वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 3
From जैनकोष
भिन्नं समस्तपरत: परभावतश्च पूर्णं सनातनमनंतमखंडमेकम् ।
निक्षेपमाननयसर्वविकल्पदूरं शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ꠰꠰3।।
आत्मा की परविविक्तता―मैं समस्त परपदार्थों से निराला हूँ । अपने आपका यह निरालापन बहुत कुछ अंशों में तो बहुत से लोग जानते हैं कि घर मकान वैभव अदिक से न्यारा है यह जीव । भले ही आसक्ति के कारण उसका न्यारापन चित्त में विशद रूप से न आये, लेकिन बोध सबको है कि घर से मेरा जीव न्यारा है और इतना ही क्या इस देह से भी जीव न्यारा है, यह भी प्राय: सब मनुष्य जानते हैं । छोटे से छोटे लोग भी, देहाती लोग भी किसी के मर जाने पर बोल उठते हैं कि जो जीव है वह तो निकल गया । तो देखो सभी लोगों को यह बोध है ना कि देह से न्यारा है जीव । अब उस जीव के स्वरूप को चाहे यथाविधि न जानें, कोई कहते कि हवा है, हवा निकल गयी । कोई किसीरूप से कहते । जीव शब्द कहकर जीव का जैसा स्वरूप है उस स्वरूप में नहीं जाना, किंतु सामान्यतया उतना बोध सबको है कि देह में कोई ऐसी चीज थी जिसके रहने के कारण यह जिंदा कहलाता था, बोलता-चालता था । अब वह चीज न रही, वह देह से निकल गयी । इसके साथ ही साथ यह भी बोध करने वाले अनेक लोग हैं कि यह जीव निकलकर अब किसी दूसरे घर में चला गया, दूसरे देह में चला गया । तो प्रयोजन कहने का यह है कि यह जीव समस्त परपदार्थों से न्यारा है ।
आत्मा की सर्व परभावविविक्तता―आत्मतत्त्व समस्त परभावों से भी न्यारा है । कर्म उपाधि के संपर्क से जो आत्मा में रागद्वेष आदिक विकार उत्पन्न होते हैं बे विकार परभाव कहलाते हैं । इसे परभाव कहा, परस्वभाव कहा, पर के निमित्त से होने वाले भाव का नाम है परभाव और पर के निमित से स्व में होने वाले भाव का नाम है परस्वभाव । पर-स्वभाव कहने की प्रथा नहीं हैं लेकिन परस्वभाव शब्द कहने में उपादान और निमित्त दोनों के समझने का प्रसंग आ जाता है तो ये रागादिक विकार परभाव हैं, उनसे भी मैं निराला हूँ । मैं वह हूं जो अनादि से अनंतकाल तक हूँ और एक स्वरूप हूँ । अपने आपकी अध्रुवता अपने को पसंद नहीं आती । सभी लोग समझ सकते हैं । सभी को इसका अनुभव है कि अपने आपकी अस्थिरता, अध्रुवता, विनाश किसी को इष्ट नहीं है । प्रत्येक प्राणी के मन में यह भावना है कि मैं वह हूँ, जो सदा रहता है, किसी मनुष्य से कह दिया जाये कि देखो हम तुम को अभी यह सारा का सारा धन दिये देते हैं, तुम सुख से रहो, पर एक दो वर्ष बाद तुम्हारे पास जो कुछ भी धन होगा वह सबका सब छीन लिया जायेगा, तो ऐसा कोई भी धनिक होना पसंद न करेगा । सभी की ऐसी भावना रहती है कि मैं तो ऐसी स्थिति चाहता हूँ जो कि सदा निभ जाये । कोई भी इस प्रकार का धनिक बनना स्वीकार न करेगा । यह एक अपने को स्थायी रस में रखने की घटना का एक दृष्टांत दिया है । मैं वह हूँ, जो सदा रहता हूँ, एक स्वरूप हूँ । तो सदा रहने वाला एक स्वरूप भाव कौन-सा है? केवल चैतन्यभाव ।
भैया ! अपनी बात समझना कठिन नहीं है । किसी परपदार्थ पर घटाकर निरख लीजिए । पुद्गल में प्रथम तो यह पुद्गल द्रव्य नहीं हैं जो दिख रहे हैं, ये अनेक पुद᳭गल द्रव्यों के समूह हैं, स्कंध हैं । निश्चयत: जो इनमें एक-एक अणु हैं वही अमल कहलाते हैं । स्कंधों में पुद्गल संज्ञा का उपचार किया है । अनेक पुद्गल अणुवों का यह विशिष्ट बंधन हे जिसमें एक, दूसरे के स्निग्ध रुक्ष आदिक जैसे परिणमन स्वयं में बना डालते हैं । इतना घनिष्ठ संबंध है स्कंधों में । इस कारण स्कंधों को पुद्गल कहा गया है । तो जैसे इन दृश्यमान पदार्थों में जो पुद्गल है, एक अणु है, वह पुद्गल स्वयं कैसा है? इसके समझने के लिए यों ही निरखा जायेगा कि प्रत्येक अणु दूसरे के संबंध के बिना अपने आप ही अपने में जैसा है तैसा है । संबंध होनेपर फिर जो बात उन अणुवों में बन बैठी, उससे हम विशुद्ध पुद्गल का ज्ञान नहीं कर सकते । इसी प्रकार मैं आत्मा क्या हूँ, अपने बारे में ऐसी दृष्टि बनाओ कि मैं अपने में अपने आप सहज जैसा सत्त्व रखता हूँ उसरूप हूँ । कैसा रखता हूँ, उसको आचार्यों ने स्पष्ट बताया है । शुद्ध चैतन्यभाव मैं हूँ ।
वर्तमान श्रवण मनन परिणमन से भी अंतस्तत्त्व की विविक्तता―यहाँ सुनने में समझने में जो कुछ भी परिणमन हो रहा है वह परिणमन मेरा स्वभाव नहीं हूँ । ऐसी स्थिति में इसका सहारा लेना पड़ता है, जबकि अनेक मुविकल्पों में रहा करते हैं और रागद्वेष संबंधी अनेक विकल्पों का संताप सहते रहना पड़ता है । तो तत्त्वचर्चा करना, पूजा उपासना करना, समझना बोलना ये सब करना अधिक अच्छा है । इससे हमारा मार्ग एवं निर्देश सही मिलता है, फिर भी ये सब मेरे स्वभाव नहीं हैं । ये जितने विचार विकल्प जो कुछ भी परिणमन चल रहे हैं, ये सब औपाधिक हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं । मेरे स्वरूप होते तो जो भी स्थितियाँ हुई वे सदा ही एकरूप से रहा करती, किंतु नहीं रहतीं । इससे सिद्ध है कि ये परिणमन में नहीं हूँ । मैं हूँ एक शुद्ध चेतन । वह चित्स्वरूप समस्त परद्रव्यों से निराला है, और स्वद्रव्य में उत्पन्न हुये जो परभाव हैं, विकार हैं, उपाधि के संबंध से हुए भाव हैं उन सबसे निराला हूँ । कोई यदि निंदा करता है तो बुरा किसको लगता है । परमार्थ जीव को नहीं । यहाँ शुद्ध चैतन्य को ही जीव मान करके सुनो, क्योंकि जिसको विशुद्ध रुचि होती है वह विशुद्ध तत्त्व के, अतिरिक्त अन्य में स्वत्व स्वीकार नहीं करता । जैसे जो अच्छे सर्राफ लोग होते हे वे अच्छे शुद्ध सोने का ही लेनदेन करते हैं अशुद्ध का नहीं । यदि कोई ऐसा सोना लाया कि जिसमें कुछ खोटापन है तो झट उसे यों ही देखकर या कसौटी में कसकर झट फेंक देते हैं और कहने लगते हैं कि क्या यह कचड़ा ले आये ? वे अशुद्ध स्वर्णों का आदर नहीं करते । इसी प्रकार शुद्ध चित्स्वरूप का रुचिया ज्ञानी पुरुष चित्स्वरूप में ही अपने स्वप्न का आग्रह करके चिंतन करे तो बेधड़क वह कह देगा, ये परिणमन, ये विचार, ये सब व्यवहार, ये मैं नहीं हूँ । मैं तो एक शुद्ध चित्स्वरूप हूँ । यों इन समस्त परभावों से मी निराला यह मैं शुद्ध चिन्मात्र हूँ । अपने आपकी बात यथार्थ समझ में आने पर सभी संकट दूर होते हैं । लोग संकट दूर करने के लिए भारी यत्न करते हैं । रात दिन धन कमाते, बड़ी-बड़ी चिंतायें रखते, पर जरा सोचो तो सही कि इन बाहरी उल्झनों के बीच रहकर आज तक कोई सुखी हो सका क्या? किसी भी व्यक्ति का जीवन देखकर परख लो, रहट की घड़ियों की भांति घूम फिरकर वही-वही किया, वही मन, वचन, काय का व्यापार और जिस पर भी इस जीव को उस व्यापार से ऊब न आयी । मन, वचन, काय की क्रियाओं से ऊब नहीं आती ? यह सब क्या है यह सब मोह का प्रताप है । ज्ञानोपयोग के न होने का अथवा अनभ्यास का प्रताप है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की अपूर्ण व पूर्ण ज्ञानविकास से भी विविक्तता―में समस्त परद्रव्यों से न्यारा और परभावों से न्यारा शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, इतना कहने पर एक निज जीव के अतिरिक्त अन्य जीवों से पुद्गलों से भिन्न अपने आपको निरखो । किंतु अब प्रश्न होता है कि मेरे में जो ज्ञान उत्पन्न हो रहा, ज्ञान तो स्वभाव में ही प्रकट है ना, स्वभाव की तो बात है ना ? औपाधिक कर्म जितना दूर होते हैं उतना ही ज्ञान प्रकट होता है । यह कर्म के उदय से भी नहीं होता ज्ञान । तो ज्ञान तो जो मुझे मिला है वह क्या मेरा स्वरूप होगा? नहीं, नहीं । जितने ये ज्ञान आज प्रकट हैं वे भी मेरे स्वरूप नहीं, वे भी मैं नहीं, मैं तो पूर्ण हूँ, अधूरा नहीं हूँ । यह अधूरापन औपाधिक है । मैं पूर्ण ज्ञानमय, पूर्ण चित्स्वरूप हूँ, अधूरा मेरा स्वरूप नहीं है ।
अच्छा, मेरा पूर्ण स्वरूप सही, लेकिन जो अब केवली हैं, सर्वज्ञदेव हैं, उनके जो केवलज्ञान प्रकट है वह केवलज्ञान तो जीव कहलायेगा ना? उसे तो जीवस्वभाव कहो ना? तुम भी हम भी जब केवलज्ञानी होंगे तो वह केवलज्ञान परिणमन तो जीवस्वरूप कहलायेगा ना? नहीं नहीं । वह भी स्वरूप नहीं । मैं तो शुद्ध चित् हूँ । वह तो सनातन नहीं है, में सनातन हूं । सनातन कहते अनादि काल से हो अनंत बाल तक रहे, जिसके काल का न आदि है, न अंत है उसे कहते हैं सनातन । केवलज्ञान सनातन नहीं है । कर्मक्षय के निमित्त से उत्पन्न हुआ है किसी क्षण में उसके बाद फिर भी रहेगा अनंतकाल, तथापि समयसमय में उसका नवीन-नवीन समान परिणमन चलता रहता है । मैं केवल ज्ञानस्वरूप नहीं किंतु सनातन शुद्ध चेतन हूँ, इसका जब शुद्ध विकास होता है तब उसके केवल ज्ञानादिक महिमा प्रकट होती है ।
सूक्ष्मदृष्टि से देखो तो प्रत्येक द्रव्य में जब जो पर्याय होती है उस समय वह पर्याय है, अन्य समय में नही है । चाहे शुद्ध द्रव्य हो अथवा अशुद्ध द्रव्य हो । परिणमन के बिना, अवस्था के बिना कोई भी पदार्थ नही रहा करता । तो केवलज्ञान हो जाने पर मी वे सिद्ध प्रभु प्रति समय नवीन-नवीन समान-समान शुद्ध परिणमन से परिणमते रहते हैं । तब अर्थ यह हुआ ना कि उनकी पर्याय एक समय रहती है दूसरे समय में नहीं रहती । यह तो वस्तु का साधारण नियम है, वह कभी भी नहीं छूट सकता है । तो यों वह केवलज्ञान अथवा अन्य प्रकार के सारे शुद्ध परिणमन एकस्वरूप नहीं है । वे अनेक हैं, अतएव उनका व्यय है, किंतु मैं तो अव्यय हूँ, अविनाशी हूं । मैं वह शुद्ध चित्स्वरूप हूं जो इन समस्त परिणमनों का आधार है, निरंतर रहता है एक स्वरूप रहता है । जिसको वृष्टि में लिया कुछ दार्शनिकों ने तो कूटस्थ नित्य अपरिणामी कह दिया तो यह अवस्था गलत नहीं है पर किसी भी पदार्थ को सर्वथा नित्य अपरिणामी मान लेना गलत है । स्वभाव दृष्टि से देखो यह अचल है, सदा रहता है, यह बदलता नहीं है, यह ही शब्द तो कूटस्थ नित्य अपरिणामी शब्द में आया हुआ है । मैं शुद्ध चित् हूँ जो कि अनंत है ।
अखंड सत्त्व होने के कारण सहजपरमात्मतत्त्व की एकरूपता―चलो यहाँ तक हमने अपने में आत्मव्यवस्था कर ली, लेकिन जो परद्रव्यों से भिन्न हो, परभावों से भिन्न हो, पूर्ण हो, सनातन हो, अविनाशी हो, उसे ही तो आप आत्मा कह रहे हैं ना, जीव कह रहे हैं ना । तो देखो सहजज्ञान, सहज दर्शन, सहज आनंद आदिक जो शक्तियां हैं, गुण हैं, वे परद्रव्यों से भिन्न हैं, रागादिक परभावों से भिन्न हैं और पूर्ण हैं । अधूरा तो कुछ भी कहीं भी नहीं हुआ करता, लेकिन होकर नष्ट हो जाये उसकी अपेक्षा अथवा पूर्णविकास न हो, इसकी अपेक्षा अपूर्णता कहा जाता है । तो यह सहज शक्ति पूर्ण भी है सनातन भी है, अविनाशी भी है, तब यह तो जीव होता है? नहीं नही । ये ज्ञान, दर्शन, आनंद आदिक शक्तियां भी जीव नहीं हैं । मैं अखंड हूँ, खंडरूप नहीं हूँ । उस एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप के व्यवहार के लिये खंड कर दिया गया है । वस्तुत: मुझ में खंड नहीं है । मैं एकस्वरूप हूँ । विवेचन के लिए इसमें ज्ञान शक्ति, दर्शन शक्ति, इस तरह का बोध करना कराना है । ऐसे खंड करना ये मेरे में नहीं हें । में अखंड हूँ ।
यह मैं शुद्ध चेतन, जब चैतन्यस्वभाव का परिज्ञान किया जाये तब वह अनेक नहीं नजर आता । व्यक्तियां छूट जाती हैं । व्यक्ति संबद्ध होकर चित्स्वरूप को नजर में लाये तो स्वरूप का बोध न होगा । जैसे जल का स्वभाव ठंडा है, बस यह निरखें तो ठीक है, अगर व्यक्तिगत जल को देखकर स्वभाव का ठंडापन बताया तो उसने स्वभाव में दृष्टि नहीं रखी है तो जब चित्स्वभाव पर दृष्टि रखकर निरखा जायेगा तो वहाँ अनेकता न रहेगी, एकता हो जायेगी । इसी दृष्टि का ही एकांत करके अद्वैतवाद निकला है लेकिन सर्वथा यों तो नहीं है । अनुभव भेद से जीव अनेक हैं । उनमें भेद स्वभाव की परख की जा रही है सो यह मैं एक हूं ।
स्वत्व की विकल्पदूरता―हे अध्यात्मरसिक जीव ! भिन्न पूर्ण सनातन अनंत अखंड स्व को जानकर कुछ और आगे बढ़ना है, बहुत मंजिल तय की है अपने ज्ञान चरण से और बहुत कुछ मार्ग तय कर लिया है । जो इष्ट तत्त्व है, जो शुद्ध चित᳭स्वरूप है उस स्थान पर पहुँचने के लिये जितनी दूरी थी उतनी दूरी को तय करके बहुत कुछ निकट आये हो, लेकिन अभी तुम एक में ही अटक गये तो शुद्ध चैतन्य की ठीक मिलन में नहीं आ सकते । यह मैं शुद्ध चित᳭स्वरूप एक हूँ । यह एक भी विकल्प है, यह एक भी बाधा है । देख, तू तो एक के विकल्प से भी दूर है । अनुभव के समय में जो कुछ तेरे में आ रहा है, तेरा मेरा तो क्या, ये सब व्यवहार के प्रतिपादन हैं, तू तो वह है, जिसमें न एक का व्यवहार है, न अनेक का व्यवहार है । इस एक शुद्ध चैतन्य को समझाने के लिये निक्षेप प्रमाण नय का उपदेश किया गया है । तू नयों से जान, प्रमाण से जान, निक्षेप से जान । जान लिया निक्षेप से । जानने में क्या आयेगा? निक्षेप से होने वाली जानकारी में शुद्ध चित्स्वरूप न विराजेगा । नयों से की हुई जानकारी में यह शुद्ध चित्स्वरूप न विराजेगा, लेकिन इसके बिना काम नहीं चलता, अतएव इसका वर्णन है । वस्तुत: किसे अर्थ कहते हैं, जो द्रव्य गुणपर्याय में रहता है उसे अर्थ कहते हैं । द्रव्य कह कर भी एक पक्ष जाना गया, गुण पर्याय कहकर भी एक-एक पक्ष जाना गया, किंतु द्रव्यगुण, पर्यायों में व्यवस्थित जो एक स्वरूप है वह है चेतन, वह है अर्थ । मैं ऐसा शुद्ध चेतन हूँ जो निक्षेप, प्रमाण, नय के सर्वविकल्पों से दूर हूँ ।
आत्मोपलब्धि की प्रयोगसाध्यता―अब अपने मिलन के लिये प्रयोगजन्य बात रही जो अपने उपयोग को ऐसा निरखने में ढालेगा वह पायगा, जो अपने उपयोग में ऐसी निरख न ढाल सकेगा, वह इसे न पा सकेगा । ऐसा यह मैं शुद्ध चित᳭ सहज परमात्मतत्त्व हूँ, इसकी उपासना से, इसकी शरण में रहने से, इसके ही निकट उपयोग बनाये रहने से यह संसार गर्त, कर्मबंधन, जन्ममरण की विडंबना, ये सब अस्थिरतायें, समस्त दोष दूर हो जाते हैं । शांति के लिए हम प्रयत्न तो अनेक करते हैं, लेकिन अपने आपमें अपने अंदर ही बहुत कुछ मार्ग व्यतीत करके बहुत ही अंत: विराजमान जो यह शुद्ध चैतन्यदेव है, इसके निकट अपने ज्ञान को बसाये, यही उपाय है सर्वसंकटों से सदा के लिए दूर हो जाने का । इस उपाय में यदि चले कोई तो उसका नरजीवन और यह प्राप्त दुर्लभ समागम सफल है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना का अंत: साधन―जों पदार्थ स्वयं सहज जैसा होता है वैसा व्यक्त हो सकता है, क्योंकि उस स्वरूप में अपने आपका स्वत्व तो है किंतु अन्य किसी पर का स्वत्व नहीं है । यदि कोई पर का संपर्क हुआ हो अथवा किसी परउपाधि के कारण परभाव गए हों, मलिनता आ गयी हो तो वह चूंकि पर है, परतंत्र है, उसकी जिंदगी केवल इस निज उपादान के कारण नहीं है, अतएव उसका विलगाव हो सकता है । बिलगाव न भी हो तब तक भी यह अपने स्वरूप में उस ही स्वरूप है, परतत्त्वों का बिलगाव होने पर जिसे कहते हैं व्यक्तपरिणमन होता है वह परिणमन जिस स्वभाव के अनुरूप है । उस स्वभाव के अवलंबन करने के लिए प्रभु का उपदेश है । जगत में जीव का यह उपयोग किन-किन पदार्थों के विषय में घूम रहा है? बाह्यपदार्थों के विषय में भ्रमण करते हुए उपयोग को शांति कभी प्राप्त हो ही नहीं सकती है । शांति प्राप्त होगी तो निज पूर्व चिद᳭भाव के आश्रय से ही होगी और चिद्भाव का आश्रय करने पर एक बार भी मलिनता जब मूल से नष्ट हो जाती है, इसके बाद फिर सारा विश्व भी ज्ञान में आता रहे उसे लगाव नहीं कहते । राग का सद्भाव होने पर तथा इच्छा और राग के कारण पदार्थ में जो उपयोग लगाया जाता है उसे लगाव कहते हैं । वह लगाव ही हम आपको दुःखदायी है । दुख मिटाना है । इसका अर्थ यह है कि हमें पर, विषयक लगाव मिटाना है । दोनों का एक ही मतलब है । परविषयक लगाव मिटाने का ही नाम दुःख का मिटना है । वह कैसे मिटे, इसका उपाय अनेक दार्शनिकों ने अपने-अपने अभिप्राय से बताया है । किंतु वे उपाय अमोघ नहीं है । वीतराग प्रभु की वाणी में यह बताया गया है कि पर की ओर किस ही प्रकार का विचार रखकर उपयोग रखेंगे तो उसमें स्थिरता नहीं आ सकती । अपने आपका जो ध्रुव चित्स्वभाव है उसमें उपयोग रखा जायेगा तो स्थिरता आयेगी । साथ ही यह उपाय इस ही चैतन्यभाव से तो प्रकट होता है । यह अपने स्रोत में जब मिल जायेगा तो उपयोग की और स्वरूप की अभेदरूपता हो जाने से परमशांति प्राप्त होगी । ऐसा वीतराग प्रभु की वाणी में स्पष्ट उपदेश है । उसी संबंध में उस सहजपरमात्मतत्त्व की भक्ति की जा रही है ।