हरिवंश पुराण - सर्ग 44: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> रानी सत्यभामा का जो पुत्र था वह श्रीमान् तथा सूर्य के प्रभामंडल के समान देदीप्यमान था इसलिए उसका भानु नाम रखा गया । वह भानु प्रातःकाल के सूर्य के समान अपनी महिमा से बढ़ने लगा | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> रानी सत्यभामा का जो पुत्र था वह श्रीमान् तथा सूर्य के प्रभामंडल के समान देदीप्यमान था इसलिए उसका भानु नाम रखा गया । वह भानु प्रातःकाल के सूर्य के समान अपनी महिमा से बढ़ने लगा ॥ 1 ॥<span id="2" /> सूर्य की किरणों के समान तेज का धारक भानु ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था त्यों-त्यों सत्यभामा का मानरूपी पर्वत बढ़ता जाता था ॥2॥<span id="3" /> तदनंतर किसी समय नारद कृष्ण की सभा में आये तो कृष्ण ने उनसे पूछा― भगवन् ! इस समय कहाँ से आ रहे हैं ? आपका मुख किसी बड़े भारी हर्ष को प्रकट कर रहा है ॥3॥<span id="8" /> नारद ने कहा― विजयार्ध पर्वत को दक्षिणश्रेणी में एक जंबूपुर नाम का नगर है । उसमें जांबव नाम का विद्याधर रहता है<strong>, </strong>उसकी शिवचंद्रा नाम की चंद्रमुखी भार्या है । उन दोनों के सब ओर यश को फैलाने वाला विश्वक्सेन नाम का पुत्र तथा जांबवती नाम की कन्या है । जांबवती क्या है मानो स्वयं आयी हुई लक्ष्मी ही है ॥ 4<strong>-</strong>5॥ वह इस समय सखियों के साथ स्नान करने के लिए गंगानदी में उतरी है और सुंदर ताराओं से घिरी चंद्रमा की कला के समान उत्तम जान पड़ती है । वह गंगा के द्वार में स्थित है तथा ऊँचे उठे वस्त्राच्छादित स्तनों से युक्त है । वह जांबव नाम पर्वत से निकली नदी के समान है एवं दूसरे के लिए प्राप्त करना अशक्य है अथवा अपने पिता जांबव की सेना के समान दूसरे के लिए वश करना अशक्य है ॥ 6<strong>-</strong>7॥</p> | ||
<p> इस प्रकार स्नेह से युक्त नारद के इन वचनों से श्रीकृष्ण उस समय उस प्रकार उत्तेजित हो उठे जिस प्रकार कि घी से अग्नि उत्तेजित हो उठती है ॥8॥ | <p> इस प्रकार स्नेह से युक्त नारद के इन वचनों से श्रीकृष्ण उस समय उस प्रकार उत्तेजित हो उठे जिस प्रकार कि घी से अग्नि उत्तेजित हो उठती है ॥8॥<span id="9" /> वे अनावृष्टि और उसकी सेना को साथ ले शीघ्र ही उस स्थान की ओर चल पड़े । वहाँ जाकर उन्होंने स्नान<strong>-</strong>क्रीड़ा को प्रारंभ करने वाली जांबवती को देखा ॥9॥<span id="10" /> उसी समय सहसा नीलकमल के समान कांति के धारक श्रीकृष्ण पर कन्या जांबवती की दृष्टि भी जा पड़ी । तदनंतर कामदेव ने एक ही साथ अपने पाँचों बाणों से दोनों को वेध दिया ॥10॥<span id="11" /> अवसर देख श्रीकृष्ण ने श्री<strong>, </strong>रति और ह्री देवी को लज्जित करने वाली जांबवती का दोनों भुजाओं से गाढ़आलिंगन किया । तदनंतर जिनके नेत्र कुछ<strong>-</strong>कुछ निमीलित हो रहे थे ऐसे श्रीकृष्ण<strong>, </strong>स्पर्शजन्य सुख से निमीलित नेत्रों वाली उस कन्या को हर लाये ॥11॥<span id="12" /> उसी समय वहाँ कन्या हरण के कारण उसकी सखियों का जोरदार रोने का शब्द हुआ जो समीपवर्ती शिविर में फैल गया ॥12॥<span id="13" /> शब्द को सुन<strong>, </strong>क्रोध से भरा कन्या का पिता विद्याधरों का राजा जांबव<strong>, </strong>हाथ में तलवार और देदीप्यमान ढाल ले आकाश-मार्ग से चलकर शीघ्र ही वहाँ आ पहुंचा ॥13॥<span id="14" /> उसे आया देख आकाशगामी अनावृष्टि ने आकाश में कुछ देर तक तो उसका युद्ध के द्वारा अतिथि-सत्कार किया । तदनंतर हाथ में तलवार को धारण करने वाले उस विद्याधर राजा जांबव को उसने बांध लिया ॥14॥<span id="15" /> नीति के ज्ञाता वीर अनावृष्टि ने उसे लाकर श्रीकृष्ण को दिखाया । इस घटना से राजा जांबव को वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे वह अपने पुत्र विश्वक्सेन को श्रीकृष्ण के अधीन कर तप के लिए वन को चला गया ॥15॥<span id="16" /> जांबवती के विवाह से परम आनंद को प्राप्त हुए श्रीकृष्ण विश्वक्सेन को साथ ले अपनी द्वारिका नगरी को चले गये ॥16॥<span id="17" /> जांबवती के आगमन से रुक्मिणी को भी हर्ष हुआ<strong>, </strong>इसलिए श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के महल के समीप ही जांबवती के लिए सुंदर महल दिया ॥17॥<span id="18" /></p> | ||
<p> जांबवती के भाई विश्वक्सेन का सम्मान कर उसे अपने स्थान पर विदा किया और पृथिवीतल में दुर्लभ भोगों से जांबवती के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥18॥ रुक्मिणी और जांबवती में जो प्रीति प्रथम उत्पन्न हुई थी वह परस्पर एक<strong>-</strong>दूसरे के महल में आने<strong>-</strong>जाने से बढ़ती गयी तथा अखंडरूप में परिणत हो गयी ॥19॥</p> | <p> जांबवती के भाई विश्वक्सेन का सम्मान कर उसे अपने स्थान पर विदा किया और पृथिवीतल में दुर्लभ भोगों से जांबवती के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥18॥<span id="19" /> रुक्मिणी और जांबवती में जो प्रीति प्रथम उत्पन्न हुई थी वह परस्पर एक<strong>-</strong>दूसरे के महल में आने<strong>-</strong>जाने से बढ़ती गयी तथा अखंडरूप में परिणत हो गयी ॥19॥<span id="20" /></p> | ||
<p> उसी समय सिंहलद्वीप में सूक्ष्म बुद्धि का धारक श्लक्ष्णरोम नाम का राजा रहता था । उसे वश करने के लिए किसी समय कृष्ण ने अपना दूत भेजा ॥20॥ दूत ने वहाँ जाकर और शीघ्र ही वापस आकर श्रीकृष्ण को उसके प्रतिकूल होने की खबर दी और साथ ही यह भी खबर दी कि उसके उत्तम लक्षणों से युक्त एक लक्ष्मणा नाम की कन्या है | <p> उसी समय सिंहलद्वीप में सूक्ष्म बुद्धि का धारक श्लक्ष्णरोम नाम का राजा रहता था । उसे वश करने के लिए किसी समय कृष्ण ने अपना दूत भेजा ॥20॥<span id="21" /> दूत ने वहाँ जाकर और शीघ्र ही वापस आकर श्रीकृष्ण को उसके प्रतिकूल होने की खबर दी और साथ ही यह भी खबर दी कि उसके उत्तम लक्षणों से युक्त एक लक्ष्मणा नाम की कन्या है ॥ 21 ॥<span id="22" /> तदनंतर हर्ष से युक्त श्रीकृष्ण बलदेव के साथ शीघ्र ही वहाँ गये । वहाँ जाकर उन्होंने स्नान करने के लिए समुद्र में आयी हुई दीर्घ लोचना लक्ष्मणा को देखा ॥22 ॥<span id="23" /> तदनंतर अपने रूप से उसके चित्त को हरकर और महाशक्तिशाली द्रुमसेन नामक सेनापति को युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उस रूपवती लक्ष्मणा को हर लाये ॥23॥<span id="24" /> द्वारिका में लाकर उसके साथ विधिपूर्वक विवाह किया और जांबवती के महल के समीप उसे महल दे रमण करने लगे ॥24॥<span id="25" /> लक्ष्मणा का भाई महासेन कृष्ण के पास आकर नम्रीभूत हुआ और मानी कृष्ण के द्वारा सम्मान-पूर्वक विदा पाकर अपने सिंहलद्वीप को चला गया ॥25॥<span id="26" /></p> | ||
<p> उसी समय सुराष्ट्र देश में एक राष्ट्रवर्धन नाम का राजा था । अजाखुरी उसकी नगरी थी और विनया नाम की रानी थी जो समस्त स्त्रियों में उत्तम थी<strong>, </strong>॥26॥ विनया नामक रानी से उसके नमुचि नाम का पुत्र हुआ था जो नीति और पराक्रम का भंडार था । इसी प्रकार एक सुसीमा नाम की पुत्री थी जो कि उत्तम सीमा से युक्त पृथिवी के समान जान पड़ती थी ॥27॥ | <p> उसी समय सुराष्ट्र देश में एक राष्ट्रवर्धन नाम का राजा था । अजाखुरी उसकी नगरी थी और विनया नाम की रानी थी जो समस्त स्त्रियों में उत्तम थी<strong>, </strong>॥26॥<span id="27" /> विनया नामक रानी से उसके नमुचि नाम का पुत्र हुआ था जो नीति और पराक्रम का भंडार था । इसी प्रकार एक सुसीमा नाम की पुत्री थी जो कि उत्तम सीमा से युक्त पृथिवी के समान जान पड़ती थी ॥27॥<span id="28" /> युवराज नमुचि का पराक्रम समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध था । वह अभिमान का मानो बड़ा ऊंचा पर्वत था और माननीय राजाओं का निरंतर तिरस्कार करता रहता था ॥ 28 ॥<span id="29" /> एक दिन युवराज नमुचि और उसकी बहन सुसीमा दोनों ही स्नान करने के लिए समुद्रतट पर आये । इधर हितकारी नारद ने श्रीकृष्ण के लिए उन दोनों की खबर दी ॥29॥<span id="30" /> श्रीकृष्ण खबर पाते ही बलदेव के साथ वहाँ गये और प्रभास तीर्थ के तीर पर जिसकी सेना ठहरी हुई थी ऐसे उस नमुचि को मारकर तथा कन्या सुसीमा को हरकर<strong>, </strong>द्वारिका आ गये ॥30॥<span id="31" /> वहाँ लक्ष्मणा के भवन के समीप सुवर्णमय उत्तम महल देकर उसके साथ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥31॥<span id="32" /></p> | ||
<p> तदनंतर सुसीमा के पिता राजा राष्ट्रवर्धन ने भी पुत्री के लिए उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण और श्रीकृष्ण के लिए रथ<strong>, </strong>हाथी आदि की भेंट भेजी ॥32॥</p> | <p> तदनंतर सुसीमा के पिता राजा राष्ट्रवर्धन ने भी पुत्री के लिए उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण और श्रीकृष्ण के लिए रथ<strong>, </strong>हाथी आदि की भेंट भेजी ॥32॥<span id="33" /></p> | ||
<p> उसी समय सिंधु देश के वीतभय नामक नगर में इक्ष्वाकुवंश को बढ़ाने वाला मेरु नाम का राजा रहता था<strong>, </strong>उसकी चंद्रवती नाम की भार्या थी ॥33॥ उससे उसके एक गौरी नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी जो गौरवर्ण की थी<strong>, </strong>रूपवती गौर विद्या के समान थी अथवा ईतियों से रहित पृथिवी के समान जान पड़ती थी ॥34॥ निमित्त ज्ञानी ने बताया था कि यह नौवें नारायण श्रीकृष्ण की स्त्री होगी<strong>, </strong>इसलिए उसके वचनों का स्मरण रखने वाले राजा मेरु ने पहले तो श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा और उसके बाद मंगलोचना गौरी को भेजा ॥35 | <p> उसी समय सिंधु देश के वीतभय नामक नगर में इक्ष्वाकुवंश को बढ़ाने वाला मेरु नाम का राजा रहता था<strong>, </strong>उसकी चंद्रवती नाम की भार्या थी ॥33॥<span id="34" /> उससे उसके एक गौरी नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी जो गौरवर्ण की थी<strong>, </strong>रूपवती गौर विद्या के समान थी अथवा ईतियों से रहित पृथिवी के समान जान पड़ती थी ॥34॥<span id="35" /> निमित्त ज्ञानी ने बताया था कि यह नौवें नारायण श्रीकृष्ण की स्त्री होगी<strong>, </strong>इसलिए उसके वचनों का स्मरण रखने वाले राजा मेरु ने पहले तो श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा और उसके बाद मंगलोचना गौरी को भेजा ॥35 ॥<span id="37" /><span id="38" /> श्रीकृष्ण ने मन को हरने वाली गौरी को विवाहकर उसके लिए सुसीमा के भवन के समीप ऊँचा महल प्रदान किया ।꠰ 36॥</p> | ||
<p> उसी समय बलदेव के मामा राजा हिरण्यनाभ अरिष्टपुर नगर में राज्य करते थे । उनकी श्रीकांता नाम की उत्तम स्त्री थी । उससे उनके पद्मावती नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी जो साक्षात् लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी । उसका स्वयंवर हो रहा है यह सुनकर अनावृष्टि के साथ-साथ बलदेव और कृष्ण भी वहाँ गये ॥37-38॥ आत्मीयजनों के साथ स्नेह बढ़ाने वाले इन दोनों को राजा हिरण्यनाभ ने बड़े गौरव और प्रेम के साथ देखा ॥39॥ हिरण्यनाभ का बड़ा भाई रेवत जो पिता के साथ पहले ही दीक्षित हो वन में रहने लगा था उसकी चार कन्याएँ 1 रेवती<strong>, </strong>2 बंधुमती<strong>, </strong>3 सीता और 4 राजीवनेत्रा बलदेव के लिए पहले ही दी जा चुकी ॥40-41॥ जब पद्मावती का स्वयंवर होने लगा तब युद्ध निपुण श्रीकृष्ण<strong>, </strong>उसे हठपूर्वक हर ले आये और रण में जिन्होंने शूरवीरता दिखायी उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर डाला ॥42॥ तदनंतर विवाह कर अपनी-अपनी स्त्रियों को साथ लिये दोनों भाई<strong>, </strong>भाइयों के साथ शीघ्र ही द्वारिका आये और देवों के समान क्रीड़ा करने लगे ॥43॥ हर्षित श्रीकृष्ण गौरी के महल के समीप पद्मावती के लिए महल देकर बहुत प्रसन्न हुए ॥44॥</p> | <p> उसी समय बलदेव के मामा राजा हिरण्यनाभ अरिष्टपुर नगर में राज्य करते थे । उनकी श्रीकांता नाम की उत्तम स्त्री थी । उससे उनके पद्मावती नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी जो साक्षात् लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी । उसका स्वयंवर हो रहा है यह सुनकर अनावृष्टि के साथ-साथ बलदेव और कृष्ण भी वहाँ गये ॥37-38॥<span id="39" /> आत्मीयजनों के साथ स्नेह बढ़ाने वाले इन दोनों को राजा हिरण्यनाभ ने बड़े गौरव और प्रेम के साथ देखा ॥39॥<span id="40" /><span id="41" /> हिरण्यनाभ का बड़ा भाई रेवत जो पिता के साथ पहले ही दीक्षित हो वन में रहने लगा था उसकी चार कन्याएँ 1 रेवती<strong>, </strong>2 बंधुमती<strong>, </strong>3 सीता और 4 राजीवनेत्रा बलदेव के लिए पहले ही दी जा चुकी ॥40-41॥<span id="42" /> जब पद्मावती का स्वयंवर होने लगा तब युद्ध निपुण श्रीकृष्ण<strong>, </strong>उसे हठपूर्वक हर ले आये और रण में जिन्होंने शूरवीरता दिखायी उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर डाला ॥42॥<span id="43" /> तदनंतर विवाह कर अपनी-अपनी स्त्रियों को साथ लिये दोनों भाई<strong>, </strong>भाइयों के साथ शीघ्र ही द्वारिका आये और देवों के समान क्रीड़ा करने लगे ॥43॥<span id="44" /> हर्षित श्रीकृष्ण गौरी के महल के समीप पद्मावती के लिए महल देकर बहुत प्रसन्न हुए ॥44॥<span id="45" /><span id="46" /></p> | ||
<p> उसी समय गांधार देश की पुष्कलावती नगरी में एक इंद्रगिरि नाम का राजा रहता था । उसकी मेरुसती नाम की स्त्री थी । उससे उसके हिमगिरि के समान स्थिर हिमगिरि नाम का पुत्र था और गांधारी नाम की सुंदरी पुत्री थी जो गंधर्व आदि कलाओं में अत्यंत निपुण थी ॥45-46 | <p> उसी समय गांधार देश की पुष्कलावती नगरी में एक इंद्रगिरि नाम का राजा रहता था । उसकी मेरुसती नाम की स्त्री थी । उससे उसके हिमगिरि के समान स्थिर हिमगिरि नाम का पुत्र था और गांधारी नाम की सुंदरी पुत्री थी जो गंधर्व आदि कलाओं में अत्यंत निपुण थी ॥45-46 ॥<span id="47" /><span id="48" /> शीघ्रता से आये हुए नारद से श्रीकृष्ण को जब यह विदित हुआ कि गांधारी का भाई उसे हयपुरी के राजा सुमुख को दे रहा है तब वे शीघ्र ही जाकर रणांगण में प्रतिकूल हिमगिरि को मारकर गांधारी को हर लाये एवं उस सौम्यमुखी के साथ विवाह कर बहुत हर्षित हुए ॥47-48 ॥<span id="49" /> उन्होंने पद्मावती के महल के समीप गांधारी के लिए उत्तम महल दिया और उस धैर्यशालिनी को उत्तम भोगों से सम्मानित किया ॥49॥<span id="50" /><span id="51" /> इस प्रकार जो वशीकृत आठ दिशाओं के समान उन आठ इष्ट पट्टरानियों से अंतःपुर में सदा सेवित रहते थे<strong>, </strong>जो पुण्यरूपी वृक्ष से उत्पन्न भोगरूपी विशाल फल का उपभोग करते थे<strong>, </strong>जन-समूह को आनंद प्रदान करते थे एवं प्रबल पराक्रम के धारक थे ऐसे श्रीकृष्ण समृद्धि को प्राप्त हुए ॥50-51 ॥<span id="52" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्म को धारण करने वाला भव्यजीव युद्ध में सामने खड़े शत्रुओं के समूह को क्षणमात्र में तृण के समान पराजित कर अनायास ही उत्तमोत्तम स्त्रीरूपी रत्नों को प्राप्त कर लेता है ॥ 52 ॥<span id="44" /> </p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में जांबवती</strong> <strong>आदि महादेवियों</strong> <strong>के लाभ</strong> <strong>का वर्णन करने वाला चवालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥44॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में जांबवती</strong> <strong>आदि महादेवियों</strong> <strong>के लाभ</strong> <strong>का वर्णन करने वाला चवालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥44॥<span id="45" /><span id="46" /></strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
रानी सत्यभामा का जो पुत्र था वह श्रीमान् तथा सूर्य के प्रभामंडल के समान देदीप्यमान था इसलिए उसका भानु नाम रखा गया । वह भानु प्रातःकाल के सूर्य के समान अपनी महिमा से बढ़ने लगा ॥ 1 ॥ सूर्य की किरणों के समान तेज का धारक भानु ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था त्यों-त्यों सत्यभामा का मानरूपी पर्वत बढ़ता जाता था ॥2॥ तदनंतर किसी समय नारद कृष्ण की सभा में आये तो कृष्ण ने उनसे पूछा― भगवन् ! इस समय कहाँ से आ रहे हैं ? आपका मुख किसी बड़े भारी हर्ष को प्रकट कर रहा है ॥3॥ नारद ने कहा― विजयार्ध पर्वत को दक्षिणश्रेणी में एक जंबूपुर नाम का नगर है । उसमें जांबव नाम का विद्याधर रहता है, उसकी शिवचंद्रा नाम की चंद्रमुखी भार्या है । उन दोनों के सब ओर यश को फैलाने वाला विश्वक्सेन नाम का पुत्र तथा जांबवती नाम की कन्या है । जांबवती क्या है मानो स्वयं आयी हुई लक्ष्मी ही है ॥ 4-5॥ वह इस समय सखियों के साथ स्नान करने के लिए गंगानदी में उतरी है और सुंदर ताराओं से घिरी चंद्रमा की कला के समान उत्तम जान पड़ती है । वह गंगा के द्वार में स्थित है तथा ऊँचे उठे वस्त्राच्छादित स्तनों से युक्त है । वह जांबव नाम पर्वत से निकली नदी के समान है एवं दूसरे के लिए प्राप्त करना अशक्य है अथवा अपने पिता जांबव की सेना के समान दूसरे के लिए वश करना अशक्य है ॥ 6-7॥
इस प्रकार स्नेह से युक्त नारद के इन वचनों से श्रीकृष्ण उस समय उस प्रकार उत्तेजित हो उठे जिस प्रकार कि घी से अग्नि उत्तेजित हो उठती है ॥8॥ वे अनावृष्टि और उसकी सेना को साथ ले शीघ्र ही उस स्थान की ओर चल पड़े । वहाँ जाकर उन्होंने स्नान-क्रीड़ा को प्रारंभ करने वाली जांबवती को देखा ॥9॥ उसी समय सहसा नीलकमल के समान कांति के धारक श्रीकृष्ण पर कन्या जांबवती की दृष्टि भी जा पड़ी । तदनंतर कामदेव ने एक ही साथ अपने पाँचों बाणों से दोनों को वेध दिया ॥10॥ अवसर देख श्रीकृष्ण ने श्री, रति और ह्री देवी को लज्जित करने वाली जांबवती का दोनों भुजाओं से गाढ़आलिंगन किया । तदनंतर जिनके नेत्र कुछ-कुछ निमीलित हो रहे थे ऐसे श्रीकृष्ण, स्पर्शजन्य सुख से निमीलित नेत्रों वाली उस कन्या को हर लाये ॥11॥ उसी समय वहाँ कन्या हरण के कारण उसकी सखियों का जोरदार रोने का शब्द हुआ जो समीपवर्ती शिविर में फैल गया ॥12॥ शब्द को सुन, क्रोध से भरा कन्या का पिता विद्याधरों का राजा जांबव, हाथ में तलवार और देदीप्यमान ढाल ले आकाश-मार्ग से चलकर शीघ्र ही वहाँ आ पहुंचा ॥13॥ उसे आया देख आकाशगामी अनावृष्टि ने आकाश में कुछ देर तक तो उसका युद्ध के द्वारा अतिथि-सत्कार किया । तदनंतर हाथ में तलवार को धारण करने वाले उस विद्याधर राजा जांबव को उसने बांध लिया ॥14॥ नीति के ज्ञाता वीर अनावृष्टि ने उसे लाकर श्रीकृष्ण को दिखाया । इस घटना से राजा जांबव को वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे वह अपने पुत्र विश्वक्सेन को श्रीकृष्ण के अधीन कर तप के लिए वन को चला गया ॥15॥ जांबवती के विवाह से परम आनंद को प्राप्त हुए श्रीकृष्ण विश्वक्सेन को साथ ले अपनी द्वारिका नगरी को चले गये ॥16॥ जांबवती के आगमन से रुक्मिणी को भी हर्ष हुआ, इसलिए श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के महल के समीप ही जांबवती के लिए सुंदर महल दिया ॥17॥
जांबवती के भाई विश्वक्सेन का सम्मान कर उसे अपने स्थान पर विदा किया और पृथिवीतल में दुर्लभ भोगों से जांबवती के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥18॥ रुक्मिणी और जांबवती में जो प्रीति प्रथम उत्पन्न हुई थी वह परस्पर एक-दूसरे के महल में आने-जाने से बढ़ती गयी तथा अखंडरूप में परिणत हो गयी ॥19॥
उसी समय सिंहलद्वीप में सूक्ष्म बुद्धि का धारक श्लक्ष्णरोम नाम का राजा रहता था । उसे वश करने के लिए किसी समय कृष्ण ने अपना दूत भेजा ॥20॥ दूत ने वहाँ जाकर और शीघ्र ही वापस आकर श्रीकृष्ण को उसके प्रतिकूल होने की खबर दी और साथ ही यह भी खबर दी कि उसके उत्तम लक्षणों से युक्त एक लक्ष्मणा नाम की कन्या है ॥ 21 ॥ तदनंतर हर्ष से युक्त श्रीकृष्ण बलदेव के साथ शीघ्र ही वहाँ गये । वहाँ जाकर उन्होंने स्नान करने के लिए समुद्र में आयी हुई दीर्घ लोचना लक्ष्मणा को देखा ॥22 ॥ तदनंतर अपने रूप से उसके चित्त को हरकर और महाशक्तिशाली द्रुमसेन नामक सेनापति को युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उस रूपवती लक्ष्मणा को हर लाये ॥23॥ द्वारिका में लाकर उसके साथ विधिपूर्वक विवाह किया और जांबवती के महल के समीप उसे महल दे रमण करने लगे ॥24॥ लक्ष्मणा का भाई महासेन कृष्ण के पास आकर नम्रीभूत हुआ और मानी कृष्ण के द्वारा सम्मान-पूर्वक विदा पाकर अपने सिंहलद्वीप को चला गया ॥25॥
उसी समय सुराष्ट्र देश में एक राष्ट्रवर्धन नाम का राजा था । अजाखुरी उसकी नगरी थी और विनया नाम की रानी थी जो समस्त स्त्रियों में उत्तम थी, ॥26॥ विनया नामक रानी से उसके नमुचि नाम का पुत्र हुआ था जो नीति और पराक्रम का भंडार था । इसी प्रकार एक सुसीमा नाम की पुत्री थी जो कि उत्तम सीमा से युक्त पृथिवी के समान जान पड़ती थी ॥27॥ युवराज नमुचि का पराक्रम समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध था । वह अभिमान का मानो बड़ा ऊंचा पर्वत था और माननीय राजाओं का निरंतर तिरस्कार करता रहता था ॥ 28 ॥ एक दिन युवराज नमुचि और उसकी बहन सुसीमा दोनों ही स्नान करने के लिए समुद्रतट पर आये । इधर हितकारी नारद ने श्रीकृष्ण के लिए उन दोनों की खबर दी ॥29॥ श्रीकृष्ण खबर पाते ही बलदेव के साथ वहाँ गये और प्रभास तीर्थ के तीर पर जिसकी सेना ठहरी हुई थी ऐसे उस नमुचि को मारकर तथा कन्या सुसीमा को हरकर, द्वारिका आ गये ॥30॥ वहाँ लक्ष्मणा के भवन के समीप सुवर्णमय उत्तम महल देकर उसके साथ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥31॥
तदनंतर सुसीमा के पिता राजा राष्ट्रवर्धन ने भी पुत्री के लिए उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण और श्रीकृष्ण के लिए रथ, हाथी आदि की भेंट भेजी ॥32॥
उसी समय सिंधु देश के वीतभय नामक नगर में इक्ष्वाकुवंश को बढ़ाने वाला मेरु नाम का राजा रहता था, उसकी चंद्रवती नाम की भार्या थी ॥33॥ उससे उसके एक गौरी नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी जो गौरवर्ण की थी, रूपवती गौर विद्या के समान थी अथवा ईतियों से रहित पृथिवी के समान जान पड़ती थी ॥34॥ निमित्त ज्ञानी ने बताया था कि यह नौवें नारायण श्रीकृष्ण की स्त्री होगी, इसलिए उसके वचनों का स्मरण रखने वाले राजा मेरु ने पहले तो श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा और उसके बाद मंगलोचना गौरी को भेजा ॥35 ॥ श्रीकृष्ण ने मन को हरने वाली गौरी को विवाहकर उसके लिए सुसीमा के भवन के समीप ऊँचा महल प्रदान किया ।꠰ 36॥
उसी समय बलदेव के मामा राजा हिरण्यनाभ अरिष्टपुर नगर में राज्य करते थे । उनकी श्रीकांता नाम की उत्तम स्त्री थी । उससे उनके पद्मावती नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी जो साक्षात् लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी । उसका स्वयंवर हो रहा है यह सुनकर अनावृष्टि के साथ-साथ बलदेव और कृष्ण भी वहाँ गये ॥37-38॥ आत्मीयजनों के साथ स्नेह बढ़ाने वाले इन दोनों को राजा हिरण्यनाभ ने बड़े गौरव और प्रेम के साथ देखा ॥39॥ हिरण्यनाभ का बड़ा भाई रेवत जो पिता के साथ पहले ही दीक्षित हो वन में रहने लगा था उसकी चार कन्याएँ 1 रेवती, 2 बंधुमती, 3 सीता और 4 राजीवनेत्रा बलदेव के लिए पहले ही दी जा चुकी ॥40-41॥ जब पद्मावती का स्वयंवर होने लगा तब युद्ध निपुण श्रीकृष्ण, उसे हठपूर्वक हर ले आये और रण में जिन्होंने शूरवीरता दिखायी उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर डाला ॥42॥ तदनंतर विवाह कर अपनी-अपनी स्त्रियों को साथ लिये दोनों भाई, भाइयों के साथ शीघ्र ही द्वारिका आये और देवों के समान क्रीड़ा करने लगे ॥43॥ हर्षित श्रीकृष्ण गौरी के महल के समीप पद्मावती के लिए महल देकर बहुत प्रसन्न हुए ॥44॥
उसी समय गांधार देश की पुष्कलावती नगरी में एक इंद्रगिरि नाम का राजा रहता था । उसकी मेरुसती नाम की स्त्री थी । उससे उसके हिमगिरि के समान स्थिर हिमगिरि नाम का पुत्र था और गांधारी नाम की सुंदरी पुत्री थी जो गंधर्व आदि कलाओं में अत्यंत निपुण थी ॥45-46 ॥ शीघ्रता से आये हुए नारद से श्रीकृष्ण को जब यह विदित हुआ कि गांधारी का भाई उसे हयपुरी के राजा सुमुख को दे रहा है तब वे शीघ्र ही जाकर रणांगण में प्रतिकूल हिमगिरि को मारकर गांधारी को हर लाये एवं उस सौम्यमुखी के साथ विवाह कर बहुत हर्षित हुए ॥47-48 ॥ उन्होंने पद्मावती के महल के समीप गांधारी के लिए उत्तम महल दिया और उस धैर्यशालिनी को उत्तम भोगों से सम्मानित किया ॥49॥ इस प्रकार जो वशीकृत आठ दिशाओं के समान उन आठ इष्ट पट्टरानियों से अंतःपुर में सदा सेवित रहते थे, जो पुण्यरूपी वृक्ष से उत्पन्न भोगरूपी विशाल फल का उपभोग करते थे, जन-समूह को आनंद प्रदान करते थे एवं प्रबल पराक्रम के धारक थे ऐसे श्रीकृष्ण समृद्धि को प्राप्त हुए ॥50-51 ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्म को धारण करने वाला भव्यजीव युद्ध में सामने खड़े शत्रुओं के समूह को क्षणमात्र में तृण के समान पराजित कर अनायास ही उत्तमोत्तम स्त्रीरूपी रत्नों को प्राप्त कर लेता है ॥ 52 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में जांबवती आदि महादेवियों के लाभ का वर्णन करने वाला चवालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥44॥