आहवनीय अग्नि: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उपयोग</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> गार्हपत्य आदि तीन अग्नियों का निर्देश व उपयोग</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">(महापुराण सर्ग संख्या 40/82-90) </span> <span class="SanskritText">त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारंभे द्विजोत्तमैः। रत्नत्रितयसंकल्पादग्नींद्रमुकुटोद्भवाः ॥82॥ तीर्थकृद्गणभृच्छेषकेवल्यंतमहोत्सवे। पूजांगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥83॥ कुंडत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निः प्रसिद्धयः ॥84॥ अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मंत्रैः कुर्वन्न द्विजोत्तमः। आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥85॥ हविष्याके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधौ। वह्नीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥86॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे। नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥87॥ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किंत्वर्हद्दिव्यमूर्तीज्यासंबंधात् पावनोऽनलः ॥88॥ ततः पूजांगतामस्य मत्वार्चंति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजातो न दुष्यति ॥89॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः। जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ॥90॥ </span> | <span class="GRef">(महापुराण सर्ग संख्या 40/82-90) </span> <span class="SanskritText">त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारंभे द्विजोत्तमैः। रत्नत्रितयसंकल्पादग्नींद्रमुकुटोद्भवाः ॥82॥ तीर्थकृद्गणभृच्छेषकेवल्यंतमहोत्सवे। पूजांगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥83॥ कुंडत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निः प्रसिद्धयः ॥84॥ अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मंत्रैः कुर्वन्न द्विजोत्तमः। आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥85॥ हविष्याके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधौ। वह्नीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥86॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे। नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥87॥ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किंत्वर्हद्दिव्यमूर्तीज्यासंबंधात् पावनोऽनलः ॥88॥ ततः पूजांगतामस्य मत्वार्चंति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजातो न दुष्यति ॥89॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः। जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ॥90॥ </span> | ||
<p class="HindiText">= क्रियाओं के प्रारंभ में उत्तम द्विजों को रत्नत्रय का संकल्प कर अग्निकुमार देवों के इंद्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकार की अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ॥82॥ ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के अंतिम अर्थात् निर्वाणोत्सव में पूजा का अंग होकर अत्यंत पवित्रता को प्राप्त हुई मानी जाती है ॥83॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध इन तीनों महाग्नियों को तीन कुंडों में स्थापित करना चाहिए ॥84॥ इन तीनों प्रकार की अग्नियों में मंत्रों के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकार की पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ॥85॥ नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकार की अग्नियों का विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्नि से नैवेद्य पकाया जाता है, '''आहवनीय अग्नि''' में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि से दीप जलाया जाता है ॥86॥ घर में बड़े प्रयत्न से इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिए ॥87॥ अग्नि में स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किंतु अर्हंत देव की दिव्य मूर्ति की पूजा के संबंध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥88॥ इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजा का अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतः निर्वाण क्षेत्र की पूजा के समान अग्नि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है ॥89॥ ब्राह्मणों को व्यवहार नय की अपेक्षा ही अग्नि की पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणों को भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ॥90॥ </span> | <p class="HindiText">= क्रियाओं के प्रारंभ में उत्तम द्विजों को रत्नत्रय का संकल्प कर अग्निकुमार देवों के इंद्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकार की अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ॥82॥ ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के अंतिम अर्थात् निर्वाणोत्सव में पूजा का अंग होकर अत्यंत पवित्रता को प्राप्त हुई मानी जाती है ॥83॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध इन तीनों महाग्नियों को तीन कुंडों में स्थापित करना चाहिए ॥84॥ इन तीनों प्रकार की अग्नियों में मंत्रों के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकार की पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ॥85॥ नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकार की अग्नियों का विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्नि से नैवेद्य पकाया जाता है, '''आहवनीय अग्नि''' में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि से दीप जलाया जाता है ॥86॥ घर में बड़े प्रयत्न से इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिए ॥87॥ अग्नि में स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किंतु अर्हंत देव की दिव्य मूर्ति की पूजा के संबंध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥88॥ इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजा का अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतः निर्वाण क्षेत्र की पूजा के समान अग्नि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है ॥89॥ ब्राह्मणों को व्यवहार नय की अपेक्षा ही अग्नि की पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणों को भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ॥90॥ | ||
(देखें [[अग्नि]])</span> | |||
Revision as of 19:39, 26 June 2023
(महापुराण सर्ग संख्या 40/82-90) त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारंभे द्विजोत्तमैः। रत्नत्रितयसंकल्पादग्नींद्रमुकुटोद्भवाः ॥82॥ तीर्थकृद्गणभृच्छेषकेवल्यंतमहोत्सवे। पूजांगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥83॥ कुंडत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निः प्रसिद्धयः ॥84॥ अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मंत्रैः कुर्वन्न द्विजोत्तमः। आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥85॥ हविष्याके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधौ। वह्नीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥86॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे। नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥87॥ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किंत्वर्हद्दिव्यमूर्तीज्यासंबंधात् पावनोऽनलः ॥88॥ ततः पूजांगतामस्य मत्वार्चंति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजातो न दुष्यति ॥89॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः। जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ॥90॥
= क्रियाओं के प्रारंभ में उत्तम द्विजों को रत्नत्रय का संकल्प कर अग्निकुमार देवों के इंद्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकार की अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ॥82॥ ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के अंतिम अर्थात् निर्वाणोत्सव में पूजा का अंग होकर अत्यंत पवित्रता को प्राप्त हुई मानी जाती है ॥83॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध इन तीनों महाग्नियों को तीन कुंडों में स्थापित करना चाहिए ॥84॥ इन तीनों प्रकार की अग्नियों में मंत्रों के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकार की पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ॥85॥ नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकार की अग्नियों का विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्नि से नैवेद्य पकाया जाता है, आहवनीय अग्नि में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि से दीप जलाया जाता है ॥86॥ घर में बड़े प्रयत्न से इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिए ॥87॥ अग्नि में स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किंतु अर्हंत देव की दिव्य मूर्ति की पूजा के संबंध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥88॥ इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजा का अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतः निर्वाण क्षेत्र की पूजा के समान अग्नि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है ॥89॥ ब्राह्मणों को व्यवहार नय की अपेक्षा ही अग्नि की पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणों को भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ॥90॥
(देखें अग्नि)
पूर्व पृष्ठ
अगला पृष्ठ