मेरे मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि, यार लाव न बार रे: Difference between revisions
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मेरे मन सूवा, जिनपद पिंजरे वसि, यार लाव न बार रे ।।टेक ।।<br> | मेरे मन सूवा, जिनपद पिंजरे वसि, यार लाव न बार रे ।।टेक ।।<br> | ||
संसार सेमलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे ।<br> | संसार सेमलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे ।<br> |
Revision as of 12:58, 8 February 2008
(राग सोरठ)
मेरे मन सूवा, जिनपद पिंजरे वसि, यार लाव न बार रे ।।टेक ।।
संसार सेमलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे ।
विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यौ सार रे ।।१ ।।
तू क्यों निचिन्तो सदा तोकों, तकत काल मंजार रे ।
दाबै अचानक आन तब तुझे, कौन लेय उबार रे ।।२ ।।
तू फंस्यो कर्म कुफन्द भाई, छूटै कौन प्रकार रे ।
तैं मोह-पंछी-वधक-विद्या, लखी नाहिं गंवार रे ।।३ ।।
है अजौं एक उपाय `भूधर', छूटै जो नर धार रे ।
रटि नाम राजुल-रमन को, पशुबंध छोड़न हार रे ।।४ ।।