रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 138: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
तस्येदानीं परिपूर्णदेशव्रतगुणसम्पन्नत्वमाह --
निरतिक्रमणमणुव्रत-पञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि
धारयते नि:शल्यो, योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिक: ॥138॥
टीका:
व्रतानि यस्य सन्तीति व्रतिको मत: । केषाम् ? व्रतिनां गणधरदेवादीनाम् । कोऽसौ ? नि:शल्यो, माया-मिथ्या-निदानशल्येभ्यो निष्क्रान्तो नि:शल्य: सन् योऽसौ धारयते। किं तत् ? निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि पञ्चाप्यणुव्रतानि निरतिचाराणि धारयते इत्यर्थ: । न केवलमेतदेव धारयते अपि तु शीलसप्तकं चापि त्रि:प्रकारगुणव्रतचतु:प्रकारशिक्षाव्रतलक्षणं शीलम् ॥
व्रत प्रतिमा
निरतिक्रमणमणुव्रत-पञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि
धारयते नि:शल्यो, योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिक: ॥138॥
टीकार्थ:
'व्रतानि यस्य सन्तीति व्रती' जिसके व्रत होते हैं, वह व्रती कहलाता है, ऐसा गणधरदेवादिकों ने कहा है । व्रती शब्द से स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होकर व्रतिक शब्द बना है । माया-मिथ्या-निदान ये तीन शल्य हैं । इन तीनों शल्यों के निकलने पर ही व्रती हो सकता है, इन तीन शल्यों से रहित होता हुआ जो अतिचार रहित पाँच अणुव्रतों को धारण करता है तथा तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के भेद से सात शीलों को भी जो धारण करता है, वह व्रतिक श्रावक कहलाता है ।