योगस्थान निेर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong> योगस्थान सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> योगस्थान सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम/10/4, 2, 4/ सू. 186/463 <span class="PrakritText">ठाणपरूवणदाए असंखेज्जाणि फद्दयाणिसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेगं जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि ।186।</span> =<span class="HindiText"> स्थान प्ररूपणा के अनुसार श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात स्पर्धक हैं उनका एक जघन्य योग स्थान होता है ।186। </span><br /> | |||
समयसार / आत्मख्याति/53 <span class="SanskritText"> यानि कायवाङ्मनोवर्गणापरिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि..... ।</span> = <span class="HindiText">काय, वचन और मनोवर्गणा का कम्पन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> योगस्थानों के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> योगस्थानों के भेद</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम/10/4, 2, 4/175-176/432, 438 <span class="PrakritText">जोगट्ठागपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति (175/432) अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वड्ढिपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ।176। </span>=<span class="HindiText"> योगस्थानों की प्ररूपणा में दस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं ।175। अविभाग-प्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परंपरोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार हैं ।176। <br /> | |||
देखें [[ योग#1.5 | योग - 1.5 ]](योजनायोग तीन प्रकार का है - उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग) । </span><br /> | देखें [[ योग#1.5 | योग - 1.5 ]](योजनायोग तीन प्रकार का है - उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग) । </span><br /> | ||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/218 <span class="PrakritGatha">जोगट्ठाणा तिविहा उववादेयंतवड्ढिपरिणामा । भेदा एक्केक्कंपि चोद्दसभेदा पुणो तिविहा ।218।</span> = <span class="HindiText">उपपाद, एकांतानुवृद्धि और परिणाम इस प्रकार योग - स्थान तीन प्रकार का है । और एक-एक भेद के 14 जीवसमास की अपेक्षा चौदह - चौदह भेद हैं । तथा ये 14 भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार के हैं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> उपपाद योग का लक्षण </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> उपपाद योग का लक्षण </strong> </span><br /> | ||
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/6 <span class="PrakritText">उववादजोगो णाम...उप्पण्णपढमसमए चेव ।....जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ ।</span> =<span class="HindiText"> उपपाद योग उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही होता है ।... उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है । </span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/219 <span class="PrakritGatha"> उववादजोगठाण भवादिसमयट्ठियस्स अवखरा । विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ।219। </span>= <span class="HindiText">पर्याय धारण करने के पहले समय में तिष्ठते हुए जीव के उपपाद योगस्थान होते हैं । जो वक्रगति से नवीन पर्याय को प्राप्त हो उसके जघन्य, जो ॠजुगति से नवीन पर्याय को धारण करे उसके उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं ।219। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> एकान्तानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> एकान्तानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/7 <span class="PrakritText"> उप्पण्णविदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्ढिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगंताणुवड्ढिजोगो चेव ।</span> = <span class="HindiText">उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्ध के योग्य काल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धियोग ही होता है । </span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड व टी./222/270 <span class="PrakritGatha">एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति । अवखरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ।222।</span> <span class="SanskritText">तदैवैकान्तेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात् चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकान्तानुवृद्धिरित्युच्यते ।</span> =<span class="HindiText"> एकान्तानुवृद्धि योगस्थान उपपाद आदि दोनों स्थानों के बीच में, (अर्थात् पर्याय धारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अन्तर्मुहूर्त के अन्त समय तक) होते हैं । उसमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्टस्थान अन्त के समय में होता है । इसीलिए एकान्त (नियम कर) अपने समयों में समय-समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह एकान्तानुवृद्धि स्थान, ऐसा नाम कहा गया है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 10/4, 2, 4, 173/421/2 <span class="PrakritText"> पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ परिणामजोगो चेव । णिव्वति अपज्जत्ताणं णत्थि परिणामजोगो । </span>= <span class="HindiText">पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सब जगह परिणाम योग ही होता है । निर्वृत्यपर्याप्तकों के परिणाम योग नहीं होता । (लब्ध्यपर्याप्तकों के पूर्वावस्था में होता है<strong>−</strong>देखें [[ ऊपरवाला शीर्षक ]]) । </span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/220-221/268 <span class="PrakritText">परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमोत्ति । लद्धि अपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ।220। सगपच्चतीपुण्णे उवरिं सव्वत्थं जोगमुक्कस्सं । सव्वत्थ होदि अवरं लद्धि अपुण्णस्स जेट्ठंपि ।221।</span> = <span class="HindiText">शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के प्रथम समय से लेकर आयु के अन्त तक परिणाम योगस्थान कहे जाते हैं । लब्ध्यपर्याप्त जीव के अपनी आयु के अन्त के त्रिभाग के प्रथम समय से लेकर अन्त समय तक स्थिति के सब भेदों में उत्कृष्ट व जघन्य दोनों प्रकार के योग स्थान जानना ।210। शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर अपनी-अपनी आयु के अन्त समय तक सम्पूर्ण समयों में परिणाम योगस्थान उत्कृष्ट भी होते हैं, जघन्य भी संभवते हैं ।221 । </span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/260/1 <span class="SanskritText">येषां योगस्थानानां वृद्धिः हानिः अवस्थानं च संभवति तानि घोटमानयोगस्थानानि परिणामयोगस्थानानीति भणितं भवति ।</span> = <span class="HindiText">जिन योगस्थानों में वृद्धि हानि तथा अवस्थान (जैसे के तैसे बने रहना) होता है, उनको घोटमान योगस्थान- परिणाम योगस्थान कहा गया है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> परिणाम योगस्थानों की यवमध्य रचना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> परिणाम योगस्थानों की यवमध्य रचना</strong> </span><br /> | ||
धवला 10/4, 2, 4, 28/60/6 <span class="HindiText">का विशेषार्थ<strong>−</strong>ये परिणामयोगस्थानद्वीन्द्रिय पर्याप्त के जघन्य योगस्थानों से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के उत्कृष्ट योगस्थानों तक क्रम से वृद्धि को लिये हुए हैं । इनमें आठ समय वाले योगस्थान सबसे थोड़े होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित सात समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित छह समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित पाँच समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित चार समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित पाँच समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दो समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । ये सब योगस्थान<strong>−</strong> <br /> | |||
<img src="JSKHtmlSample_clip_image001.png" alt="" width="288" height="54" /> <br> <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0001.png" alt="" width="149" height="34" /><img src="JSKHtmlSample_clip_image003.png" alt="" width="148" height="34" /> 4, 5, 6, 7, 8, 7, 6, 5, 4, 3, 2 समय वाले<br>होने से ग्यारह भागों में विभक्त हैं, अतः समय की दृष्टि से इनकी यवाकार रचना हो जाती है । आठ समय वाले योगस्थान मध्य में रहते हैं । फिर दोनों पार्श्व भागों में सात (आदि) योगस्थान प्राप्त होते हैं ।.....इनमें से आठ समय वाले योगस्थानों की यवमध्य संज्ञा है । यवमध्य से पहले के योगस्थान थोड़े होते हैं और आगे के योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इन आगे के योगस्थानों में संख्यातभाग आदि चार हानियाँ व वृद्धियाँ सम्भव हैं इसी से योगस्थानों में उक्त जीव को अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योंकि योगस्थानों का अन्तर्मुहूर्त काल यही सम्भव है । <br /> | <img src="JSKHtmlSample_clip_image001.png" alt="" width="288" height="54" /> <br> <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0001.png" alt="" width="149" height="34" /><img src="JSKHtmlSample_clip_image003.png" alt="" width="148" height="34" /> 4, 5, 6, 7, 8, 7, 6, 5, 4, 3, 2 समय वाले<br>होने से ग्यारह भागों में विभक्त हैं, अतः समय की दृष्टि से इनकी यवाकार रचना हो जाती है । आठ समय वाले योगस्थान मध्य में रहते हैं । फिर दोनों पार्श्व भागों में सात (आदि) योगस्थान प्राप्त होते हैं ।.....इनमें से आठ समय वाले योगस्थानों की यवमध्य संज्ञा है । यवमध्य से पहले के योगस्थान थोड़े होते हैं और आगे के योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इन आगे के योगस्थानों में संख्यातभाग आदि चार हानियाँ व वृद्धियाँ सम्भव हैं इसी से योगस्थानों में उक्त जीव को अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योंकि योगस्थानों का अन्तर्मुहूर्त काल यही सम्भव है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में सम्भव है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में सम्भव है</strong> </span><br /> | ||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/222/270/10 <span class="SanskritText">एवमुक्तयोगविशेषाः सर्वेऽपि पूर्वस्थापितचतुर्दशजीवसमासरचनाविशेषेऽतिव्यक्तं संभवतीति संभावयितव्याः । </span>= <span class="HindiText">ऐसे कहे गये जो ये योगविशेष ये सर्व चौदह जीवसमासों में जानने चाहिए । <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8"> योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8"> योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी</strong> <br /> | ||
संकेत<strong>−</strong>उ. = उत्कृष्टं; एक= एकेन्द्रिय; चतु.= चतुरिन्द्रियः ज.= जघन्य; त्रि.= त्रिइन्द्रिय; द्वि.= द्वीन्द्रिय; नि. अप.= निर्वृत्यपर्याप्त; पंचे.=पंचेन्द्रिय, बा.=बादर; ल. अप.=लब्ध्यपर्याप्त; स.=समय; सू.=सूक्ष्म | संकेत<strong>−</strong>उ. = उत्कृष्टं; एक= एकेन्द्रिय; चतु.= चतुरिन्द्रियः ज.= जघन्य; त्रि.= त्रिइन्द्रिय; द्वि.= द्वीन्द्रिय; नि. अप.= निर्वृत्यपर्याप्त; पंचे.=पंचेन्द्रिय, बा.=बादर; ल. अप.=लब्ध्यपर्याप्त; स.=समय; सू.=सूक्ष्म धवला 10/4, 2, 4, 173/421-430 ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/233-256 ) । <br /> | ||
टेबल का मेटर है ।</li> | टेबल का मेटर है ।</li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> लब्ध्यपर्याप्तक के परिणामयोग होने सम्बन्धी दो मत</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> लब्ध्यपर्याप्तक के परिणामयोग होने सम्बन्धी दो मत</strong> </span><br /> | ||
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/9 <span class="PrakritText"> लद्धि-अपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे ट्ठिदस्स अपत्तुववादजोगस्स एयंताणुवड्ढिजोगेण परिणामविरोहादो । </span>= <span class="HindiText">लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्ध काल में ही परिणाम योग होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । (देखें [[ योग#5. | योग - 5.]]) किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से जो जीव परिणाम योग में स्थित है वह उपपाद योग को नहीं प्राप्त हुआ है, उसके एकान्तानुवृद्धियोग के साथ परिणाम के होने में विरोध आता है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.10" id="5.10"> योग स्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबन्ध के साथ सम्बन्ध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.10" id="5.10"> योग स्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबन्ध के साथ सम्बन्ध</strong> </span><br /> | ||
धवला 6/1, 9-7, 43/201/2 <span class="PrakritText">पदेसबंधादो जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जहण्णट्ठाणादो अवट्ठिदपक्खेवेण सेडीए असंखेज्जदिभागपडिभागिएण विसेसाहियाणि जाउक्कस्सजोगट्ठाणेत्ति दुगुण-दुगुणगुणहाणिअद्धाणेहि सहियाणि सिद्धाणि हवंति । कुदो जोगेण विणा पदेसबंधाणुववत्तीदो । अथवा अणुभागबंधादो पदेसबंधो तक्कारणजोगट्ठाणाणि च सिद्धाणि हवति । कुदो । पदेसेहि विणा अणुभागाणुववत्तीदो । </span>=<span class="HindiText"> प्रदेशबन्ध से योगस्थान सिद्ध होते हैं । वे योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र हैं और जघन्य योगस्थान से लेकर जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रतिभागरूप अवस्थित प्रक्षेप के द्वारा विशेष अधिक होते हुए उत्कृष्ट योगस्थान तक दुगुने-दुगुने गुणहानि आयाम से सहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि योग के बिना प्रदेशबन्ध नहीं हो सकता है । अथवा अनुभागबन्ध से प्रदेशबन्ध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशों के बिना अनुभागबन्ध नहीं हो सकता । </span></li> | |||
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Revision as of 19:14, 17 July 2020
- योगस्थान निेर्देश
- योगस्थान सामान्य का लक्षण
षट्खण्डागम/10/4, 2, 4/ सू. 186/463 ठाणपरूवणदाए असंखेज्जाणि फद्दयाणिसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेगं जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि ।186। = स्थान प्ररूपणा के अनुसार श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात स्पर्धक हैं उनका एक जघन्य योग स्थान होता है ।186।
समयसार / आत्मख्याति/53 यानि कायवाङ्मनोवर्गणापरिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि..... । = काय, वचन और मनोवर्गणा का कम्पन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान ।
- योगस्थानों के भेद
षट्खण्डागम/10/4, 2, 4/175-176/432, 438 जोगट्ठागपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति (175/432) अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वड्ढिपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ।176। = योगस्थानों की प्ररूपणा में दस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं ।175। अविभाग-प्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परंपरोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार हैं ।176।
देखें योग - 1.5 (योजनायोग तीन प्रकार का है - उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग) ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/218 जोगट्ठाणा तिविहा उववादेयंतवड्ढिपरिणामा । भेदा एक्केक्कंपि चोद्दसभेदा पुणो तिविहा ।218। = उपपाद, एकांतानुवृद्धि और परिणाम इस प्रकार योग - स्थान तीन प्रकार का है । और एक-एक भेद के 14 जीवसमास की अपेक्षा चौदह - चौदह भेद हैं । तथा ये 14 भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार के हैं ।
- उपपाद योग का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/6 उववादजोगो णाम...उप्पण्णपढमसमए चेव ।....जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । = उपपाद योग उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही होता है ।... उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/219 उववादजोगठाण भवादिसमयट्ठियस्स अवखरा । विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ।219। = पर्याय धारण करने के पहले समय में तिष्ठते हुए जीव के उपपाद योगस्थान होते हैं । जो वक्रगति से नवीन पर्याय को प्राप्त हो उसके जघन्य, जो ॠजुगति से नवीन पर्याय को धारण करे उसके उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं ।219।
- एकान्तानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/7 उप्पण्णविदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्ढिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगंताणुवड्ढिजोगो चेव । = उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्ध के योग्य काल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धियोग ही होता है ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड व टी./222/270 एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति । अवखरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ।222। तदैवैकान्तेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात् चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकान्तानुवृद्धिरित्युच्यते । = एकान्तानुवृद्धि योगस्थान उपपाद आदि दोनों स्थानों के बीच में, (अर्थात् पर्याय धारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अन्तर्मुहूर्त के अन्त समय तक) होते हैं । उसमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्टस्थान अन्त के समय में होता है । इसीलिए एकान्त (नियम कर) अपने समयों में समय-समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह एकान्तानुवृद्धि स्थान, ऐसा नाम कहा गया है ।
- परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 173/421/2 पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ परिणामजोगो चेव । णिव्वति अपज्जत्ताणं णत्थि परिणामजोगो । = पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सब जगह परिणाम योग ही होता है । निर्वृत्यपर्याप्तकों के परिणाम योग नहीं होता । (लब्ध्यपर्याप्तकों के पूर्वावस्था में होता है−देखें ऊपरवाला शीर्षक ) ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/220-221/268 परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमोत्ति । लद्धि अपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ।220। सगपच्चतीपुण्णे उवरिं सव्वत्थं जोगमुक्कस्सं । सव्वत्थ होदि अवरं लद्धि अपुण्णस्स जेट्ठंपि ।221। = शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के प्रथम समय से लेकर आयु के अन्त तक परिणाम योगस्थान कहे जाते हैं । लब्ध्यपर्याप्त जीव के अपनी आयु के अन्त के त्रिभाग के प्रथम समय से लेकर अन्त समय तक स्थिति के सब भेदों में उत्कृष्ट व जघन्य दोनों प्रकार के योग स्थान जानना ।210। शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर अपनी-अपनी आयु के अन्त समय तक सम्पूर्ण समयों में परिणाम योगस्थान उत्कृष्ट भी होते हैं, जघन्य भी संभवते हैं ।221 ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/260/1 येषां योगस्थानानां वृद्धिः हानिः अवस्थानं च संभवति तानि घोटमानयोगस्थानानि परिणामयोगस्थानानीति भणितं भवति । = जिन योगस्थानों में वृद्धि हानि तथा अवस्थान (जैसे के तैसे बने रहना) होता है, उनको घोटमान योगस्थान- परिणाम योगस्थान कहा गया है ।
- परिणाम योगस्थानों की यवमध्य रचना
धवला 10/4, 2, 4, 28/60/6 का विशेषार्थ−ये परिणामयोगस्थानद्वीन्द्रिय पर्याप्त के जघन्य योगस्थानों से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के उत्कृष्ट योगस्थानों तक क्रम से वृद्धि को लिये हुए हैं । इनमें आठ समय वाले योगस्थान सबसे थोड़े होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित सात समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित छह समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित पाँच समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित चार समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित पाँच समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दो समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । ये सब योगस्थान−
<img src="JSKHtmlSample_clip_image001.png" alt="" width="288" height="54" />
<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0001.png" alt="" width="149" height="34" /><img src="JSKHtmlSample_clip_image003.png" alt="" width="148" height="34" /> 4, 5, 6, 7, 8, 7, 6, 5, 4, 3, 2 समय वाले
होने से ग्यारह भागों में विभक्त हैं, अतः समय की दृष्टि से इनकी यवाकार रचना हो जाती है । आठ समय वाले योगस्थान मध्य में रहते हैं । फिर दोनों पार्श्व भागों में सात (आदि) योगस्थान प्राप्त होते हैं ।.....इनमें से आठ समय वाले योगस्थानों की यवमध्य संज्ञा है । यवमध्य से पहले के योगस्थान थोड़े होते हैं और आगे के योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इन आगे के योगस्थानों में संख्यातभाग आदि चार हानियाँ व वृद्धियाँ सम्भव हैं इसी से योगस्थानों में उक्त जीव को अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योंकि योगस्थानों का अन्तर्मुहूर्त काल यही सम्भव है ।
- योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में सम्भव है
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/222/270/10 एवमुक्तयोगविशेषाः सर्वेऽपि पूर्वस्थापितचतुर्दशजीवसमासरचनाविशेषेऽतिव्यक्तं संभवतीति संभावयितव्याः । = ऐसे कहे गये जो ये योगविशेष ये सर्व चौदह जीवसमासों में जानने चाहिए ।
- योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी
संकेत−उ. = उत्कृष्टं; एक= एकेन्द्रिय; चतु.= चतुरिन्द्रियः ज.= जघन्य; त्रि.= त्रिइन्द्रिय; द्वि.= द्वीन्द्रिय; नि. अप.= निर्वृत्यपर्याप्त; पंचे.=पंचेन्द्रिय, बा.=बादर; ल. अप.=लब्ध्यपर्याप्त; स.=समय; सू.=सूक्ष्म धवला 10/4, 2, 4, 173/421-430 ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/233-256 ) ।
टेबल का मेटर है । - लब्ध्यपर्याप्तक के परिणामयोग होने सम्बन्धी दो मत
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/9 लद्धि-अपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे ट्ठिदस्स अपत्तुववादजोगस्स एयंताणुवड्ढिजोगेण परिणामविरोहादो । = लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्ध काल में ही परिणाम योग होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । (देखें योग - 5.) किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से जो जीव परिणाम योग में स्थित है वह उपपाद योग को नहीं प्राप्त हुआ है, उसके एकान्तानुवृद्धियोग के साथ परिणाम के होने में विरोध आता है ।
- योग स्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबन्ध के साथ सम्बन्ध
धवला 6/1, 9-7, 43/201/2 पदेसबंधादो जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जहण्णट्ठाणादो अवट्ठिदपक्खेवेण सेडीए असंखेज्जदिभागपडिभागिएण विसेसाहियाणि जाउक्कस्सजोगट्ठाणेत्ति दुगुण-दुगुणगुणहाणिअद्धाणेहि सहियाणि सिद्धाणि हवंति । कुदो जोगेण विणा पदेसबंधाणुववत्तीदो । अथवा अणुभागबंधादो पदेसबंधो तक्कारणजोगट्ठाणाणि च सिद्धाणि हवति । कुदो । पदेसेहि विणा अणुभागाणुववत्तीदो । = प्रदेशबन्ध से योगस्थान सिद्ध होते हैं । वे योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र हैं और जघन्य योगस्थान से लेकर जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रतिभागरूप अवस्थित प्रक्षेप के द्वारा विशेष अधिक होते हुए उत्कृष्ट योगस्थान तक दुगुने-दुगुने गुणहानि आयाम से सहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि योग के बिना प्रदेशबन्ध नहीं हो सकता है । अथवा अनुभागबन्ध से प्रदेशबन्ध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशों के बिना अनुभागबन्ध नहीं हो सकता ।
- योगस्थान सामान्य का लक्षण