शीलपाहुड गाथा 34
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि इस शील से निर्वाण होता है उसका बहुतप्रकार से वर्णन है वह कैसे ?
सम्मत्तणाणदंसणतववीरियपंचयारमप्पाणं ।
जलणो वि पवणसहिदो डहंति पोरायणं कम्मं ।।३४।।
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचारा: आत्मनाम् ।
ज्वलनोsपि पवनसहित: दहंति पुरातनं कर्म ।।३४।।
ये ज्ञान दर्शन वीर्य तप सम्यक्त्व पंचाचार मिल ।
जिम आग इंर्धन जलावे तैसे जलावें कर्म को ।।३४ ।।
अर्थ - सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप, वीर्य - ये पंच आचार हैं वे आत्मा का आश्रय पाकर पुरातन कर्मो को वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे कि पवन सहित अग्नि पुराने सूखे इंर्धन को दग्ध कर देती है ।
भावार्थ - यहाँ सम्यक्त्व आदि पंच आचार तो अग्निस्थानीय हैं और आत्मा के त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव को शील कहते हैं, यह आत्मा का स्वभाव पवनस्थानीय है वह पंच आचाररूप अग्नि और शीलरूपी पवन की सहायता पाकर पुरातन कर्मबंध को दग्ध करके आत्मा को शुद्ध करता है, इसप्रकार शील ही प्रधान है । पाँच आचारों में चारित्र कहा है और यहाँ सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना ।।३४।।