हरिवंश पुराण - सर्ग 20: Difference between revisions
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Revision as of 14:46, 16 September 2023
अथानंतर विशाल लक्ष्मी के धारक राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा कि हे विभो ! विष्णु कुमार मुनि ने बलि को क्यों बांधा था ? ॥1॥ इसके उत्तर में गौतम गणपति ने कहा कि हे श्रेणिक ! तू सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने वाली विष्णुकुमार मुनि को मनोहारिणी कथा सुन, मैं तेरे लिए कहता हूँ ॥2॥
किसी समय उज्जयिनी नगर में श्रीधर्मा नाम का प्रसिद्ध राजा रहता था । उसकी श्रीमती नाम को पटरानी थी । वह श्रीमती वास्तव में श्रीमती― उत्तम शोभा से संपन्न और महा गुणवती थी ॥3।। राजा श्रीधर्मा के बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद ये चार मंत्री थे । ये सभी मंत्री मंत्र मार्ग के जानकार थे ॥4॥ किसी समय श्रुत के पारगामी तथा सात सौ मुनियों से सहित महा मुनि अकंपन आकर उज्जयिनी के बाह्य उपवन में विराजमान हुए ॥5॥ उन महामुनि की वंदना के लिए नगरवासी लोग सागर की तरह उमड़ पड़े । महल पर खड़े हुए राजा ने नगरवासियों को देख मंत्रियों से पूछा कि ये लोग असमय की यात्रा द्वारा कहाँ जा रहे हैं ? तब बलि ने उत्तर दिया कि हे राजन् ! ये लोग अज्ञानी दिगंबर मुनियों की वंदना के लिए जा रहे हैं ॥6-7॥ तदनंतर राजा श्रीधर्मा ने भी वहाँ जाने की इच्छा प्रकट की । यद्यपि मंत्रियों ने उसे बहुत रोका तथापि वह जबर्दस्ती चल ही पड़ा । अंत में विवश हो मंत्री भी राजा के साथ गये और मुनियों से कुछ विवाद करने लगे ॥8-9॥ उस समय गुरु की आज्ञा से सब मुनि संघ मौन लेकर बैठा था इसलिए ये चारों मंत्री विवश होकर लौट आये । लौटकर आते समय उन्होंने सामने एक मुनि को देखकर राजा के समक्ष छेड़ा । सब मंत्री मिथ्यामार्ग में मोहित तो थे ही इसलिए श्रुतसागर नामक उक्त मुनिराज ने उन्हें जीत लिया ॥10॥ उसी दिन रात्रि के समय उक्त मुनिराज प्रतिमा योग से विराजमान थे कि सब मंत्री उन्हें मारने के लिए गये परंतु देव ने उन्हें कीलित कर दिया । यह देख राजा ने उन्हें अपने देश से निकाल दिया ॥11॥
उस समय हस्तिनापुर में महापद्म नामक चक्रवर्ती रहता था । उसकी आठ कन्याएं थीं और आठ विद्याधर उन्हें हरकर ले गये थे । शुद्ध शील को धारण करने वाली वे कन्याएँ जब वापस लायी गयीं तो उन्होंने संसार से विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली । उधर संसार से विरक्त हो वे आठ विद्याधर भी तप करने लगे ॥12-13 ।। इस घटना से चरमशरीरी महापद्म चक्रवर्ती भी संसार से विरक्त हो गया जिससे उसने लक्ष्मीमती रानी से उत्पन्न पद्म नामक बड़े पुत्र को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णु कुमार के साथ दीक्षा धारण कर ली ॥14।। जिस प्रकार सागर नदियों का भंडार होता है उसी प्रकार रत्नत्रय के धारी एवं तप तपने वाले विष्णुकुमार मुनि अनेक ऋद्धियों के भंडार हो गये ।। 15 ।। देशकाल की अवस्था को जानने वाले बलि आदि मंत्री नये राज्य पर आरूढ़ राजा पद्म की सेवा करने लगे ॥16॥ उस समय राजा पद्म, बलि मंत्री के उपदेश से किले में स्थित सिंहबल राजा को पकड़ने में सफल हो गया इसलिए उसने बलि से कहा कि वर मांगकर इष्ट वस्तु को ग्रहण करो ॥17॥ बलि बड़ा चतुर था इसलिए उसने प्रणाम कर उक्त वर को राजा पद्म के हाथ में धरोहर रख दिया अर्थात् अभी आवश्यकता नहीं है जब आवश्यकता होगी तब मांग लूंगा यह कहकर अपना वर धरोहर रूप रख दिया । तदनंतर बलि आदि चारों मंत्रियों का संतोषपूर्वक समय व्यतीत होने लगा ।।18।।
अथानंतर किसी समय धीरे-धीरे विहार करते हुए अकंपनाचार्य, अनेक मुनियों के साथ हस्तिनापुर आये और चार माह के लिए वर्षायोग धारण कर नगर के बाहर विराजमान हो गये ।। 19 ।। तदनंतर शंकारूपी विष को प्राप्त हुए बलि आदि मंत्री भयभीत हो गये और अहंकार के साथ उन्हें दूर करने का उपाय सोचने लगे ॥20॥ बलि ने राजा पद्म के पास आकर कहा कि राजन् ! आपने मुझे जो वर दिया था उसके फलस्वरूप सात दिन का राज्य मुझे दिया जाये ।। 21 ।। सँभाल, तेरे लिए सात दिन का राज्य दिया यह कहकर राजा पद्म अदृश्य के समान रहने लगा और बलि ने राज्य सिंहासन पर आरूढ़ होकर उन अकंपनाचार्य आदि मुनियों पर उपद्रव करवाया ॥22 ।। उसने चारों ओर से मुनियों को घेरकर उनके समीप पत्तों का धुआँ कराया तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिकवाये ।। 23 ।। अकंंपनाचार्य सहित सब मुनि यदि उपसर्ग दूर होगा तो आहार-विहार करेंगे अन्यथा नहीं इस प्रकार सावधिक संन्यास धारण कर उपसर्ग सहते हुए कायोत्सर्ग से खड़े हो गये॥24।। उस समय विष्णुकुमार मुनि के अवधिज्ञानी गुरु मिथिला नगरी में थे । वे अवधिज्ञान से विचार कर तथा दया से युक्त हो कहने लगे कि हा ! आज अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर अभूतपूर्व दारुणं उपसर्ग हो रहा है ॥25-26 ।। उस समय उनके पास पुष्पदंत नाम का क्षुल्लक बैठा था । गुरु के मुख से उक्त दयार्द्र वचन सुन उसने बड़े संभ्रम के साथ पूछा कि हे 8 नाथ ! वह उपसर्ग कहाँ हो रहा है ? इसके उत्तर में गुरु ने स्पष्ट कहा कि हस्तिनापुर में ।। 27 ꠰꠰ क्षुल्लक ने पुनः कहा कि हे नाथ ! यह उपसर्ग किससे दूर हो सकता है ? इसके उत्तर में गुरु ने कहा कि जिसे विक्रिया ऋद्धि की सामर्थ्य प्राप्त है तथा जो इंद्र को भी धौंस दिखाने में समर्थ है ऐसे विष्णुकुमार मुनि से यह उपसर्ग दूर हो सकता है ॥28॥ क्षुल्लक पुष्पदंत ने उसी समय जाकर विष्णुकुमार मुनि से यह समाचार कहा और उन्होंने विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई है या नहीं ? इसकी परीक्षा भी की ॥29 ।। उन्होंने परीक्षा के लिए सामने खड़ी पर्वत की दीवाल के आगे अपनी भुजा फैलायी सो वह भुजा, पर्वत की उस दीवाल को भेदन कर बिना किसी रुकावट के दूर तक इस तरह आगे बढ़ती गयी जिस तरह मानों पानी में ही बढ़ी जा रही हो ॥30॥
तदनंतर जिन्हें ऋद्धि की प्राप्ति का निश्चय हो गया था, जो जिनशासन के स्नेही थे और “नम्र मनुष्यों के लिए अत्यंत प्रिय थे ऐसे विष्णुकुमार मुनि उसी समय विनयावनत राजा पद्म के पास जाकर उससे बोले कि हे पद्मराज ! राज्य पाते ही तुमने यह क्या कार्य प्रारंभ कर रखा ? ऐसा कार्य तो रघुवंशियों में पृथिवी पर कभी हुआ ही नहीं ॥31-32 ।। यदि कोई दुष्टजन तपस्वी जनों पर उपसर्ग करता है तो राजा को उसे दूर करना चाहिए । फिर राजा से ही इस उपसर्ग की प्रवृत्ति क्यों हो रही है ? ॥33॥ हे राजन् ! जलती हुई अग्नि कितनी ही महान् क्यों न हो अंत में जल के द्वारा शांत कर दी जाती है फिर यदि जल से ही अग्नि उठने लगे तो अन्य किस पदार्थ से उसकी शांति हो सकती है ? ।।34।। निश्चय से ऐश्वर्य, आज्ञारूप फल से सहित है अर्थात् ऐश्वर्य का फल आज्ञा है और आज्ञा दुराचारियों का दमन करना है, यदि ईश्वर― राजा इस क्रिया से शून्य है-दुष्टों का दमन करने में समर्थ नहीं है तो फिर ऐसे ईश्वर को स्थाणु― लूंठ भी कहा है अर्थात् वह नाममात्र का ईश्वर है ॥35 ।। इसलिए पशु तुल्य बलि को इस दुष्कार्य से शीघ्र ही दूर करो । मित्र और शत्रुओं पर समान भाव रखने वाले मुनियों पर इसका यह द्वेष क्या है? ॥36॥ शीतल स्वभाव के धारक साधु को संताप पहुँचाना शांति के लिए नहीं है क्योंकि जिस प्रकार अधिक तपाया हुआ पानी विकृत होकर जला ही देता है उसी प्रकार अधिक दुःखी किया हुआ साधु विकृत होकर जला ही देता है शाप आदि से नष्ट ही कर देता है ॥37॥ जो धीर-वीर हैं, जिनकी सामर्थ्य छिपी हुई है और जिन्होंने अपने शरीर को अच्छी तरह वश कर लिया है ऐसे साधु भी कदाचित् अग्नि के समान दाहक हो जाते हैं ॥38॥ इसलिए हे राजन् ! जब तक तुम्हारे ऊपर कोई बड़ा अनिष्ट नहीं आता है तब तक तुम बलि के इस कुकृत्य के प्रति की जाने वाली अपनी उपेक्षा को दूर करो । स्वयं अपने तथा आश्रित रहने वाले अन्य जनों के प्रति उपेक्षा न करो ॥39।।
तदनंतर राजा पद्म ने नम्रीभूत होकर कहा कि हे नाथ ! मैंने बलि के लिए सात दिन का राज्य दे रखा है इसलिए इस विषय में मेरा अधिकार नहीं है ॥40॥ हे भगवन् ! आप स्वयं ही जाकर उस पर शासन करें । आपके अखंड चातुर्य से बलि अवश्य ही आपकी बात स्वीकृत करेगा । राजा पद्म के ऐसा कहने पर विष्णुकुमार मुनि बलि के पास गये ॥41॥ और बोले कि हे भले आदमी! आधे दिन के लिए अधर्म को बढ़ाने वाला यह निंदित कार्य क्यों कर रहा है? ॥42॥ अरे ! एक तपरूप कार्य में ही लीन रहने वाले उन मुनियों ने तेरा क्या अनिष्ट कर दिया जिससे तूने उच्च होकर भी नीच की तरह उनपर यह कुकृत्य किया ॥43॥ अपने कर्मबंध से भीरु होने के कारण तपस्वी मन, वचन, काय से कभी दूसरे का अनिष्ट नहीं करते ॥44॥ इसलिए इस तरह शांत मुनियों के विषय में तुम्हारी यह दुश्चेष्टा उचित नहीं है । यदि शांति चाहते हो तो शीघ्र ही इस प्रमादजन्य उपसर्ग का संकोच करो ॥45 ।। तदनंतर, बलि ने कहा कि यदि ये मेरे राज्य से चले जाते हैं तो उपसर्ग दूर हो सकता है अन्यथा उपसर्ग ज्यों का त्यों बना रहेगा ।। 46 ।। इसके उत्तर में विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि ये सब आत्मध्यान में लीन हैं इसलिए यहाँ से एक डग भी नहीं जा सकते । ये अपने शरीर का त्याग भले ही कर देंगे पर व्यवस्था का उल्लंघन नहीं कर सकते ॥47॥ उन मुनियों के ठहरने के लिए मुझे तीन डग भूमि देना स्वीकृत करो । अपने आपको अत्यंत कठोर मत करो । मैंने कभी किसी से याचना नहीं की फिर भी इन मुनियों के ठहरने के निमित्त तुम से तीन डग भूमि की याचना करता हूँ अतः मेरी बात स्वीकृत करो ॥48॥ विष्णुकुमार मुनि की बात स्वीकृत करते हुए बलि ने कहा कि यदि ये उस सीमा के बाहर एक डग का भी उल्लंघन करेंगे तो दंडनीय होंगे इसमें । की मेरा अपराध नहीं है ।। 49॥ क्योंकि लोक में मनुष्य तभी आपत्ति से युक्त होता है जब वह अपने वचन से च्युत हो जाता है । अपने वचन का पालन करने वाला मनुष्य लोक में कभी आपत्ति युक्त नहीं होता ॥50॥
तदनंतर जो कपट-व्यवहार करने में तत्पर था, शिक्षा के अयोग्य था, कुटिल था और दुष्ट साँप के समान दुष्ट स्वभाव का धारक था ऐसे उस बलि को वश करने के लिए विष्णुकुमार मुनि उद्यत हुए ॥51॥ अरे पापी ! देख, मैं तीन डग भूमि को नापता हूँ यह कहते हुए उन्होंने अपने शरीर को इतना बड़ा बना लिया कि वह ज्योतिष्पटल को छूने लगा॥ 52॥ उन्होंने एक डग मेरु पर रखी दूसरी मानुषोत्तर पर और तीसरी अवकाश न मिलने से आकाश में ही घूमती रही ॥53॥ उस समय विष्णु के प्रभाव से तीनों लोकों में क्षोभ मच गया । किंपुरुष आदि देव क्या है ? क्या है? यह शब्द करने लगे ॥54॥
वीणा-बाँसुरी आदि बजाने वाले कोमल गीतों के गायक गंधर्वदेव अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ उन मुनिराज के समीप मनोहर गीत गाने लगे ॥55 ।। लाल-लाल तलुए से सहित एवं आकाश में स्वच्छंदता से घूमता हुआ उनका पैर अत्यधिक सुशोभित हो रहा था और उसके नख संगीत के लिए इकट्ठी हुईं किन्नरादि देवों की स्त्रियों को अपना-अपना मुख-कमल देखने के लिए दर्पण के समान जान पड़ते थे ॥56॥ हे विष्णो ! हे प्रभो ! मन के क्षोभ को दूर करो, दूर करो, आपके तप के प्रभाव से आज तीनों लोक चल-विचल हो उठे हैं । इस प्रकार मधुर गीतों के साथ वीणा बजाने वाले देवों, धीर-वीर विद्याधरों तथा सिद्धांतशास्त्र की गाथाओं को गाने वाले एवं बहुत ऊंचे आकाश में विचरण करने वाले चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने जब उन्हें शांत किया तब वे धीरे-धीरे अपनी विक्रिया को संकोचकर उस तरह स्वभावस्थ हो गये― जिस तरह कि उत्पात के शांत होने पर सूर्य स्वभावस्थ हो जाता है अपने मलरूप में आ जाता है ।।57-59।। उस समय देवों ने शीघ्र ही मुनियों का उपसर्ग दूर कर दुष्ट बलि को बाँध लिया और उसे दंडित कर देश से दूर कर दिया ॥60॥ उस समय किन्नरदेव तीन वीणाएँ लाये थे उनमें घोषा नाम की वीणा तो उत्तरश्रेणी में रहने वाले विद्याधरों को दी, महाघोषा सिद्धकूट वासियों को और सुघोषा दक्षिण तटवासी विद्याधरों को दी ॥61 ।। इस प्रकार उपसर्ग दूर करने से जिनशासन के प्रति वत्सलता प्रकट करते हुए विष्णुकुमार मुनि ने सीधे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त द्वारा विक्रिया की शल्य छोड़ी ॥62 ।। स्वामी विष्णुकुमार, घोर तपश्चरण कर तथा घातियाकर्मों का क्षय कर केवली हुए और विहार कर अंत में मोक्ष को प्राप्त हुए ॥63।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य विष्णुकुमार मुनि के इस पापापहारीचरित को भक्तिपूर्वक सुनता है वह सम्यग्दर्शन की शुद्धि को प्राप्त होता है ॥64॥ साधु चाहे तो अतिशय विशाल मंदराचलों को भी स्वेच्छानुसार भय से अपने स्थान से विचलित कर सकता है, हथेलियों के व्यापार से सूर्य और चंद्रमा को भी आकाश से नीचे गिरा सकता है, उपद्रवों से युक्त लहराते हुए समुद्रों को भी बिखेर सकता है और जो मुक्ति का पात्र नहीं है उसे भी मुक्ति प्राप्त करा सकता है, सो ठीक ही है क्योंकि जिनशासन प्रणीत तपोलक्ष्मी के धारक योगियों के लिए क्या कठिन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥65॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में विष्णुकुमार का वर्णन करने वाला बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥20॥