/52) कारण में कार्य के उपचार से यहाँ मतिज्ञान की मन संज्ञा है। अथवा मन में उत्पन्न हुए चिह्न को ही मानस कहते हैं। ‘पडिविंदइत्ता’ अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्यय के द्वारा जानता है। मतिज्ञान के द्वारा दूसरों के मानस को या द्रव्यमन को–(सूत्र 71 की टीका) ग्रहण करके ही (पीछे) मन:पर्ययज्ञान के द्वारा मन में स्थित अर्थों को जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। (<strong>नोट</strong>–उक्त सूत्र ऋजुमति के प्रकरण का है। सूत्र 71-72 में शब्दश: यही बात विपुलमति के लिए भी कही गयी है)।<br /> | ||
दर्शन (उपयोग)/ | दर्शन (उपयोग)/6/3-4 (मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता, किन्तु परकीय मन की प्रणाली से जानता है। अत: जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार तो करता है, पर देखता नहीं उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी भी भूत व भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं। और इसीलिए इसकी उत्पत्ति दर्शनपूर्वक न मानकर मतिज्ञानपूर्वक मानी गयी है। ईहा मतिज्ञान ही इसका ‘दर्शन’ है।)</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,10/63/3 <span class="PrakritText">मदिणाणेण वा सुदणाणेण वा मण वचिकायभेदं णादूण पच्छातत्थट्ठिदमत्थं पच्चक्खेण जाणंतस्स मणपज्जवणाणिस्स दव्व-खेत्त-काल-भावभेएण विसओ चउव्विहो। तत्थ उज्जुमदी ...।</span> = <span class="HindiText">मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञान से मन, वचन व काय के भेदों को जानकर पीछे वहाँ स्थित अर्थ को प्रत्यक्ष से जाननेवाले मन:पर्ययज्ञानी का विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल, व भाव के भेद से चार प्रकार का है। इनमें ऋजुमति का विषय यहाँ कहा जाता है और विपुलमति का अगले सूत्र में कहा गया है।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,115/358/2 <span class="SanskritText">साक्षान्मन: समादाय मानसार्थानां साक्षात्करणं मन:पर्ययज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">मन का आश्रय लेकर मनोगत पदार्थों के साक्षात्कार करनेवाले ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./5/17/3 <span class="SanskritText">स्वकीयमनोऽवलम्बनेन परकीयमनोगतं मूर्त्तमर्थमेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदीहा मतिज्ञानपूर्वकं मन:पर्ययज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">जो अपने मन के अवलम्बन द्वारा पर के मन में प्राप्त हुए मूर्त्तपदार्थ को एकदेश प्रत्यक्ष से सविकल्प जानता है वह ईहामतिज्ञानपूर्वक मन:पर्ययज्ञान है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> ऋजुमति में इन्द्रियों व मन की अपेक्षा होती है, विपुलमति में नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> ऋजुमति में इन्द्रियों व मन की अपेक्षा होती है, विपुलमति में नहीं</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,63/333/1<span class="PrakritText"> एसो णियमो ण विउलमइस्स, अचिंतिदाणं पि अट्ठाणं विसईकरणादो।</span> = <span class="HindiText">यह (मतिज्ञान से दूसरे जीव के मानस को जानकर पीछे मन:पर्ययज्ञान से तद्गत अर्थ को जानने का) नियम विपुलमति ज्ञान का नहीं है, क्योंकि, वह अचिन्तित अर्थों को भी विषय करता है।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,62/331/6 <span class="PrakritText">जदि मणपज्जवणाणमिंदिय-णोइंदियजोगादिणिरवेक्खं संतं उप्पज्जदि तो परेसिं मणवयणकायवावारणिरवेक्खं संतं किण्ण उप्पज्जदि। ण विउलमइमणपज्जवणाणस्स तहा उप्पत्ति दंसणादो। उजुमदिमणपज्जवणाणं तण्णिरवेक्खं किण्ण उप्पज्जदे। ण, मन:पर्ययज्ञानावरणीयकर्म्मक्षयोपशमस्य वैचित्र्यात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि मन:पर्ययज्ञान स्पर्शनादिक इन्द्रियों, नोइन्द्रिय, और मन वचन काय योग आदि की अपेक्षा किये बिना उत्पन्न होता है, तो वह दूसरों के मन वचन काय के व्यापार की अपेक्षा किये बिना ही क्यों नहीं उत्पन्न होता (देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/3) <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, विपुलमति मन:पर्ययज्ञान की उस प्रकार से उत्पत्ति देखी जाती है। <strong>प्रश्न</strong>–ऋजुमति उसकी अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम की यह विचित्रता है (कि ऋजुमति तो इनकी अपेक्षा से जानता है और विपुलमति अवधिज्ञानवत् प्रत्यक्ष जानता है–गो.सा.); (गो.जी./मू./446-449/863)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> मन की अपेक्षामात्र से यह मतिज्ञान नहीं कहा जा सकता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> मन की अपेक्षामात्र से यह मतिज्ञान नहीं कहा जा सकता</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/9/94/4 <span class="SanskritText">मतिज्ञानप्रसंग इति चेत; न; अपेक्षामात्रत्वात्। क्षयोपशमशक्तिमात्रविजम्भितं हि तत्केवलं स्वपरमनोभिर्व्यपदिश्यते। यथा अभ्रे चन्द्रमसं पश्येति।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/23/129/11 <span class="SanskritText">परकीयमनसि व्यविस्थतोऽर्थ: अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्षते।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इस प्रकार तो मन:पर्ययज्ञान को मतिज्ञान का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ मन की अपेक्षामात्र है। यद्यपि वह केवल क्षयोपशम शक्ति से अपना काम करता है, तो भी स्व व पर के मन की अपेक्षा केवल उसका व्यवहार किया जाता है। यथा–‘आकाश में चन्द्रमा को देखो’ यहाँ आकाश की अपेक्षामात्र होने से ऐसा व्यवहार किया गया है। (परन्तु मतिज्ञानवत् यह मन का कार्य नहीं है–रा.वा.) दूसरे के मन में अवस्थित अर्थ को यह जानता है, इतनी मात्र यहाँ मन की अपेक्षा है। (रा.वा./1/9/5/44/24; 1/23/2/84/9)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> मतिज्ञानपूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> मतिज्ञानपूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,62/331/1 <span class="PrakritText">चिंतिदं कहिदे संते जदि जाणदि तो मणपज्जवणाणस्स सुदणाणत्तं पसज्जदि त्ति वुत्ते–ण एदं रज्जं एसो राया वा केत्तियाणि वस्सणि णंददि त्ति चिंतिय एवं चेव बोल्लिदे संते पच्चक्खेण रज्जसंताणपरिमाणं रायाउट्ठिदिं च परिच्छंदंतस्य सुदणाणत्तविरोहादो।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,71/341/4 <span class="PrakritText">जदि मणपज्जवणाणं मदिपुव्वं होदि तो तस्स सुदणाणत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, पच्चक्खस्स अवगहिदाणवगहित्थेसु वट्टमाणस्स मणपज्जवणाणस्स सुदभावविरोहादो। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चिन्तित अर्थ को कहने पर यदि ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जानता है तो उसके श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा; ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करने पर यह ज्ञान चूँकि प्रत्यक्ष से राज्यपरम्परा की मर्यादा को और राजा की आयुस्थिति को जानता है, इसलिए इस ज्ञान को श्रुतज्ञान मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि मन:पर्ययज्ञान मतिपूर्वक होता है, तो उसे श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, अवग्रहण किये गये और नहीं अवग्रहण किये गये पदार्थों में प्रवृत्त होने वाले और प्रत्यक्षस्वरूप मन:पर्ययज्ञान को श्रुतज्ञान मानने में विरोध आता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> मन:पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष व इन्द्रिय</strong>-<strong>निरपेक्ष है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> मन:पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष व इन्द्रिय</strong>-<strong>निरपेक्ष है </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,21/212/9 <span class="PrakritText">ओहिणाणं व एदं ति पच्चक्खं अणिंदियजत्तादो।</span> = <span class="HindiText">अवधिज्ञान के समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि, यह इन्द्रियों से नहीं उत्पन्न होता है।–(विशेष देखें [[ प्रत्यक्ष ]])। <br /> | ||
और भी | और भी देखें [[ अवधिज्ञान#4 | अवधिज्ञान - 4 ]](अवधि व मन:पर्यय में मन का निमित्त नहीं होता)।<br /> | ||
और भी | और भी देखें [[ अवधिज्ञान#3 | अवधिज्ञान - 3 ]](अवधि व मन:पर्यय कंथचित् प्रत्यक्ष है और कथंचित् परोक्ष)।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयत को ही संभव है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="4.1" id="4.1"></a>ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयत को ही संभव है</strong> </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.1/1,1/सूत्र/121/366 <span class="PrakritText">मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवदिरागच्छदुमत्था त्ति।121।</span> = <span class="HindiText">मन:पर्ययज्ञानी जीव प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/25/2/86/26 में उद्धृत – <span class="SanskritText">तथा चोक्तम् – मनुष्येषु मन:पर्यय आविर्भवति, न देवनारकतैर्यग्योनिषु। मनुष्येषु चोत्पद्यमान: गर्भजेषूत्पद्यते न संमूर्च्छनजेषु। गर्भजेषु चोत्पद्यमान: कर्मभूमिजेषुत्पद्यते नाकर्मभूमिजेषु। कर्मभूमिजेषूत्पद्यमान: पर्याप्तकेषूत्पद्यते नामपर्याप्तकेषु। पर्याप्तकेषूपजायमान: सम्यग्दृष्टिषूपजायते न मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्टिषु। सम्यग्दृष्टिषूपजायमान: संयतेषूपजायते नासंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतेषु। संयतेषूपजायमान: प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषूपजायते नोत्तरेषु। तत्र चोपजायमान: प्रवर्द्धमानचारित्रेषूपजायते न हीयमानचारित्रेषु प्रवर्द्धमानचारित्रेषूपजायमान: सप्तविधान्यतमऋद्धिप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु। ऋद्धिप्राप्तेषु च केषुचिन्न सर्वेषु।</span> = <span class="HindiText">आगम में कहा है, कि मन:पर्ययज्ञान मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, देव नारक व तिर्यंच योनि में नहीं। मनुष्यों में भी गर्भजों में ही होता है, सम्मूर्च्छितों में नहीं। गर्भजों में भी कर्मभूमिजों के ही होता है, अकर्मभूमिजों के नहीं। कर्मभूमिजों में भी पर्याप्तकों के ही होता है अपर्याप्तकों के नहीं। उनमें भी सम्यग्दृष्टियों के ही होता है, मिथ्यादृष्टि सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के नहीं। उनमें भी संयतों के ही होता है, असंयतों या संयतासंयतों के नहीं। संयतों में भी प्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ही होता है, इससे ऊपर नहीं। उनमें भी वर्द्धमान चारित्रवालों के ही होता है, हीयमान चारित्रवालों के नहीं। उनमें भी सात ऋद्धियों में से अन्यतम ऋद्धि को प्राप्त होने वाले के ही होता है, अन्य के नहीं। ऋद्धिप्राप्तों में भी किन्हीं के ही होता है, सबको नहीं। (स.सि.1/25/132/6); (गो.जी./मू./445/862)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उत्पन्न होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="4.2" id="4.2"></a>अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उत्पन्न होता है</strong> </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा. | पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा. 43-4 मूल व टीका/87/5 <span class="SanskritText">एदे संजमलद्धी उवओगे अप्पमत्तस्स।4। उपेक्षासंयमे सति लब्धिपर्ययोस्तौ संयमलब्धो मन:पर्ययौ भवत:। तौ च कस्मिन् काले समुत्पद्येते। उपयोगे विशुद्धपरिणामे। कस्य। वीतरागात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसहितस्य ... पंचदशप्रमादरहितस्याप्रमत्तमुनेरिति। अत्रोत्पत्तिकाल एवाप्रमत्तनियम: पश्चात्प्रमत्तस्यापि संभवतीति भावार्थ:।</span> = <span class="HindiText">ऋजु व विपुलमति दोनों मन:पर्ययज्ञान, उपेक्षा-संयमरूप संयमलब्धि होने पर ही होते हैं और वह भी विशुद्ध परिणामों में तथा वीतराग आत्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र की भावनासहित, पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से रहित अप्रमत्त मुनि के ही उत्पन्न होते हैं। यहाँ अप्रमत्तपने का नियम उत्पत्तिकाल में ही है, पीछे प्रमत्त अवस्थायें भी सम्भव हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> ऋजु व विपुलमति का स्वामित्व</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> ऋजु व विपुलमति का स्वामित्व</strong> <br /> | ||
देखें | देखें [[ मन:पर्यय ]]/2/12 (ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कषाय के उदयसहित हीनमान चारित्रवालों के होता है और विपुलमति विशिष्ट प्रकार के प्रवर्द्धमान चारित्रवालों के। ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् अचरम देहियों के भी सम्भव है, पर विपुलमति अप्रतिपाती है अर्थात् चरम देहियों के ही सम्भव है।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा. | पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा. 43-4 टीका/87/3<span class="SanskritText"> निर्विकारात्मोपलब्धिभावनासहितानां चरमदेहमुनीनां विपुलमतिर्भवति।</span> = <span class="HindiText">निर्विकार आत्मोपलब्धि की भावना से सहित चरम देहधारी मुनियों को ही विपुलमतिज्ञान होना सम्भव है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> निचले गुणस्थानों में क्यों नहीं होता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> निचले गुणस्थानों में क्यों नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,121/366/9 <span class="SanskritText">देशविरताद्यधस्तनभूमिस्थितानां किमिति मन-पर्ययज्ञानं न भवेदिति चेन्न, संयमासंयमासंयमत उत्पत्तिविरोधात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–देशविरति आदि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, संयमासंयम और असंयम के साथ मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> सभी संयमियों के क्यों नहीं होता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> सभी संयमियों के क्यों नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,121/366/11 <span class="SanskritText">संयममात्रकारणत्वे सर्वसंयतानां किन्न भवेदिति चेदभविष्यद्यदि संयम एक एव तदुत्पत्ते:कारणतामागमिष्यत्। अप्यन्येऽपि तद्धेतव: सन्ति तद्वैकल्यान्न सर्वसंयतानां तदुत्पत्ते:। केऽन्ये तद्धेतव इति चेद्विशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालादय:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि संयममात्र मन:पर्यय की उत्पत्ति का कारण है तो समस्त संयमियों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि केवल संयम ही कारण हुआ होता तो ऐसा भी होता, किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भी कारण हैं, जिनके न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता। <strong>प्रश्न</strong>–वे दूसरे कौन कौन से कारण हैं ? उत्तर–विशेष जाति के द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">द्वितीय व प्रथम उपशम | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">द्वितीय व प्रथम उपशम सम्यक्त्व के काल में मन:पर्यय के सद्भाव व अभाव में हेतु</strong></span><strong><br></strong>ध.2/1,1/727/7 <span class="PrakritText">वेदसम्मत्तपच्छायदउवसमसम्मत्तसम्माइट्ठिस्स पढमसमए वि मणपज्जवणाणुवलंभादो। मिच्छत्तपच्छायदउवसमसम्माइट्ठिम्मि मणपज्जवणाणं ण उवलब्भदे, मिच्छत्तपच्छायदुक्कस्सुवसमसम्मत्तकालादो वि गहियसंजमपढमसमयादो सव्वजहण्णमणपज्जवणाणुप्पायणसंजमकालस्स बहुत्तुवलंभादो। </span>= <span class="HindiText">जो वेदक सम्यक्त्व के पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है उस उपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में भी मन:पर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आये हुए (प्रथम) उपशमसम्यग्दृष्टि जीव में मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यात्व से पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि के उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्व के काल से भी ग्रहण किये गये संयम के प्रथम समय से लगा कर सर्व जघन्य मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला संयम काल बहुत बड़ा है। </span></li> | ||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
बिना पूछे किसी के मन की बात को प्रत्यक्ष जान जाना मन:पर्ययज्ञान है। यद्यपि इसका विषय अवधिज्ञान से अल्प है, पर सूक्ष्म होने के कारण उससे अधिक विशुद्ध है और इसलिए यह संयमी साधुओं को ही उत्पन्न होना सम्भव है। यद्यपि प्रत्यक्ष है परन्तु इसमें मन का निमित्त उपचार से स्वीकार किया गया है। यह दो प्रकार का है–ऋजुमति और विपुलमति। प्रथम केवल चिन्तित पदार्थ को ही जानता है, परन्तु विपुलमति चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित व चिन्तितपूर्व सबको जानने में समर्थ है।
- मन:पर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
- मन:पर्ययज्ञान सामान्य का लक्षण
- परकीय मनोगत पदार्थ को जानना।
- पदार्थ के चिन्तवनयुक्त मन या ज्ञान को जानना।
- परकीय मनोगत पदार्थ को जानना।
- उपरोक्त दोनों लक्षणों का समन्वय।
- मन:पर्ययज्ञान की देश प्रत्यक्षता–देखें मन:पर्यय - 3.6।
- मन:पर्ययज्ञान व अवधिज्ञान में अन्तर–देखें अवधिज्ञान - 2।
- अवधि की अपेक्षा मन:पर्यय की विशुद्धिता–देखें अवधिज्ञान - 2।
- मन:पर्यय, मति व श्रुतज्ञान में अन्तर–देखें मन:पर्यय - 3।
- मन:पर्यय क्षायोपशमिक कैसे–देखें मतिज्ञान - 2.4।
- मन:पर्यय निसर्गज है–देखें अधिगम ।
- मन:पर्यय का दर्शन नहीं होता।–देखें दर्शन - 6।
- मन:पर्ययज्ञान का विषय
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।
- द्रव्य क्षेत्र काल व भाव की अपेक्षा।
- मन:पर्ययज्ञान की त्रिकालग्राहकता।
- मूर्तद्रव्यग्राही मन:पर्यय द्वारा जीव के अमूर्त भावों का ग्रहण कैसे ?
- मूर्तग्राही मन:पर्यय द्वारा अमूर्त कालद्रव्य सापेक्ष भावों का ग्रहण कैसे ?
- क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण।
- मन:पर्ययज्ञान के भेद
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।
- मन:पर्ययज्ञान में जानने का क्रम।–देखें मन:पर्ययज्ञान - 3।
- मोक्षमार्ग में मन:पर्यय की अप्रधानता।–देखें अवधिज्ञान - 2।
- प्रत्येक तीर्थंकर के काल में मन:पर्ययज्ञानियों का प्रमाण।–देखें तीर्थंकर - 5।
- मन:पर्यय सम्बन्धी, गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- मन:पर्ययज्ञानियों की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम।
- सभी मार्गणास्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- मन:पर्ययज्ञान सामान्य का लक्षण
- ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश
- ऋजुमति सामान्य का लक्षण।
- ऋजुत्व का अर्थ।
- ऋजुमति के भेद व उनके लक्षण।
- ऋजुमति का विषय
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।
- 2-4. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा।
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।
- ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदि का ग्रहण क्यों नहीं करता ?
- वचनगत ऋजुगति की मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?
- विपुलमति सामान्य का लक्षण।
- विपुलत्व का अर्थ।
- विपुलमति के भेद व उनके लक्षण।
- विपुलमति का विषय
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।
- 2-4, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा।
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा।
- अचिन्तित अर्थगत विपुलमति को मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?
- विशुद्धि व प्रतिपात की अपेक्षा दोनों में अन्तर।
- ऋजुमति सामान्य का लक्षण।
- मन:पर्ययज्ञान में स्व व पर मन का स्थान
- मन:पर्यय का उत्पत्तिस्थान मन है, करणचिह्न नहीं।
- दोनों ही ज्ञानों में मनोमति पूर्वक परकीय मन को जानकर पीछे तद्गत अर्थ को जाना जाता है।
- ऋजुमति में इन्द्रियों व मन की अपेक्षा होती है, विपुलमति में नहीं।
- मन की अपेक्षामात्र से यह मतिज्ञान नहीं कहा जा सकता।
- मतिज्ञानपूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता।
- मन:पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष व इन्द्रियनिरपेक्ष है।
- मन:पर्यय का उत्पत्तिस्थान मन है, करणचिह्न नहीं।
- मन:पर्ययज्ञान का स्वामित्व
- ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयत को ही सम्भव है।
- अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उत्पन्न होता है।
- ऋजु व विपुलमति का स्वामित्व।
- निचले गुणस्थानों में क्यों नहीं होता ?
- सभी संयमियों को क्यों नहीं होता ?
- अप्रशस्त वेद में नहीं होता।–देखें वेद - 6।
- उपशम सम्यक्त्व व परिहार-विशुद्धि आदि गुण विशेषों के साथ नहीं होता–देखें परिहार विशुद्धि/7।
- द्वितीय व प्रथम उपशमसम्यक्त्व के काल में मन:पर्यय के सद्भाव व अभाव सम्बन्धी हेतु।
- पंचम काल में सम्भव नहीं–देखें अवधिज्ञान - 2/7।
- ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयत को ही सम्भव है।
- मन:पर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
- मन:पर्ययज्ञान सामान्य का लक्षण
- परकीय मनोगत पदार्थ को जानना
ति.प./4/973 चिंताए अचिंताए अद्धचिंताए विविहभेयगयं। जं जाणइ णरलोए तं चिय मणपज्जवं णाणं।973। = चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ता के विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थ को जो ज्ञान नरलोक के भीतर जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान है। (पं.सं./प्रा./1/125); (ध.1/1,1,115/गा. 185/360); (क.पा.1/1,1/28/43/3); (गो.जी./मू./438/857)।
स.सि./1,9/94/3 परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते। साहचर्यात्तस्य पर्ययणं परिगमनं मन:पर्यय:। = दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं, उसके मन के सम्बन्ध से उस पदार्थ का पर्ययण अर्थात् परिगमन करने को या जानने को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। (रा.वा./1/9/44/21); (क.पा. 1/1,1/14/19/1); (गो.जी./जी.प्र./438/858/21)।
रा.वा./1/9/4/44/19 तदावरणकर्मक्षयोपशमादिद्वितीयनिमित्तवशात् परकीयमनोगतार्थज्ञानं मन:पर्यय:। = मन:पर्यय ज्ञानवरण कर्म के क्षयोपशमादिरूप सामग्री के निमित्त से परकीय मनोगत अर्थ को जानना मन:पर्यय ज्ञान है। (पं. का.त.प्र./41); (द्र.सं./टी./5/17/2)। (न्या.दी./2/13/34)।
ध.6/1,9-1,14/28/6 परकीयमनोगतोऽर्थो मन:, तस्य पर्याया: विशेषाः मन:पर्याया:, तान् जानातीति मन:पर्ययज्ञानम्। = परकीय मन में स्थित पदार्थ मन कहलाता है। उसकी पर्यायों अर्थात् विशेषों को मन:पर्यय कहते हैं। उनको जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। (ध.13/5,5,21/212/4)।
देखें मन:पर्यय । 3/2 (स्वमन से परमन का आश्रय लेकर मनोगत अर्थ को जानने वाला मन:पर्ययज्ञान हैं।) - पदार्थ के चिन्तवन युक्त मन या ज्ञान को जानना
ध.1/1,1,2/94/4 मणपज्जवणाणं णाम परमणोगयाइं मुक्तिदव्वाइं तेण मणेण सह पच्चक्खं जाणदि। = जो दूसरों के मनोगत मूर्तीक द्रव्यों को उस मन के साथ प्रत्यक्ष जानता है, उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं।
ध.13/5,5,21/212/8 अधवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चिंतिए विअचिंतिए वि अत्थे वट्टमाणणाणविसया त्ति घेत्तव्वा। = अथवा ‘मन:पर्यय’ यह संज्ञा रूढिजन्य है। इसलिए चिन्तित व अचिन्तित दोनों प्रकार के अर्थ में विद्यमान ज्ञान को विषय करने वाली यह संज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
- परकीय मनोगत पदार्थ को जानना
- उपरोक्त दोनों लक्षणों का समन्वय
ध.13/5,5,212/4 परकीयमनोगतोऽर्थो मन:, मनस: पर्याया: विशेषा: मन:पर्याया:, तान् जानातीति मन:पर्ययज्ञान्। सामान्यव्यतिरिक्तविशेषग्रहणं न संभवति, निर्विषयत्वात्। तस्मा्त सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहि मन:पर्ययज्ञानमिति वक्तव्यं चेत्–नैष दोष:, इष्टत्वात्। तर्हि सामान्य ग्रहणमपि कर्तव्यम्। (न), सामर्थ्यलभ्यत्वात्। एदं वयणं देसामासियं। कुदो। अचिंतियाणं अद्धचिंतियाणं च अत्थाणमवगमादो।
= परकीय मन को प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है। उस मन (मनोगत पदार्थ) की पर्यायों या विशेषों का नाम मन:पर्याय है। उन्हें जो जानता है, वह मन:पर्यायज्ञान है।–विशेष देखें लक्षण नं - 1। प्रश्न–सामान्य को छोड़कर केवल विशेष का ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि ज्ञान का विषय केवल विशेष नहीं होता, इसलिए सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को ग्रहण करने वाला मन:पर्ययज्ञान है, ऐसा कहना चाहिए। उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है। प्रश्न–तो इसके विषयरूप से सामान्य का भी ग्रहण करना चाहिए। उत्तर–नहीं, क्योंकि सामर्थ्य से ही उसका ग्रहण हो जाता है। अथवा यह वचन (उपरोक्त लक्षण नं. 1) देशामर्शक है, क्योंकि, इससे अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थों का भी ज्ञान होता है। अथवा (चिन्तित पदार्थों के साथ-साथ उस चिन्तवन युक्त ज्ञान या मन को भी जानता है–देखें लक्षण नं - 2।
भावार्थ–‘परकीय मनोगत पदार्थ’ इतना मात्र कहना सामान्यविषय निर्देश है और ‘चिन्तित अचिन्तित आदि पदार्थ’ यह कहना विशेषविषय निर्देश है। अथवा ‘चिन्तित अचिन्तित पदार्थ’ यह कहना विशेषविषय निर्देश है और ‘इससे युक्त ज्ञान व मन’ यह कहना सामान्य विशेष निर्देश है। पदार्थ सामान्य, पदार्थ विशेष और ज्ञान या मन इन तीनों बातों को युगपत् ग्रहण करने से मन:पर्यय ज्ञान का विषय सामान्य विशेषात्मक हो जाता है। - मन:पर्ययज्ञान का विषय
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा
देखें मन:पर्यय /2/4,10 (दूसरों के मन में स्थित संज्ञा, स्मृति, चिन्ता, मति आदि को तथा जीवों के जीवन-मरण, सुख-दु:ख तथा नगर आदि का विनाश, अतिवृष्टि, सुवृष्टि, दुर्भिक्ष-सुभिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय-रोग आदि पदार्थों को जानता है।)
- द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा
त.सू./1/28 तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य। = (द्रव्य की अपेक्षा) मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में होती है। (त.सा./1/33)।
ध.1/1,1,2/14/5 दव्वदो जहण्णेण एगसमयओरालियसरीरणिज्जरं जाणदि। उक्कस्सेण एगसमयपडिबद्धस्स कम्मइयदव्वस्स अणंतिमभागं जाणदि। खेत्तदो जहण्णेण गाउवपुधत्तं, उक्कस्सेण माणुसखेत्तस्संतो जाणदि, णो बहिद्धा। कालदो जहण्णेण दो तिण्णि भवग्गहणाणि। उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि जाणादि। = मन:पर्ययज्ञान द्रव्य की अपेक्षा जघन्यरूप से एक समय में होने वाले औदारिक शरीर के निर्जरारूप द्रव्य तक को जानता है। उत्कृष्टरूप से कार्मण द्रव्य के अर्थात् आठ कर्मों के एक समय में बँधे हुए समयप्रबद्धरूप द्रव्य के अनन्त भागों में से एक भाग तक को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्यरूप से गव्यूति पृथक्त्व अर्थात् दो तीन कोस तक क्षेत्र को जानता है और उत्कृष्टरूप से मनुष्य क्षेत्र के भीतर तक जानता है, उसके बाहर नहीं। काल की अपेक्षा जघन्यरूप से दो तीन भवों को और उत्कृष्टरूप से असंख्यात भवों को जानता है। (भाव की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण से निरूपण किये गये द्रव्य की शक्ति को जानता है )। - मन:पर्ययज्ञान की त्रिकाल ग्राहकता
देखें लक्षण नं - 1 (दूसरे के मन को प्राप्त ऐसे चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित व चिन्तित पूर्व सब अर्थों को जानता है–और भी देखें मन:पर्यय /2/10)।
देखें मन:पर्यय /2/4,10 (अतीतविषयक स्मृति, वर्तमानविषयक चिन्ता और अनागत विषयक मति को जानता है। इस प्रकार वर्तमान जीव के मनोगत त्रिकाल विषयक अर्थ को जानता है।) - मूर्त द्रव्यग्राही मन:पर्यय द्वारा जीव के अमूर्त भावों का ग्रहण कैसे ?
ध.13/5,5,63/333/5 अमूत्तो जीवो कधंमणपज्जवणाणेण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादो हेट्ठियेण परिच्छिज्जदे। ण मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिवंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो। स्मृतिरमूर्ता चेत्-न, जीवादो पुधभूदसदीए अणुवलंभा। = प्रश्न–यत: जीव अमूर्त है अत: वह मूर्त अर्थ को जानने वाले अवधिज्ञान से नीचे के मन:पर्यय ज्ञान के द्वारा कैसे जाना जाता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादि कालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता। प्रश्न–स्मृति तो अमूर्त है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, स्मृति जीव से पृथक् नहीं उपलब्ध होती है। - <a name="1.3.5" id="1.3.5"></a>मूर्तग्राही मन:पर्यय द्वारा अमूर्त कालद्रव्य सापेक्ष भावों का ग्रहण कैसे ?
ध.13/5,5,63/334/5 एत्तिए णकालेण सुहं होदि त्ति किं जाणादि आहो ण जाणादि त्ति। विदिएण पचक्खेण सुहावगमो, कालमपाणावगमाभावादो। पढमपक्खे कालेण वि पचक्खेण होदव्वं, अण्णहा सुहमेत्तिएण कालेण एत्तियं वा कालं होदि त्ति वोत्तुमजोगादो। ण च कालो मणपज्जवणाणेण पच्चक्खमवगम्मदे, अमुत्तम्मि तस्स वुत्तिविरोहादो त्ति। ण एस दोसो, ववहारकालेण एत्थ अहियारादो। णं च मुत्ताणं दव्वाणं परिणामो कालसण्णिदो अमुत्तो चेव होदि त्ति णियमो अत्थि, अव्ववत्थावत्तीदो। = प्रश्न–इतने काल में सुख होगा, इसे क्या वह जानता है अथवा नहीं जानता। दूसरा पक्ष स्वीकार करने पर प्रत्यक्ष से सुख का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके काल का प्रमाण नहीं उपलब्ध होता है। पहिला पक्ष मानने पर काल का भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योंकि, अन्यथा ‘इतने काल में सुख होगा या इतने काल तक सुख रहेगा’; यह नहीं जाना जा सकता। परन्तु काल का मन:पर्यय ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होता नहीं है क्योंकि, उसकी अमूर्त पदार्थ में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहाँ पर व्यवहार काल का अधिकार है। दूसरे, काल संज्ञावाले मूर्त द्रव्यों का (सूर्य, नेत्र, घड़ी आदि का) परिणाम अमूर्त ही होता है, ऐसा कोई नियम भी नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर अव्यवस्था की आपत्ति आती है। - क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण
ध.9/4,1,11/67/10 एगागाससेडीए चेव जाणदि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, देव-मणुस्सविज्जाहराइसु णाणस्स अप्पउत्तिपसंगादो। ‘माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरदो चेव जाणेदि णो बहिद्धा’ त्ति वग्गणसुत्तेण णिद्दिट्ठादो माणुसखेत्तअब्भंतरट्ठिदसव्वमुत्तिदव्वाणि जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, माणुस्सुत्तरसेलसमीवे ठइदूण बाहिरदिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्पसंगादो। होदु च ण, तदणुप्पत्तीए कारणाभावादो। ण ताव खओवसमाभावे... अणिंदियस्स पच्चक्खस्स ... माणुसुत्तरसेलेण पडिघादाणुववत्तीदो। तदो माणुसुत्तरसेलब्भंतरवयणं ण खेत्तणियामयं, किंतु माणुसुत्तरसेलब्भंतरपणदालीसजोयणलक्खणियामयं, विउलमदि मदिमणपज्जवणाणुज्जोयसहिदखेत्ते धणागारेण ठइदे पणदालीसजोयणलक्खमेत्तं चेव होदि त्ति। = आकाश की एक श्रेणी के क्रम से ही जानता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर देव, मनुष्य एवं विद्याधरादिकों में विपुलमति मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति न हो सकने का प्रसंग आवेगा। ‘मानुषोत्तरशैल के भीतर ही स्थित पदार्थ को जानता है, उसके बाहर नहीं’ (देखें मन:पर्यय /2/10/3) ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होने से, मनुष्य क्षेत्र के भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्यों को जानता है, उससे बाह्यक्षेत्र में नहीं; ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करने पर मानुषोत्तर पर्वत के समीप में स्थित होकर बाह्य दिशा में उपयोग करने वाले के ज्ञान की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग होगा। यह प्रसंग आवे तो आने दो, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि, उसके उत्पन्न न हो सकने का कोई कारण नहीं है। क्षयोपशम का तो अभाव है नहीं, और न ही मन:पर्यय के अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का मानुषोत्तर पर्वत से प्रतिघात होना सम्भव है। अतएव ‘मानुषोत्तर पर्वत के भीतर’ यह वचन क्षेत्र नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वत के भीतर 45,00,000 योजनों का नियामक है, क्योंकि, विपुल मतिज्ञान के उद्योत सहित क्षेत्र को घनाकार से स्थापित करने पर 45,00,000 योजन मात्र ही होता है। (इतने क्षेत्र के भीतर स्थित होकर चिन्तवन करने वाले जीवों के द्वारा विचार्यमाण द्रव्य मन:पर्ययज्ञान की प्रभा से अवष्टब्ध क्षेत्र के भीतर होता है, तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता है; यह उक्त कथन का तात्पर्य है–(ध.13); (ध.13/5,5,77/343/9); (गो.जी./जी.प्र./456/869/15)। - मन:पर्ययज्ञान के भेद
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/43-4 विउलमदि पुण णाणं अज्जवणाणं च दुविह मणणाणं। = मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का है–ऋजुमति और विपुलमति। (म.बं. 1/2/3); (देखें ज्ञानावरण - 3.5); (त.सू. 1/23); (स.सि./1/23/129/7); (रा.वा./1/23/6/84/27); (ह.पु./10/153); (क.पा. 1/1-1/14/20/1); (ध.6/1,9-1,14/28/7); (ज.पा./13/52); (गो.जी./मू./439/858)।
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा
- मन:पर्ययज्ञान सामान्य का लक्षण
- ऋृजु व विपुलमतिज्ञान निर्देश
- ऋृजुमति सामान्य लक्षण
स.सि./1/123/129/2 ऋज्वी निर्वर्तिता प्रगुणा च। कस्मान्निर्वर्तिता। वाक्कायमन:कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात्। ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमति:। = ऋजु का अर्थ निर्वर्तित (निष्पन्न) और प्रगुण (सीधा) है। अर्थात् दूसरे के मन को प्राप्त वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से निर्वर्तित या ऋजु जिसकी मति है वह ऋजुमति कहलाता है। (रा.वा./1/23/-/83/33); (ध.13/5,5,/62/330/5); (गो.जी./जी.प्र./439/858/16)।
ध.9/4,1,10/62/9 परकीयमतिगतोऽर्थ: उपचारेण मति:। ऋज्वी अवक्रा। ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमति:। = दूसरे के मन में स्थित अर्थ उपचार से मति कहा जाता है। ऋजु का अर्थ वक्रता रहित है ( या वर्तमान काल है)–(देखें नय - III.1.2)। ऋजु है मति जिसकी वह ऋजुमति कहा जाता है। (पं.का./ता.वृ./43-4/87/3)। - ऋजुत्व का अर्थ
ध.9/4,1,10,62/9 कथमृजुत्वम्। यथार्थं मत्यारोहणात् यथार्थमभिधानगत्वान् यथार्थमभिनयगतत्वाच्च। = प्रश्न–ऋजुता कैसे है? उत्तर–यथार्थ मन का विषय होने से, यथार्थ वचनगत होने से और यथार्थ अभिनय अर्थात् कायिक चेष्टागत होने से उक्त मति में ऋजुता है।
ध.13/5,5,62/330/1 मणस्स कधमुजुगत्तं। जो जधा अत्थो ट्ठिदो तं तधा चिंतयंतो मणो उज्जुगत्तो णाम। तव्विवरीयो मणो अणुज्जुगो। कधंवयणस्स उज्जुवत्तं। जो जेम अत्थो ट्ठिदो तं तेम जाणावयंतं वयणं उज्जुव णाम। तव्विवरीयमणुज्जुवं। कधं कायस्स उज्जुवत्तं। जो जहा अत्थो ट्ठिदो तं तहा चेव अहिणइदूण दरिसयंतो काओ उजुओ णाम। तव्विवरीयो अणुज्जुओ णाम। = प्रश्न–मन, वचन व काय में ऋजुपना कैसे आता है? उत्तर–जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है, उसका उसी प्रकार से चिन्तवन करने वाला मन, उसका उसी प्रकार से ज्ञापन करने वाला वचन और उसको उसी प्रकार से अभिनय द्वारा दिखालाने वाला काय तो ऋजु है; और इनकी विपरीत चिन्तवन, ज्ञापन व अभिनययुक्त मन, वचन, काय अनृजु है।
ध. 13/5,5,64/337/3 व्यक्तं निष्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं मन: येषां ते व्यक्तमनस: तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च संबन्धि वस्त्वन्तरं तत्र तस्य सामर्थ्याभावात्। कधं मणस्स माणववएसो। ... वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतत्रिकालसंबन्धिनमर्थं जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति। सूत्रार्थो व्याख्येय:। = व्यक्त (अर्थात् ऋजु) का अर्थ ‘निष्पन्न’ होता है। अर्थात् जिनका मन संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित है वे व्यक्त मनवाले जीव हैं, उन व्यक्त मनवाले अन्य जीवों से तथा स्व से सम्बन्ध रखने वाले अन्य अर्थ को जानता है। अव्यक्त मन वाले जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अन्य अर्थ को नहीं जानता है, चिन्तित अर्थयुक्त मन व्यक्त है, और अचिन्तित व अर्धचिन्तित अर्थयुक्त अव्यक्त है। (देखें मन:पर्यय /2/10/1 में ध./13) क्योंकि, इस प्रकार के अर्थ को जानने का इस ज्ञान का सामर्थ्य नहीं है। प्रश्न–(सूत्र में) मन को ‘मान’ व्यपदेश कैसे किया है? उत्तर–वर्तमान जीवों के वर्तमान मनोगत त्रिकाल सम्बन्धी अर्थ को जानता है, अतीत और अनागत मनोगत विषय को नहीं जानता है, इस प्रकार सूत्र के अर्थ का व्याख्यान करना चाहिए। (चिन्तित अर्थयुक्त मन व्यक्त है और अचिन्तित व अर्धचिन्तित अर्थयुक्त अव्यक्त है। और भी देखें मन:पर्यय /2/4/1)। - ऋजुमति के भेद व उनके लक्षण
म.ब. 1/2/24/4 यं तं उजुमदिणाणं तं तिविधं-उज्जुगं मणोगदं जाणदि। उज्जुगं वचिंगदं जाणदि। उज्जुगं कायगदं जाणदि। = जो ऋजुमति ज्ञान है, वह तीन प्रकार का है। वह सरल मनोगत पदार्थ को जानता है, सरल वचनगत पदार्थ को जानता है, सरल कायगत पदार्थ को जानता है। (ष.खं.13/5,5/सूत्र 62/329); (ध.9/4,1,10/63/1); (गो.जी./मू./439/858)।
रा.वा./1/23/7/84/29 आद्य ऋजुमतिमन:पर्ययत्रेधा। कुत:। ऋजुमनोवाक्कायविषयभेदात्–ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ: ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ: ऋजुकायकृतार्थज्ञश्चेति। तद्यथा, मनसाऽर्थं व्यक्तं संचिन्त्य वाचं वा धर्मादियुक्तामसंकीर्णामुच्चार्य कायप्रयोगं चोभयलोकफलनिष्पादनार्थमङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गनिपानाकुञ्चनप्रसारणादिलक्षणं कृत्वा। पुनरनन्तरे समये कालान्तरे वा तमेवार्थं चिन्तितमुक्तं कृतं वा विस्मृतत्वान्न शक्नोति चिन्तयितुम्, तमेवंविधमर्थं ऋजुमतिमन:पर्यय: पृष्ठोऽपृष्ठो वा जानाति ‘अयमसावर्थोऽनेन विधिना त्वया चिन्तित उक्त: कृतो वा’ इति। कथमयमर्थो लभ्यते। आगमाविरोधात्। आगमे ह्युक्तम् ...। = ऋजु मन, वचन व काय के विषय भेद से ऋजुमति तीन प्रकार का है―ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ। जैसे किसी ने किसी समय सरल मन से (देखें मन:पर्यय /2/2) किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, स्पष्ट वाणी से कोई विचार व्यक्त किया और काय से भी उभयफल निष्पादनार्थ अंगोपांग आदि का सुकोड़ना, फैलाना आदि रूप स्पष्ट क्रिया की। कालान्तर में उन्हें भूल जाने के कारण पुन: उन्हीं का चिन्तवन व उच्चारण आदि करने को समर्थ न रहा। इस प्रकार के अर्थ को पूछने पर या बिना पूछे भी ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान जान लेता है, कि इसने इस प्रकार सोचा था या बोला था या किया था। और यह अर्थ आगम से सिद्ध है। यथा–(देखें अगला सन्दर्भ ) देखें मन:पर्यय /2/4 (देखें गो जी./जी.प्र./440/859/17)। (अपने मन से दूसरे के मानस को जानकर ही तद्गत अर्थ को जानता है। चिन्तित या उक्त या अभिनयगत को ही जानता है। अचिन्तित, अर्द्धचिन्तित या विपरीत चिन्तित को अनुक्त, अर्द्ध उक्त व विपरीत उक्त को तथा इसी प्रकार के अभिनयगत को नहीं जानता।) - ऋजुमति का विषय
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा
ष.ख./13/5,5 सूत्र/ 63-64/332-336 मणेण माणसं पडिविंदडत्ता परेसिं सण्णा संदि मदि चिंता जीविदमरणं लाहालाहं सुहुदुक्खं णयरविणासं देसविणासं ... अइवुट्ठि अणाबुट्ठि सुवुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुव्भिक्खं खेमाखेम भयरोग कालसं (प) जुत्ते अत्थे वि जाणदि।63। किंच भूओ–अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि णो अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि।64। (सूत्र नं. 63 की टीका पृ. 333 सद्दकलाओ सण्णा .... दिट्ठसुदाणुभूदट्ठ ... सदी। अणागयत्थविसय ... मदी। वट्टमाणत्थविसय ... चिंता।) = अपने मन के द्वारा दूसरे के मानस को जानकर (यह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान) काल से विशेषित दूसरों की संज्ञा (शब्दकलाप), स्मृति (अतीतकालगत दृष्ट श्रुत व अनुभूत विषय), मति (अनागतकालगत विषय), चिन्ता (वर्तमानकालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित-मरण, लाभ-अलाभ व सुख-दुःख को; तथा नगर, देश, जनपद, खेट, कर्वट आदि के विनाश को, तथा अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय और रोगरूप पदार्थों को भी [प्रत्यक्ष (टीका)] जानता है।63। और भी – व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को वह जानता है, अव्यक्त मनवाले जीवों से संबंध रखने वाले अर्थ को नहीं जानता (व्यक्त-अव्यक्त मन का अर्थ–देखें पीछे मन:पर्यय - 2.2)।64। (म.व. 1/2/24/5)।
देखें मन:पर्यय /2/2 (यथार्थ अर्थात् यथास्थित त्रिकालगत अर्थ को वर्तमान में संशयादि रहित होकर, मन से चिन्तवन अथवा वचन से ज्ञापन अथवा काय से अभिनय करने वाले किसी व्यक्ति के या अपने ही व्यक्त मन से सम्बन्ध रखनेवाले अर्थ को जानता है। अतीत व अनागत काल में वर्तने वाले के मन की बात नहीं जानता।)
देखें मन:पर्यय /2/3 (सरल मन वचन काय प्राप्त को ही जानता है वक्र को नहीं, अर्थात् वर्तमान काल में चिन्तवन ज्ञापन व अभिनय करने वाले को ही जानता है, अचिन्तित, अज्ञापित व अनभिनीत को नहीं जानता।)
रा.वा./1/23/7/85/7 व्यक्त: स्फुटीकृतोऽर्थश्चिन्तया सुनिर्वर्तितो यैस्ते जीवा व्यक्तमनसस्तैर्य्थं चिन्तितं ऋजुमतिर्जानाति नेतरै:। = व्यक्त या स्पष्ट व सरल रूप से अर्थ की चिन्ता करने वाले जीवों के व्यक्त (वर्तमान) मन में जो अर्थ चिन्तितरूप से स्थित है उसको ऋजुमति जानता है अव्यक्त व अचिन्तित को नहीं–विशेष देखें मन:पर्यय /2/2।
ध.13/5,5,62/330/6 उज्जुवं पउणं होदूण मणस्स गदमट्ठ जाणदि तमुजुमदिमणपज्जवणाणं। अचिंतियमद्धचिंतियं विवरीयभावेण (चिंतियं च अट्ठं ण ) जाणदि त्ति भणिदं होदि। जमुज्जवं पउणं होदूण चिंतियं पउणं चेव उल्लविदमट्ठं जाणदि तं पि उजुमदिमणपज्जयणाणं णाम। अब्बोल्लिदमद्धबोल्लिदं विवरीयभावेण बोल्लिदं च अट्ठं ण जाणदि त्ति भणिदं होदि; ... उज्जुभावेण चिंतियं उज्जुवसरूवेण अहिणइदमत्थं जाणदि तं पि उजुमदिमणपज्जवणाणं णाम। उज्जुमदीए विणा कायवावारस्स उज्जुवत्तविरोहादो। = जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर मनोगत अर्थ को जानता है वह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है। वह अचिन्तित, अर्धचिन्तित या विपरीत रूप से चिन्तित अर्थ को नहीं जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर विचारे गये व सरल रूप से ही कहे गये अर्थ को जानता है, वह भी ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान है। यह नहीं बोले गये, आधे बोले गये या विपरीत रूप से बोले गये अर्थ को नहीं जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। जो ऋजुभाव से विचारकर एवं ऋजुरूप से अभिनय करके दिखाये गये अर्थ को जानता है वह भी ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है, क्योंकि ऋजुमति के बिना काय की क्रिया के ऋजु होने में विरोध आता है।
गो.जी./मू./441/860 तियकाल विसयरूविं चिंतितं वट्टमाणजीवेण उजुमणि णाणं जाणदि ...।441। = वर्तमान काल में त्रिकाल विषयक मूर्तीक द्रव्य को चिन्तवन करने वाले जीव के मन में स्थित अर्थ को ऋजुमति जानता है (अचिन्तित आदि यह नहीं जानता उसे विपुलमति जानता है।) - द्रव्य की अपेक्षा
ध.9/4,1,10/63/5 तत्त्थ उज्जुमदी एगसमइयमोरालियसीरीरस्स णिज्जरं जहण्णेण जाणदि। सा तिविहा जहण्णुक्कस्स तव्वदिरित्तिओरालियसरीरणिज्जरा त्ति। अत्थं कं जाणदि। तव्वदिरित्तं। कुदो। सामण्णाणिद्देसादो। उक्कस्सेण एगसमयमिंदियणिज्जरं जाणदि। ... पुणो किमिंदियं घेप्पदि। चक्खिंदियं। कुदो। सेसेंदिएहिंतो अप्पपरिमाणत्तादो, सगारंभपोग्गलखंधाणं सण्णहत्तादो वा। ... चक्खिंदियणिज्जरा वि जहण्णुक्कस्स तव्वदिरित्त भेएण तिविहा, तत्थ काए गहणं। तव्वदिरित्ताए। कुदो। सामण्णणिद्देसादो। जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिम दव्ववियप्पे तव्वदिरित्ता उज्जुमदी जाणदि। = ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान जघन्य से एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीर की तद्वयतिरिक्त निर्जरा को जानता है, अर्थात् उसकी जघन्य व उत्कृष्ट निर्जरा को न जानकर (अजघन्य व अनुत्कृष्ट को जानता है), क्योंकि, यहाँ सामान्य निर्देश है। उक्त ज्ञान उत्कर्ष से एक समय सम्बन्धी चक्षुइन्द्रिय की निर्जरा को जानता है, क्योंकि, शेष इन्द्रियों की अपेक्षा यह इन्द्रिय (इसके मसूर के आकारवाला भीतरी तारा) अल्प परिणामवाली है और वह अपने आरम्भक पुद्गलों की श्लक्ष्णता अर्थात् सूक्ष्मता से भी युक्त है। इसमें भी उपरोक्त प्रकार से तद्वयतिरिक्त निर्जरा को जानता है, जघन्य व उत्कृष्ट को नहीं, क्योंकि, यहाँ भी सामान्य निर्देश है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यम द्रव्यविकल्पों को तद्व्यतिरिक्त अर्थात् सामान्य ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी जानता है। (गो.जी./मू./451/866)। - क्षेत्र, काल की अपेक्षा
ष.ख.13/5,5/सूत्र 65-68/338-338 कालदो जहण्णेण दो तिण्णिभवग्गहणाणि।65। उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि।66। गदिमागदिं पदुप्पादेदि।67। खेत्तदो ताव जहण्णेण गाउवपुधत्तं उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भंतरदो णो बहिद्धा।68। = काल की अपेक्षा वह जघन्य से दो-तीन भवों को जानता है।65। और उत्कर्ष से सात-आठ भवों को जानता है।66। (अर्थात् वर्तमान भव को छोड़कर दो या सात भवों तथा उस सहित तीन या आठ भवों को जानता है। भव का काल अनियत जानना चाहिए–टीका); (इस काल के भीतर) जीवों की गति और अगति (भुक्त, कृत, प्रतिसेवित आदि अर्थो) को जानता है।67। क्षेत्र की अपेक्षा वह जघन्य से गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण (अर्थात् आठ-नौ घनकोश प्रमाण – टीका) क्षेत्र को और उत्कर्ष से योजन पृथक्त्व (आठ-नौ घनयोजन प्रमाण) के भीतर की बात जानता है, बाहर की नहीं।68। (म.व.1/2/25/3); (स.सि./1/23/130/1); (रा.वा./1/23/7/85/8); (ध.9/4,1,10/8); (गो.जी./मू./455,457/869,870)। - <a name="2.4.4" id="2.4.4"></a>भाव की अपेक्षा
ध.9/4,1,10/65/6 भावेण जहण्णुक्कस्सदव्वेसु तव्वाओग्गे असंखेज्जे भावे जहण्णुक्कस्सउजुमदिणो जाणंति।=भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यों में उसके योग्य असंख्यात पर्यायों को जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है।
गो.जी./मू./458/871 आवलिअसंखभावं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं।...।871।=ऋजुमति का विषयभूत भाव जघन्यपने आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्टपने उससे असंख्यात गुणा आवलि प्रमाण है। (अर्थात् अपने विषयभूत द्रव्य की इतनी पर्यायों को जानता है)।
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा
- ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदि का ग्रहण क्यों नहीं करता
ध.9/4,1,10/63/2 अचिंतिदमणुत्तमणमिणइदमत्थं किमिद ण जाणदे ण विसिट्ठ खओवसमाभावादो। = प्रश्न–ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी मन से अचिन्तित, वचन से अनुक्त और शारीरिक चेष्टा के अविषयभूत अर्थ को क्या नहीं जानता है? उत्तर–नहीं जानता, क्योंकि उसके विशिष्ट क्षयोपशम का अभाव है। - वचनगत ऋजुमति की मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?
ध.13/5,5,62/330/11 उज्जुववचिगदस्स भणपज्जवणाणस्स उजुमदिमणपज्जवववएसो ण पावदि त्ति। ण एत्थ वि उज्जुमणेण विणा उज्जुववयणवुत्तीए अभावादो। = प्रश्न–ऋजुवचनगत मन:पर्ययज्ञान की ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान संज्ञा नहीं प्राप्त होती ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, यहाँ पर भी ऋजुमन के बिना ऋजुवचन की प्रवृत्ति नहीं होती। - विपुलमति सामान्य का लक्षण
स.सि./1/23/129/4 विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमति:। = जिसकी मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। (रा.वा./1/23/-/84/1); (ध. 9/4,1,11/5)।
ध.9/4,1,11/66/2 परकीयमतिगतोऽर्थो मति:। विपुला विस्तीर्णा। = दूसरे की मति में स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण है।
गो.जी./जी.प्र./439/858/17 विपुला कायवाङ्मन:कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञान्निर्वर्तिता अनिर्वर्तिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमति:। स चासौ मन:पर्ययश्च विपुलमतिमन:पर्यय:। = सरल या वक्र मनवचन काय के द्वारा किया गया कोई अर्थ; उसके चिन्तवनयुक्त किसी अन्य जीव के मन को जानने से निष्पन्न या अनिष्पन्न मति को विपुल कहते हैं। ऐसी विपुल या कुटिल मति है जिसकी सो विपुल मति है। - विपुलत्व का अर्थ
ध.9/4,1,11/66/2 कुतो वैपुल्यम् ? यथार्थमनोगमनात् अयथार्थमनोगमनात् उभयथापि तदवगमनात्, यथार्थवचोगमनात् अयथार्थवचोगमनात् उभयथापि तत्र गमनात्, यथार्थकायगमनात् अयथार्थकायगमनात् ताभ्यां तत्र गमनाच्च वैपुल्यम्। = प्रश्न–विपुलता किस कारण से है। उत्तर–यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकार के मन, तीनों प्रकार के वचन व तीनों प्रकार के काय को प्राप्त होने से विपुलता है। (और भी देखें मन:पर्यय /2/10/1)। - <a name="2.9" id="2.9"></a>विपुलमति के भेद व उनके लक्षण
म.ब.1/3/26/1 यं तं विउलमदिणाणं तं छव्विहं–उज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगं कायगदं जाणदि, अणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, एवं वचिगदं कायगदं च। एवं याव वत्तमाणाणं पि जीवाणं जाणदि। = जो विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है, वह छह प्रकार का है। वह सरल मनोगत पदार्थ को जानता है, सरल वचनगत पदार्थ को जानता है, सरलकायगत पदार्थ को जानता है, कुटिल मनोगत पदार्थ को जानता है, कुटिल वचनगत पदार्थ को जानता है, कुटिल कायगत पदार्थ को जानता है, यह वर्तमान जीव तथा अवर्तमान जीवों के अथवा व्यक्त मनवाले तथा अव्यक्त मनवाले जीवों के सुखादि को जानता है। (देखें मन:पर्यय /2/10/1); (ष.ख. 13/5,5/सूत्र 70/340) (गो.जी./मू./440/859)।
रा.वा./1/23/8/85/11 द्वितीयो विपुलमति: षोढा भिद्यते। कुत:। ऋजुवक्रमनोवावकायविषयभेदात्। ऋजुविकल्पा: पूर्वोक्ता: वक्रविकल्पाश्च तद्विपरीता योज्या:। = द्वितीय विपुलमति ऋजु व वक्र मन वचन व काय के विषय भेद से छह प्रकार का है। इनमें से ऋजु के तीन विकल्प पहले कह दिये गये हैं। (देखें मन:पर्यय /2/3)। उसी प्रकार वक्र के तीनों विकल्पों में भी लागू कर लेना चाहिए। (गो.जी./जी.प्र./440/860/1)।
देखें मन:पर्यय /2/10/1 (अपने मन के द्वारा दूसरे के द्रव्यमान को जानकर पीछे तद्गत अर्थ को जानता है। चिन्तित, अर्धचिन्तित, अचिन्तित व विपरीत चिन्तित को, उक्त, अर्धउक्त, अनुक्त, व विपरीत उक्त को, और इसी प्रकार चारों विकल्परूप अभिनयगत अर्थ को जानता है )।
देखें मन:पर्यय /2/8 (यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकार के मन वचन काय को प्राप्त अर्थ को जानता है )। - विपुलमति का विषय
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा
ष.ख.13/5,5/सूत्र 71-73/340-342 मणेण माणसं पडिविंदइत्ता।71। परेसिं सण्णा सदि मदि चिन्ता जीविदमरणं लाहालाहं सुहदु:क्खं णयरविणासं देसविणासं ... अदिवुट्ठि अणावुट्ठि सुवुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुब्भिक्खं खेमाखेमं भयरोग कालसंपजुत्ते अत्थे जाणदि।72। किंच भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि।73। = मन के द्वारा मानस को जानकर (अर्थात् अपने मतिज्ञान के द्वारा दूसरे के द्रव्यमन को जानकर, तत्पश्चात् मन:पर्ययज्ञान के द्वारा–टीका) दूसरे जीवों के काल से विशेषित संज्ञा (शब्दकलाप), स्मृति (अतीत कालगत दृष्टश्रुत व अनुभूत विषय, गति (अनागत कालगत विषय), चिन्ता (वर्तमान कालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, व सुख-दुःख को; तथा नगर, देश जनपद, खेट कर्वट आदि के विनाश को; तथा अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, क्षेम-अक्षेम भय और रोग रूप पदार्थों को भी (प्रत्यक्ष) जानता है। (71-72) और भी–व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवों से सम्बन्ध रखनेवाले अर्थ को जानता है।73। (कोष्ठकगत शब्दों के अर्थों के लिए देखें मन:पर्यय /2/4/1)।
देखें मन:पर्यय /2/8 (यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकार के मन, वचन व काय को प्राप्त अर्थ को जानता है।)
देखें मन:पर्यय /2/9 सरल व कुटिल मन, वचन, कायगत अर्थ को तथा वर्तमान व अवर्तमान जीवों के व्यक्त व अव्यक्त मनोगत अर्थ को जानता है।
रा.वा./1/23/8/85/13 तथा आत्मन: परेषां च चिन्ताजीवितमरणसुखदु:खलाभालाभादीन् अव्यक्तमनोभिर्व्यक्तमनोभिश्च चिन्तितान् अचिन्तितान् जानाति विपुलमति:। = यह अपने और पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मन से चिन्तित या अचिन्तित (या अर्धचिन्तित) सभी प्रकार के चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि को जानता है।
ध.13/5,5,73/3 चिंताए अद्धपरिणयं विस्सरिदचिंतियवत्थु चिंताए अवावदं च मणमव्वत्तं, अवरं वत्तं, वत्तमाणाणमवत्तमाणाण वा जीवाणं चिंताविसयं मणपज्जवणाणी जाणदि। जं उज्जुवाणुज्जुवभावेण चिंतितमद्धचिंतिदं चिंतिज्जमाणमद्धचिंतिज्जमाणं चिंतिहिदि अद्धं चिंतिहिदि वा तं सव्वं जाणदि त्ति भणिदं होदि। = चिन्ता में अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तु के स्मरण से रहित और चिन्ता में अव्यापृत मन अव्यक्त कहलाता है, इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है। व्यक्त मन वाले और अव्यक्त मन वाले जीवों के चिन्ता के विषय को मन:पर्ययज्ञानी जानता है। ऋजु और अनृजुरूप से जो चिन्तित या अर्धचिन्तित है, वर्तमान में जिसका विचार किया जा रहा है, या अर्ध विचार किया जा रहा है, तथा भविष्य में जिसका विचार किया जायेगा उस सब अर्थ को जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। (और भी देखें मन:पर्यय /1/1); (गो.जी./मू./449/864)।
गो.जी.मू./441/860 तियकालविसयरूविं चिंतितं वट्टमाण जीवेण। ऋजुमतिज्ञानं जानाति भूतभविष्यच्च विपुलमति:। = भूत, भविष्य व वर्तमान जीव के द्वारा चिन्तवन किये गये त्रिकालगत रूपी पदार्थ को विपुलमति जानता है।
- द्रव्य की अपेक्षा
ध.9/4,1,11/66/7 दव्वदो जहण्णेण एगसमयमिंदियणिज्जरं जाणदि। ... उक्कस्सदव्वजाणावणट्ठं तप्पाओग्गासंखेज्जाणं कप्पाणं समए सलागभूदे ठवियमणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं विरलिय अज्जहण्णुक्कस्समेगसमयपबद्धं विस्सासोवचयविरहिदमट्ठकम्मपडिबद्धं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं विदियवियप्पो होदि। सलागरासीदो एगरूवमवणेदव्वं। एवमणेण विहाणेण णेदव्वं जाव सलागरासी समत्तो त्ति। एत्थ अपच्छिमदव्ववियप्पमुक्कस्सविउमदी जाणदि। जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्तविउलमदि जाणदि। = द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य से एक समयरूप इन्द्रिय निर्जरा को (अर्थात् चक्षु इन्द्रिय की निर्जरा को–देखें मन:पर्यय /2/4/2) जानता है। उत्कृष्ट द्रव्य के ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यात कल्पों के समयों को शलाकारूप से स्थापित करके, मनोद्रव्यवर्गणा के अनन्तवें भाग का विरलनकर विस्रसोपचय रहित व आठ कर्मों से सम्बद्ध अजघन्यानुत्कृष्ट एक समयप्रबद्ध को समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड द्रव्य का द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाका राशि में से एक रूप कम करना चाहिए। इस प्रकार इस विधान से शलाकाराशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिए। (देखें गणित - II.2), इनमें अन्तिम द्रव्य विकल्प को उत्कृष्ट विपुलमति जानता है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यम विकल्पों को तद्वयतिरिक्त अर्थात् मध्यम विपुलमति जानता है। (गो.जो./मू./452-454/867)। - क्षेत्र व काल की अपेक्षा
ष.ख.13/5,5/सूत्र 74-77/342-343 कालदो ताव जहण्णेण सत्तअट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि।74। जीवाणं गदिमागदिं पदुप्पादेदि।75। खेत्तादो ताव जहण्णेण जोयणपुधत्तं।76। उक्कस्सेण माणुस्सुत्तरसेलस्स अब्भंतरादो णो बहिद्धा।77। = काल की अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को और उत्कर्ष से असंख्यात भवों को जानता है।74। (इस काल के भीतर) जीवों की गति अगति (भुक्त, कृत, और प्रतिसेवित अर्थ) को जानता है।75। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजनपृथक्त्वप्रमाण (अर्थात् आठ-नौ घन योजन प्रमाण) क्षेत्र को जानता है।76। उत्कर्ष से मानुषोत्तर शैल के भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता।77। (अर्थात् 45,00,000 यो. घन प्रतर को जानता है–ध./9)। (म.ब.1/3/26/3); (स.सि./1/23/130/3); (रा.वा./1/23/8/85/14); (ध.9/4,1,11/67/8; 68/12); (गो.जी./मू./455-457/869)। - <a name="2.10.4" id="2.10.4"></a>भाव की अपेक्षा
ध.9/4,1,11,/69/1 भावेण जं जं दिट्ठं दव्वं तस्स-तस्स असंखेज्जपज्जाए जाणदि। = भाव की अपेक्षा, जो-जो द्रव्य इसे ज्ञात है, उस-उसकी असंख्यात पर्यायों को जानता है।
गो.जी./मू./858/871 तत्तो असंखगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी। = विपुलमति का विषयभूत भाव जघन्य तो ऋजुमति के उत्कृष्ट भाव से असंख्यात गुणा है और उत्कृष्ट असंख्यात लोकप्रमाण है।
- मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषय की अपेक्षा
- अचिन्तित अर्थगत विपुलमति को मन:पर्यय संज्ञा कैसे ?
ध.13/5,5,61/329/5 परेसिं मणम्मि अट्ठिदत्थविसयस्स विउलमदिणाणस्स कधं मणपज्जवणाणववएसो। ण, अचिंतिदं चेवट्ठं जाणदि त्ति णियमाभावादो। किंतु चिंतियमचिंतियमद्धचिंतियं च जाणदि। तेण तस्स मणपज्जवणाणववएसो ण विरुज्झदे। = प्रश्न–दूसरों के मन में नहीं स्थित हुए अर्थ को विषय करने वाले विपुलमतिज्ञान की मन:पर्यय संज्ञा कैसे है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, अचिन्तित अर्थ को ही वह जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु विपुलमतिज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थ को जानता है, इसलिए उसकी मन:पर्यय संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं है। - विशुद्धि व प्रतिपात की अपेक्षा दोनों में अन्तर
त.सू./1/24 विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:।124।
स.सि./1/24/131/4 तत्र विशुद्ध्या तावत्–ऋजुमतेर्विपुलमतिर्द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विशुद्धतर:। कथम्। इह य: कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्य: सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्त्यो भाग ऋजुमतेर्विषय:। तस्य ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेर्विषय:। अनन्तस्यानन्तभेदत्वात्। द्रव्यक्षेत्रकालतो विशुद्धिरुक्ता। भावतो विशुद्धिः सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगात्। अप्रतिपातेनापि विपुलमतिर्विशिष्ट: स्वामिनां प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात्। ऋजुमति: पुन: प्रतिपाती; स्वामिनां कषायोद्रेकाद्धीयमानचारित्रोदयत्वात्। = विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा इन दोनों (ऋजुमति व विपुलमति) में अन्तर है। 24। तहाँ विशुद्धि की अपेक्षा तो ऐसे हैं कि–ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विशुद्धतर है। वह ऐसे कि–यहाँ जो कार्मण द्रव्य का अनन्तवाँ अन्तिम भाग सर्वावधि का विषय है, उसके भी अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह ऋजुमति का विषय है। और इस ऋजुमति के विषय के अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमति का विषय है। अनन्त के अनन्त भेद हैं, अत: ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते हैं इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा विशुद्धि कही। भाव की अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्य को विषय करने वाला होने से ही जान लेनी चाहिए, क्योंकि, इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है, इसलिए ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योंकि, इसके स्वामियों के प्रवर्द्धमान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि, इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता है। (रा.वा./1/24/2/86/5); (गो.जी./मू./447/863)।
- ऋृजुमति सामान्य लक्षण
- मन:पर्ययज्ञान में स्व व पर मन का स्थान
- मन:पर्यय का उत्पत्ति स्थान मन है, करणचिह्न नहीं
ध.13/5,5,62/331/10 जहा ओहिणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेससंबंधिसंठाणपरूवणा कदा, मणपज्जवणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेसाणं संठाणपरूवणा तहा किण्ण कीरिदे। ण, ... वियसियअट्ठदारविंद संठाणे समुप्पज्जमाणस्स ततो पुधभूदसंठाणाभावादो। = प्रश्न–जिस प्रकार अवधिज्ञानावरणीय के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का कथन किया है (देखें अवधिज्ञान - 5), उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरणीय के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का भी कथन क्यों नहीं करते। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह विकसित अष्ट पांखुड़ीयुक्त कमल के आकारवाले द्रव्यमन के प्रदेशों में उत्पन्न होता है।
गो.जी./मू./442/861 सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पज्जदे जहा ओही। मणपज्जवं च दव्वमणादो उप्पज्जदे णियमा।442।= भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्वांग से और गुणप्रत्यय करणचिह्नों से उत्पन्न होता है (देखें अवधिज्ञान - 5/1) इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान द्रव्यमन से उत्पन्न होता है। (पं.ध./पू./699)। - दोनों ही ज्ञानों में मनोमतिपूर्वक परकीय मन को जानकर पीछे तद्गत अर्थ को जाना जाता है।
ष.ख.13/5,5/सूत्र 63 व इसकी टीका/332 मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि मदि ... कालसंपजुत्ते अत्थे वि जाणदि।63। मणेण मदिणाणेण। कधं मदिणाणस्स मणव्ववएसो। कज्जे कारणोवयारादो। मणम्मि भवं लिंगं माणसं, अधवा मणो चेव माणसो। पडिविंदइत्ता चेत्तूण पच्छा मणपज्जवणाणेण जाणदि। मदिणाणेण परेसिं मणं घेत्तूण मणपज्जवणाणेण मणम्मि ट्ठिअत्थे जाणदि त्ति भणिदं होदि। = मन के द्वारा मानस को जानकर मन:पर्ययज्ञान काल से विशेषित दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति आदि पदार्थों को भी जानता है (विशेष देखें मन:पर्यय /2/4/1 तथा 2/10/1); (म.ब. 1/2/24/5); (रा.वा./1/23/7,85/3); (ज.प./13/52) कारण में कार्य के उपचार से यहाँ मतिज्ञान की मन संज्ञा है। अथवा मन में उत्पन्न हुए चिह्न को ही मानस कहते हैं। ‘पडिविंदइत्ता’ अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्यय के द्वारा जानता है। मतिज्ञान के द्वारा दूसरों के मानस को या द्रव्यमन को–(सूत्र 71 की टीका) ग्रहण करके ही (पीछे) मन:पर्ययज्ञान के द्वारा मन में स्थित अर्थों को जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। (नोट–उक्त सूत्र ऋजुमति के प्रकरण का है। सूत्र 71-72 में शब्दश: यही बात विपुलमति के लिए भी कही गयी है)।
दर्शन (उपयोग)/6/3-4 (मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता, किन्तु परकीय मन की प्रणाली से जानता है। अत: जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार तो करता है, पर देखता नहीं उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी भी भूत व भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं। और इसीलिए इसकी उत्पत्ति दर्शनपूर्वक न मानकर मतिज्ञानपूर्वक मानी गयी है। ईहा मतिज्ञान ही इसका ‘दर्शन’ है।)
ध.9/4,1,10/63/3 मदिणाणेण वा सुदणाणेण वा मण वचिकायभेदं णादूण पच्छातत्थट्ठिदमत्थं पच्चक्खेण जाणंतस्स मणपज्जवणाणिस्स दव्व-खेत्त-काल-भावभेएण विसओ चउव्विहो। तत्थ उज्जुमदी ...। = मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञान से मन, वचन व काय के भेदों को जानकर पीछे वहाँ स्थित अर्थ को प्रत्यक्ष से जाननेवाले मन:पर्ययज्ञानी का विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल, व भाव के भेद से चार प्रकार का है। इनमें ऋजुमति का विषय यहाँ कहा जाता है और विपुलमति का अगले सूत्र में कहा गया है।
ध.1/1,1,115/358/2 साक्षान्मन: समादाय मानसार्थानां साक्षात्करणं मन:पर्ययज्ञानम्। = मन का आश्रय लेकर मनोगत पदार्थों के साक्षात्कार करनेवाले ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं।
द्र.सं./टी./5/17/3 स्वकीयमनोऽवलम्बनेन परकीयमनोगतं मूर्त्तमर्थमेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदीहा मतिज्ञानपूर्वकं मन:पर्ययज्ञानम्। = जो अपने मन के अवलम्बन द्वारा पर के मन में प्राप्त हुए मूर्त्तपदार्थ को एकदेश प्रत्यक्ष से सविकल्प जानता है वह ईहामतिज्ञानपूर्वक मन:पर्ययज्ञान है। - ऋजुमति में इन्द्रियों व मन की अपेक्षा होती है, विपुलमति में नहीं
ध.13/5,5,63/333/1 एसो णियमो ण विउलमइस्स, अचिंतिदाणं पि अट्ठाणं विसईकरणादो। = यह (मतिज्ञान से दूसरे जीव के मानस को जानकर पीछे मन:पर्ययज्ञान से तद्गत अर्थ को जानने का) नियम विपुलमति ज्ञान का नहीं है, क्योंकि, वह अचिन्तित अर्थों को भी विषय करता है।
ध.13/5,5,62/331/6 जदि मणपज्जवणाणमिंदिय-णोइंदियजोगादिणिरवेक्खं संतं उप्पज्जदि तो परेसिं मणवयणकायवावारणिरवेक्खं संतं किण्ण उप्पज्जदि। ण विउलमइमणपज्जवणाणस्स तहा उप्पत्ति दंसणादो। उजुमदिमणपज्जवणाणं तण्णिरवेक्खं किण्ण उप्पज्जदे। ण, मन:पर्ययज्ञानावरणीयकर्म्मक्षयोपशमस्य वैचित्र्यात्। = प्रश्न–यदि मन:पर्ययज्ञान स्पर्शनादिक इन्द्रियों, नोइन्द्रिय, और मन वचन काय योग आदि की अपेक्षा किये बिना उत्पन्न होता है, तो वह दूसरों के मन वचन काय के व्यापार की अपेक्षा किये बिना ही क्यों नहीं उत्पन्न होता (देखें मन:पर्यय /2/3) उत्तर–नहीं, क्योंकि, विपुलमति मन:पर्ययज्ञान की उस प्रकार से उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न–ऋजुमति उसकी अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता। उत्तर–नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम की यह विचित्रता है (कि ऋजुमति तो इनकी अपेक्षा से जानता है और विपुलमति अवधिज्ञानवत् प्रत्यक्ष जानता है–गो.सा.); (गो.जी./मू./446-449/863)। - मन की अपेक्षामात्र से यह मतिज्ञान नहीं कहा जा सकता
स.सि./1/9/94/4 मतिज्ञानप्रसंग इति चेत; न; अपेक्षामात्रत्वात्। क्षयोपशमशक्तिमात्रविजम्भितं हि तत्केवलं स्वपरमनोभिर्व्यपदिश्यते। यथा अभ्रे चन्द्रमसं पश्येति।
स.सि./1/23/129/11 परकीयमनसि व्यविस्थतोऽर्थ: अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्षते। = प्रश्न–इस प्रकार तो मन:पर्ययज्ञान को मतिज्ञान का प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, यहाँ मन की अपेक्षामात्र है। यद्यपि वह केवल क्षयोपशम शक्ति से अपना काम करता है, तो भी स्व व पर के मन की अपेक्षा केवल उसका व्यवहार किया जाता है। यथा–‘आकाश में चन्द्रमा को देखो’ यहाँ आकाश की अपेक्षामात्र होने से ऐसा व्यवहार किया गया है। (परन्तु मतिज्ञानवत् यह मन का कार्य नहीं है–रा.वा.) दूसरे के मन में अवस्थित अर्थ को यह जानता है, इतनी मात्र यहाँ मन की अपेक्षा है। (रा.वा./1/9/5/44/24; 1/23/2/84/9)। - मतिज्ञानपूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता
ध.13/5,5,62/331/1 चिंतिदं कहिदे संते जदि जाणदि तो मणपज्जवणाणस्स सुदणाणत्तं पसज्जदि त्ति वुत्ते–ण एदं रज्जं एसो राया वा केत्तियाणि वस्सणि णंददि त्ति चिंतिय एवं चेव बोल्लिदे संते पच्चक्खेण रज्जसंताणपरिमाणं रायाउट्ठिदिं च परिच्छंदंतस्य सुदणाणत्तविरोहादो।
ध.13/5,5,71/341/4 जदि मणपज्जवणाणं मदिपुव्वं होदि तो तस्स सुदणाणत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, पच्चक्खस्स अवगहिदाणवगहित्थेसु वट्टमाणस्स मणपज्जवणाणस्स सुदभावविरोहादो। = प्रश्न–चिन्तित अर्थ को कहने पर यदि ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जानता है तो उसके श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा; ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करने पर यह ज्ञान चूँकि प्रत्यक्ष से राज्यपरम्परा की मर्यादा को और राजा की आयुस्थिति को जानता है, इसलिए इस ज्ञान को श्रुतज्ञान मानने में विरोध आता है। प्रश्न–यदि मन:पर्ययज्ञान मतिपूर्वक होता है, तो उसे श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है। उत्तर–ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, अवग्रहण किये गये और नहीं अवग्रहण किये गये पदार्थों में प्रवृत्त होने वाले और प्रत्यक्षस्वरूप मन:पर्ययज्ञान को श्रुतज्ञान मानने में विरोध आता है। - मन:पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष व इन्द्रिय-निरपेक्ष है
ध.13/5,5,21/212/9 ओहिणाणं व एदं ति पच्चक्खं अणिंदियजत्तादो। = अवधिज्ञान के समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि, यह इन्द्रियों से नहीं उत्पन्न होता है।–(विशेष देखें प्रत्यक्ष )।
और भी देखें अवधिज्ञान - 4 (अवधि व मन:पर्यय में मन का निमित्त नहीं होता)।
और भी देखें अवधिज्ञान - 3 (अवधि व मन:पर्यय कंथचित् प्रत्यक्ष है और कथंचित् परोक्ष)।
- मन:पर्यय का उत्पत्ति स्थान मन है, करणचिह्न नहीं
- मन:पर्यय ज्ञान का स्वामित्व
- <a name="4.1" id="4.1"></a>ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयत को ही संभव है
ष.ख.1/1,1/सूत्र/121/366 मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवदिरागच्छदुमत्था त्ति।121। = मन:पर्ययज्ञानी जीव प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।
रा.वा./1/25/2/86/26 में उद्धृत – तथा चोक्तम् – मनुष्येषु मन:पर्यय आविर्भवति, न देवनारकतैर्यग्योनिषु। मनुष्येषु चोत्पद्यमान: गर्भजेषूत्पद्यते न संमूर्च्छनजेषु। गर्भजेषु चोत्पद्यमान: कर्मभूमिजेषुत्पद्यते नाकर्मभूमिजेषु। कर्मभूमिजेषूत्पद्यमान: पर्याप्तकेषूत्पद्यते नामपर्याप्तकेषु। पर्याप्तकेषूपजायमान: सम्यग्दृष्टिषूपजायते न मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्टिषु। सम्यग्दृष्टिषूपजायमान: संयतेषूपजायते नासंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतेषु। संयतेषूपजायमान: प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषूपजायते नोत्तरेषु। तत्र चोपजायमान: प्रवर्द्धमानचारित्रेषूपजायते न हीयमानचारित्रेषु प्रवर्द्धमानचारित्रेषूपजायमान: सप्तविधान्यतमऋद्धिप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु। ऋद्धिप्राप्तेषु च केषुचिन्न सर्वेषु। = आगम में कहा है, कि मन:पर्ययज्ञान मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, देव नारक व तिर्यंच योनि में नहीं। मनुष्यों में भी गर्भजों में ही होता है, सम्मूर्च्छितों में नहीं। गर्भजों में भी कर्मभूमिजों के ही होता है, अकर्मभूमिजों के नहीं। कर्मभूमिजों में भी पर्याप्तकों के ही होता है अपर्याप्तकों के नहीं। उनमें भी सम्यग्दृष्टियों के ही होता है, मिथ्यादृष्टि सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के नहीं। उनमें भी संयतों के ही होता है, असंयतों या संयतासंयतों के नहीं। संयतों में भी प्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ही होता है, इससे ऊपर नहीं। उनमें भी वर्द्धमान चारित्रवालों के ही होता है, हीयमान चारित्रवालों के नहीं। उनमें भी सात ऋद्धियों में से अन्यतम ऋद्धि को प्राप्त होने वाले के ही होता है, अन्य के नहीं। ऋद्धिप्राप्तों में भी किन्हीं के ही होता है, सबको नहीं। (स.सि.1/25/132/6); (गो.जी./मू./445/862)। - <a name="4.2" id="4.2"></a>अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उत्पन्न होता है
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा. 43-4 मूल व टीका/87/5 एदे संजमलद्धी उवओगे अप्पमत्तस्स।4। उपेक्षासंयमे सति लब्धिपर्ययोस्तौ संयमलब्धो मन:पर्ययौ भवत:। तौ च कस्मिन् काले समुत्पद्येते। उपयोगे विशुद्धपरिणामे। कस्य। वीतरागात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसहितस्य ... पंचदशप्रमादरहितस्याप्रमत्तमुनेरिति। अत्रोत्पत्तिकाल एवाप्रमत्तनियम: पश्चात्प्रमत्तस्यापि संभवतीति भावार्थ:। = ऋजु व विपुलमति दोनों मन:पर्ययज्ञान, उपेक्षा-संयमरूप संयमलब्धि होने पर ही होते हैं और वह भी विशुद्ध परिणामों में तथा वीतराग आत्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र की भावनासहित, पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से रहित अप्रमत्त मुनि के ही उत्पन्न होते हैं। यहाँ अप्रमत्तपने का नियम उत्पत्तिकाल में ही है, पीछे प्रमत्त अवस्थायें भी सम्भव हैं। - ऋजु व विपुलमति का स्वामित्व
देखें मन:पर्यय /2/12 (ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कषाय के उदयसहित हीनमान चारित्रवालों के होता है और विपुलमति विशिष्ट प्रकार के प्रवर्द्धमान चारित्रवालों के। ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् अचरम देहियों के भी सम्भव है, पर विपुलमति अप्रतिपाती है अर्थात् चरम देहियों के ही सम्भव है।
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा. 43-4 टीका/87/3 निर्विकारात्मोपलब्धिभावनासहितानां चरमदेहमुनीनां विपुलमतिर्भवति। = निर्विकार आत्मोपलब्धि की भावना से सहित चरम देहधारी मुनियों को ही विपुलमतिज्ञान होना सम्भव है। - निचले गुणस्थानों में क्यों नहीं होता
ध.1/1,1,121/366/9 देशविरताद्यधस्तनभूमिस्थितानां किमिति मन-पर्ययज्ञानं न भवेदिति चेन्न, संयमासंयमासंयमत उत्पत्तिविरोधात्। = प्रश्न–देशविरति आदि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, संयमासंयम और असंयम के साथ मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। - सभी संयमियों के क्यों नहीं होता
ध.1/1,1,121/366/11 संयममात्रकारणत्वे सर्वसंयतानां किन्न भवेदिति चेदभविष्यद्यदि संयम एक एव तदुत्पत्ते:कारणतामागमिष्यत्। अप्यन्येऽपि तद्धेतव: सन्ति तद्वैकल्यान्न सर्वसंयतानां तदुत्पत्ते:। केऽन्ये तद्धेतव इति चेद्विशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालादय:। = प्रश्न–यदि संयममात्र मन:पर्यय की उत्पत्ति का कारण है तो समस्त संयमियों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ? उत्तर–यदि केवल संयम ही कारण हुआ होता तो ऐसा भी होता, किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भी कारण हैं, जिनके न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता। प्रश्न–वे दूसरे कौन कौन से कारण हैं ? उत्तर–विशेष जाति के द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि। - द्वितीय व प्रथम उपशम सम्यक्त्व के काल में मन:पर्यय के सद्भाव व अभाव में हेतु
ध.2/1,1/727/7 वेदसम्मत्तपच्छायदउवसमसम्मत्तसम्माइट्ठिस्स पढमसमए वि मणपज्जवणाणुवलंभादो। मिच्छत्तपच्छायदउवसमसम्माइट्ठिम्मि मणपज्जवणाणं ण उवलब्भदे, मिच्छत्तपच्छायदुक्कस्सुवसमसम्मत्तकालादो वि गहियसंजमपढमसमयादो सव्वजहण्णमणपज्जवणाणुप्पायणसंजमकालस्स बहुत्तुवलंभादो। = जो वेदक सम्यक्त्व के पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है उस उपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में भी मन:पर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आये हुए (प्रथम) उपशमसम्यग्दृष्टि जीव में मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यात्व से पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि के उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्व के काल से भी ग्रहण किये गये संयम के प्रथम समय से लगा कर सर्व जघन्य मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला संयम काल बहुत बड़ा है।
- <a name="4.1" id="4.1"></a>ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयत को ही संभव है