पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 68 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
एवं कत्ता भोक्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं । (68)
हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंच्छण्णो ॥75॥
अर्थ:
इसप्रकार अपने कर्मों से कर्ता-भोक्ता होता हुआ, मोह से आच्छादित आत्मा पार (सान्त) और अपार (अनन्त) संसार में घूमता है।
समय-व्याख्या:
कर्मसंयुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत् ।
एवमयमात्मा प्रकटितप्रभुत्वशक्ति : स्वकैः कर्मभिर्गृहीतकर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारोऽनादिमोहावच्छन्नत्वादुपजातविपरीताभिनिवेशः प्रत्यस्तमितसम्यग्ज्ञानज्योतिः सान्तमनन्तं वा संसारं परिभ्रमतीति ॥६८॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, कर्म-संयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्व का व्याख्यान है ।
इस प्रकार प्रगट प्रभुत्व-शक्ति के कारण जिसने अपने कर्मों द्वारा (निश्चय से भाव-कर्मों और व्यवहार से द्रव्य-कर्मों द्वारा) कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अधिकार ग्रहण किया है ऐसे इस आत्मा को, अनादि मोहाच्छादितपने के कारण विपरीत *अभिनिवेश की उत्पत्ति होने से सम्यग्ज्ञान-ज्योति अस्त हो गई है, इसलिए वह सांत अथवा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है ।
(इस प्रकार जीव के कर्म-सहित-पने की मुख्यता-पूर्वक प्रभुत्व का व्याख्यान किया गया ।) ॥६८॥
*अभिनिवेश = अभिप्राय, आग्रह