शब्द: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(11 intermediate revisions by 5 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
[[ | <ol> | ||
[[ | <li class="HindiText">[[ #1 | शब्द सामान्य का लक्षण]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2 | शब्द के भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3 | अभाषात्मक शब्दों के लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4 | शब्द में अनेकों धर्मों का निर्देश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5 | शब्द के संचार व श्रवण संबंधी नियम]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #6 | ढोल आदि के शब्द कथंचित् भाषात्मक हैं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #7 | शब्द पुद्गल की पर्याय है आकाश का गुण नहीं]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #8 | शब्द को जानने का प्रयोजन]]</li> | |||
</ol> | |||
[[Category:श]] | <ol> | ||
<li><strong class="HindiText" id="1">शब्द सामान्य का लक्षण </strong> | |||
<p> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/20/178-179/10 </span><span class="SanskritText">शब्दयत इति शब्द:। शब्दनं शब्द इति।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो शब्द रूप होता है वह शब्द है। और शब्दन शब्द है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/20/1/132/32 )</span>।</span></p> | |||
<p> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/1/485/10 </span>। <span class="SanskritText">शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्याययति, शप्यते येन, शपनमात्रं वा शब्द:।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो अर्थ को शपति अर्थात् कहता है, जिसके द्वारा अर्थ कहा जाता है या शपन मात्र है, वह शब्द है।</span></p> | |||
<p> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/247/7 </span><span class="SanskritText">यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षितं तदेंद्रियेण द्रव्यमेव संनिकृष्यते, न ततो व्यतिरिक्ता: स्पर्शादय: केचन संतीति एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं शब्दस्य युज्यत इति, शब्द्यत इति शब्द:। यदा तु पर्याय: प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्ते: औदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनं शब्द: शब्दनं शब्द इति।</span> | |||
<span class="HindiText">=जिस समय प्रधान रूप से द्रव्य विवक्षित होता है उस समय इंद्रियों के द्वारा द्रव्य का ही ग्रहण होता है। उससे भिन्न स्पर्शादिक कोई चीज नहीं है। इस विवक्षा में शब्द के कर्मसाधनपना बन जाता है जैसे शब्द्यते अर्थात् जो ध्वनि रूप हो वह शब्द है। तथा जिस समय प्रधान रूप से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद सिद्ध होता है अतएव उदासीन रूप से अवस्थित भाव का कथन किया जाने से शब्द भावसाधन भी है जैसे 'शब्दनं शब्द:' अर्थात् ध्वनि रूप क्रिया धर्म को शब्द कहते हैं।</span></p> | |||
<p> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/ प्र.प्र./79</span> <span class="SanskritText">बाह्यश्रवणेंद्रियावलंबितो भावेंद्रियपरिच्छेद्यो ध्वनि: शब्द:।</span> | |||
<span class="HindiText">=बाह्य श्रवणेंद्रिय द्वारा अवलंबित, भावेंद्रिय द्वारा जानने योग्य ऐसी जो ध्वनि वह शब्द है।</span></p> | |||
<ul class="HindiText"><li>वंदना के अतिचार-देखें [[ व्युत्सर्ग#1.11 | व्युत्सर्ग 1.11]]।</li></ul> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="2">शब्द के भेद </strong> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/24/294-295/12 </span><span class="SanskritText">शब्दो द्विविधो भाषालक्षणो विपरीतश्चेति।...अभाषात्मनो द्विविध: प्रायोगिकी वैस्रसिकश्चेति। प्रायोगिकश्चतुर्धा ततविततघनसौषिरभेदात् ।</span> | |||
<span class="HindiText">= भाषारूप शब्द और अभाषारूप शब्द इस प्रकार शब्दों के दो भेद हैं।...अभाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं-प्रायोगिक और वैस्रसिक।...तथा तत, वितत, घन और सौषिर के भेद से प्रायोगिक शब्द चार प्रकार है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/24/2-5/485/21 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/6 )</span>, <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/2 )</span>।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,26/221/6 </span><span class="SanskritText">छव्विहो तद-विदद-घण-सुसिर-घोस-भास भेएण।</span> | |||
<span class="HindiText">= वह छह प्रकार है-तत, वितत, घन, सुषिर, घोष और भाषा।</span></p> | |||
<ul class="HindiText"><li>भाषात्मक शब्द के भेद व लक्षण-देखें [[ भाषा ]]।</li></ul> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="3">अभाषात्मक शब्दों के लक्षण </strong> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/3 </span><span class="SanskritText">वैस्रसिको वलाहकादिप्रभव: तत्र चर्मतनननिमित्त: पुष्करभेरीदर्दुरादिप्रभवस्तत:। तंत्रीकृतवीणासुघोषादिसमुद्भवो वितत:। तालघंटालालानाद्यभिघातजो घन:। वंशशंखादिनिमित्त: सौषिर:।</span> | |||
<span class="HindiText">= मेघ आदि के निमित्त से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे वैस्रसिक शब्द हैं। चमड़े से मढ़े हुए पुष्कर, भेरी और दर्दुर से जो शब्द उत्पन्न होता है वह तत शब्द है। ताँत वाले वीणा और सुघोष आदि से जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितत है। ताल, घंटा और लालन आदि के ताड़न से जो शब्द उत्पन्न होता है वह घन शब्द है तथा बांसुरी और शंख आदि के फूँकने से जो शब्द उत्पन्न होता है वह सौषिर शब्द है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/24/4-5/485/27 )</span>।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,26/221/7 </span><span class="SanskritText">तत्थ तदो णाम वीणा-तिसरिआलावणि-वव्वीस-खुक्खुणादिजणिदो। वितदो णाम भेरी-मुदिंगपटहादिसमुब्भूदो। घणो णाम जयघंटादिघणदव्वाणं संघादुट्ठाविदो। सुसिरो णाम वंस-संख-काहलादिजणिदो। घोसो णाम घस्समाण-दव्वजणिदो।</span> | |||
<span class="HindiText">= वीणा, त्रिसरिक, आलापिनी, वव्वीसक और खुक्खुण आदि से उत्पन्न हुआ शब्द तत है। भेरी, मृदंग और पटह आदि से उत्पन्न हुआ शब्द वितत है। जय घंटा आदि ठोस द्रव्यो के अभिघात से उत्पन्न हुआ शब्द घन है। वंश, शंख और काहल आदि से उत्पन्न हुआ शब्द सौषिर है। घर्षण को प्राप्त हुए द्रव्य से उत्पन्न हुआ शब्द घोष है।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/9 </span><span class="SanskritText">ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकं। घनं तु कंसतालादि सुषिरं वंशादिकं विदु:। वैस्रसिकस्तु मेघादिप्रभव:।</span> | |||
<span class="HindiText">= वीणादि के शब्द को तत, ढोल आदि के शब्द को वितत, मंजीरे तथा ताल आदि के शब्द को घन और बंसी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं। स्वभाव के उत्पन्न होने वाला वैस्रसिक शब्द बादल आदि से होता है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/6 )</span>।</span></p> | |||
<ul class="HindiText"> | |||
<li>द्रव्य व भाव वचन-देखें [[ वचन ]]।</li> | |||
<li>क्रियावाची व गुणवाची आदि शब्द-देखें [[ नाम#3 | नाम - 3]]।</li> | |||
</ul> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="4">शब्द में अनेकों धर्मों का निर्देश </strong> | |||
<p><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/22/270/17 </span><span class="SanskritText">शब्देष्वपि उदात्तानुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवदघोषताल्पप्राणमहाप्राणतादय: तत्तदर्थप्रत्यायशक्त्यादयश्चावसेया:।</span> | |||
<span class="HindiText">= पदार्थों की तरह शब्दों में भी उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, विवृत, संवृत, घोष, अघोष, अल्पप्रमाण, महाप्राण आदि पदार्थों के ज्ञान कराने की शक्ति आदि अनंत धर्म पाये जाते हैं।</span></p> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="5">शब्द के संचार व श्रवण संबंधी नियम </strong> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,26/222/9 </span><span class="SanskritText">सह-पोग्गला सगुप्पतिपदेसादो उच्छलिय दसदिसासु गच्छमाणा उक्कस्सेण जाव लोगंतं ताव गच्छंति।...सव्वे ण गच्छंति, थोवा चेव गच्छंति। तं जहा-सद्दपज्जाएण परिणदपदेसे अणंता पोग्गला अवट्ठाणं कुणंति। विदियागासपदेसे तत्तो अणंतगुणहीणा। तिंदियागासपदेसे अणंतगुणहीणा। चउत्थागासपदेसे अणंतगुणहीणा। एवमणंतरोवणिधाए अणंतगुणहीणा। होदूण गच्छंति जाव सव्वदिसासु वादवलयपेरंतं पत्ताति। परदो किण्ण गच्छंति। धम्मात्थिकायाभावादो। ण च सव्वे सद्द-पोग्गला एगसमएण चेव लोगंतं गच्छंति त्ति णियमो, केसिं पि दोसमए आदिं कादूण जहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण लोगंतपत्ती होदि त्ति उवदेसादो। एवं समयं पडिं सद्दपज्जाएण परिणदपोग्गलाणं गमणावट्ठाणाणं परूवणा कायव्वा।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,26/ गाथा 3/224 </span><span class="SanskritGatha">भासागदसमसेडिं सद्दं जदि सुणदि मिस्सयं सुणदि। उस्सेडिं पुण सद्दं सुणेदि णियमा पराघादे।3।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,26/126/1 </span><span class="SanskritText">समसेडीए आगच्छमाणे सद्द-पोग्गले परवादेण अपरघादेण च सुणदि। तं जहा-जदि परघादो णत्थि तो कंडुज्जुवाए गइए कण्णछिद्दे पविट्ठे सद्द-पोग्गले सुणदि। पराघादे संते वि सुणेदि, दो समसेडीदो पराघादेण उस्सेडिं गंतूण पुणो परांघादेण समसेडीए कण्णछिद्दे पविट्ठाणं सद्दं-पोग्गलाणं सवणुवलंभादो। उस्सेडिं गदसद्द-पोग्गले पुण पराघादेणेव सुणेदि, अण्णहा तेसिं सवणाणुववत्तीदो।</span></p> | |||
<p> | |||
<span class="HindiText"> | |||
<strong id="5.1">संचार संबंधी </strong>- शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेश से उछलकर दसों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अंत भाग तक जाते हैं। ...सब नहीं जाते थोड़े ही जाते हैं। यथा - शब्द पर्याय से परिणत हुए प्रदेश में अनंतपुद्गल अवस्थित रहते हैं। (उससे लगे हुए) दूसरे आकाश प्रदेश में उनसे अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाश प्रदेश में उससे लगे हुए अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाश प्रदेश में उससे अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। इस तरह वे अनंतरोपनिधा की अपेक्षा वातवलय पर्यंत सब दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश के प्रति अनंतगुणे हीन होते हुए जाते हैं। <strong>प्रश्न</strong>- आगे क्यों नहीं जाते ? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong>- धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वातवलय के आगे नहीं जाते हैं। ये सब शब्द पुद्गल एक समय में ही लोक के अंत तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। किंतु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कम से कम दो समय से लेकर अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा लोक के अंत को प्राप्त होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में शब्द पर्याय से परिणत हुए पुद्गलों के गमन और अवस्थान का कथन करना चाहिए। | |||
</span> | |||
</p> | |||
<p> | |||
<span class="HindiText"> | |||
<strong id="5.2">श्रवण संबंधी </strong>- "भाषागत समश्रेणिरूप शब्द को यदि सुनता है तो मिश्र को ही सुनता है। और उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द को यदि सुनता है तो नियम से परघात के द्वारा सुनता है" ।3। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द पुद्गलों को परघात और अपरघात रूप से सुनता है। यथा - यदि परघात नहीं है तो बाण के समान ऋजुगति से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलों को सुनता है। पराघात होने पर भी सुनता है क्योंकि, समश्रेणि से पराघात द्वारा उच्छ्रेणि को प्राप्त होकर पुन: पराघात द्वारा समश्रेणि से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलों का श्रवण उपलब्ध होता है। उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द पुन: पराघात के द्वारा ही सुने जाते हैं अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है। | |||
</span> | |||
</p> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="6">ढोल आदि के शब्द कथंचित् भाषात्मक हैं </strong> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 14/5,6,83/61/12 </span><span class="SanskritText">कधं काहलादिसद्दाणं भासाववएसो। ण, भासो व्व भासे त्ति उवयारेण कालादिसद्दाणंपि तव्ववएससिद्धीदो।</span></p> | |||
<p class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>- नगारा आदि के शब्दों की भाषा संज्ञा कैसे है। (अर्थात् इन्हें भाषा वर्गणा से उत्पन्न क्यों कहते हो)?</p> | |||
<p class="HindiText"><strong>उत्तर</strong>- नहीं, क्योंकि, भाषा के समान होने से भाषा है इस प्रकार के उपचार से नगारा आदि के शब्दों की भी भाषा संज्ञा है।</p> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="7">शब्द पुद्गल की पर्याय है आकाश का गुण नहीं </strong> | |||
<p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/79 </span><span class="SanskritText">सद्दो स्कंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो। पुट्ठेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिगो णियदो।79।</span> | |||
<span class="HindiText">= शब्द स्कंधजंय है। स्कंध परमाणु दल का संघात है, और वे स्कंध स्पर्शित होने से-टकराने से शब्द उत्पन्न होता है; इस प्रकार वह (शब्द) नियत रूप से उत्पाद्य है।79। अर्थात् पुद्गल की पर्याय है। <span class="GRef">( प्रवचनसार/132 )</span>।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/5/18/12/468/4 </span><span class="SanskritText">शब्दो हि आकाशगुण: वाताभिघातबाह्यनिमित्तवशात् सर्वत्रोत्पद्यमान इंद्रियप्रत्यक्ष: अन्यद्रव्यासंभवी गुणिनमाकाशं सर्वगतं गमयति, गुणानामाधारपरतंत्रत्वादिति: तन्न: किं कारणम् । पौद्गलिकत्वात् । पुद्गलद्रव्यविकारो हि शब्द: नाकाशगुण:। तस्योपरिष्टात् युक्तिर्वक्ष्यते।</span><span class="HindiText"> = <strong>प्रश्न</strong>-शब्द आकाश का गुण है, वह वायु के अभिघात आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है, इंद्रियप्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अत: अपने आधारभूत गुणी आकाश का अनुमान कराता है ? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong>-ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है। शब्द पुद्गल द्रव्य का विकार है आकाश का गुण नहीं।(और भी | |||
देखें [[ मूर्त#6 | मूर्त - 6]])।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/132 </span><span class="SanskritText"> शब्दस्यापींद्रियग्राह्यत्वाद्गुणत्वं न खल्वाशंकनीयं। ...अनेकद्रव्यात्मकपुद्गलपर्यायत्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् ।...न तावदमूर्तद्रव्यगुण: शब्द:...अमूर्तद्रव्यस्यापि श्रवणेंद्रियविषयत्वापत्ते:। ...मूर्तद्रव्यगुणोऽपि न भवति। ...तत: कादाचित्कत्वोत्खातनित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुणत्वम् । ...न च पुद्गलपर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कंधस्येव स्पर्शनादींद्रियविषयत्वम् । अपां घ्राणेंद्रियाविषयत्वात् ।</span></p> | |||
<ol class="HindiText"> | |||
<li>ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि शब्द भी इंद्रिय ग्राह्य होने से गुण होगा; क्योंकि वह विचित्रता के द्वारा विश्वरूपत्व (अनेकानेक प्रकारत्व) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेक द्रव्यात्मक पुद्गल पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है।</li> | |||
<li>शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है क्योंकि, ...अमूर्त द्रव्य के भी श्रवणेंद्रिय की विषयभूतता आ जायेगी।</li> | |||
<li>शब्द मूर्त द्रव्य का गुण भी नहीं है...अनित्यत्व से नित्यत्व के उत्थापित होने से (अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है और नित्य नहीं है, इसलिए) शब्द गुण नहीं है।</li> | |||
<li>यदि शब्द पुद्गल की पर्याय हो तो वह पृथिवी स्कंध की भाँति स्पर्शनादिक इंद्रियों का विषय होना चाहिए अर्थात् जैसे पृथिवी स्कंधरूप पुद्गल पर्याय सर्व इंद्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गल पर्याय सभी इंद्रियों से ज्ञात होनी चाहिए (ऐसा तर्क किया जाये तो) ऐसा भी नहीं है क्योंकि पानी (पुद्गल की पर्याय है, फिर भी) घ्राणेंद्रिय का विषय नहीं है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/138/186/11 )</span>।</li> | |||
</ol> | |||
</li><li><strong class="HindiText" id="8">शब्द को जानने का प्रयोजन </strong> | |||
<p><span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/10 </span><span class="SanskritText">इदं सर्वं हेयतत्त्वमेतस्माद्भिन्नं शुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थ:।</span> | |||
<span class="HindiText">= यह सर्व तत्त्व हेय है। इससे भिन्न शुद्धात्म तत्त्व ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।</span></p> | |||
<ul class="HindiText"> | |||
<li>शब्द की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद-देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8]]।</li> | |||
<li>शब्द अल्प हैं और अर्थ अनंत हैं-देखें [[ आगम#4.5 | आगम 4.5]]।</li> | |||
</ul> | |||
</li> | |||
</ol> | |||
<noinclude> | |||
[[ शबर | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ शब्द अर्थ संबंध | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: श]] | |||
[[Category: करणानुयोग]] | |||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 22:35, 17 November 2023
- शब्द सामान्य का लक्षण
- शब्द के भेद
- अभाषात्मक शब्दों के लक्षण
- शब्द में अनेकों धर्मों का निर्देश
- शब्द के संचार व श्रवण संबंधी नियम
- ढोल आदि के शब्द कथंचित् भाषात्मक हैं
- शब्द पुद्गल की पर्याय है आकाश का गुण नहीं
- शब्द को जानने का प्रयोजन
- शब्द सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/20/178-179/10 शब्दयत इति शब्द:। शब्दनं शब्द इति। =जो शब्द रूप होता है वह शब्द है। और शब्दन शब्द है। ( राजवार्तिक/2/20/1/132/32 )।
राजवार्तिक/5/24/1/485/10 । शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्याययति, शप्यते येन, शपनमात्रं वा शब्द:। =जो अर्थ को शपति अर्थात् कहता है, जिसके द्वारा अर्थ कहा जाता है या शपन मात्र है, वह शब्द है।
धवला 1/1,1,33/247/7 यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षितं तदेंद्रियेण द्रव्यमेव संनिकृष्यते, न ततो व्यतिरिक्ता: स्पर्शादय: केचन संतीति एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं शब्दस्य युज्यत इति, शब्द्यत इति शब्द:। यदा तु पर्याय: प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्ते: औदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनं शब्द: शब्दनं शब्द इति। =जिस समय प्रधान रूप से द्रव्य विवक्षित होता है उस समय इंद्रियों के द्वारा द्रव्य का ही ग्रहण होता है। उससे भिन्न स्पर्शादिक कोई चीज नहीं है। इस विवक्षा में शब्द के कर्मसाधनपना बन जाता है जैसे शब्द्यते अर्थात् जो ध्वनि रूप हो वह शब्द है। तथा जिस समय प्रधान रूप से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद सिद्ध होता है अतएव उदासीन रूप से अवस्थित भाव का कथन किया जाने से शब्द भावसाधन भी है जैसे 'शब्दनं शब्द:' अर्थात् ध्वनि रूप क्रिया धर्म को शब्द कहते हैं।
पंचास्तिकाय/ प्र.प्र./79 बाह्यश्रवणेंद्रियावलंबितो भावेंद्रियपरिच्छेद्यो ध्वनि: शब्द:। =बाह्य श्रवणेंद्रिय द्वारा अवलंबित, भावेंद्रिय द्वारा जानने योग्य ऐसी जो ध्वनि वह शब्द है।
- वंदना के अतिचार-देखें व्युत्सर्ग 1.11।
- शब्द के भेद
सर्वार्थसिद्धि/5/24/294-295/12 शब्दो द्विविधो भाषालक्षणो विपरीतश्चेति।...अभाषात्मनो द्विविध: प्रायोगिकी वैस्रसिकश्चेति। प्रायोगिकश्चतुर्धा ततविततघनसौषिरभेदात् । = भाषारूप शब्द और अभाषारूप शब्द इस प्रकार शब्दों के दो भेद हैं।...अभाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं-प्रायोगिक और वैस्रसिक।...तथा तत, वितत, घन और सौषिर के भेद से प्रायोगिक शब्द चार प्रकार है। ( राजवार्तिक/5/24/2-5/485/21 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/6 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/2 )।
धवला 13/5,5,26/221/6 छव्विहो तद-विदद-घण-सुसिर-घोस-भास भेएण। = वह छह प्रकार है-तत, वितत, घन, सुषिर, घोष और भाषा।
- भाषात्मक शब्द के भेद व लक्षण-देखें भाषा ।
- अभाषात्मक शब्दों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/5/24/295/3 वैस्रसिको वलाहकादिप्रभव: तत्र चर्मतनननिमित्त: पुष्करभेरीदर्दुरादिप्रभवस्तत:। तंत्रीकृतवीणासुघोषादिसमुद्भवो वितत:। तालघंटालालानाद्यभिघातजो घन:। वंशशंखादिनिमित्त: सौषिर:। = मेघ आदि के निमित्त से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे वैस्रसिक शब्द हैं। चमड़े से मढ़े हुए पुष्कर, भेरी और दर्दुर से जो शब्द उत्पन्न होता है वह तत शब्द है। ताँत वाले वीणा और सुघोष आदि से जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितत है। ताल, घंटा और लालन आदि के ताड़न से जो शब्द उत्पन्न होता है वह घन शब्द है तथा बांसुरी और शंख आदि के फूँकने से जो शब्द उत्पन्न होता है वह सौषिर शब्द है। ( राजवार्तिक/5/24/4-5/485/27 )।
धवला 13/5,5,26/221/7 तत्थ तदो णाम वीणा-तिसरिआलावणि-वव्वीस-खुक्खुणादिजणिदो। वितदो णाम भेरी-मुदिंगपटहादिसमुब्भूदो। घणो णाम जयघंटादिघणदव्वाणं संघादुट्ठाविदो। सुसिरो णाम वंस-संख-काहलादिजणिदो। घोसो णाम घस्समाण-दव्वजणिदो। = वीणा, त्रिसरिक, आलापिनी, वव्वीसक और खुक्खुण आदि से उत्पन्न हुआ शब्द तत है। भेरी, मृदंग और पटह आदि से उत्पन्न हुआ शब्द वितत है। जय घंटा आदि ठोस द्रव्यो के अभिघात से उत्पन्न हुआ शब्द घन है। वंश, शंख और काहल आदि से उत्पन्न हुआ शब्द सौषिर है। घर्षण को प्राप्त हुए द्रव्य से उत्पन्न हुआ शब्द घोष है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/9 ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकं। घनं तु कंसतालादि सुषिरं वंशादिकं विदु:। वैस्रसिकस्तु मेघादिप्रभव:। = वीणादि के शब्द को तत, ढोल आदि के शब्द को वितत, मंजीरे तथा ताल आदि के शब्द को घन और बंसी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं। स्वभाव के उत्पन्न होने वाला वैस्रसिक शब्द बादल आदि से होता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/52/6 )।
- शब्द में अनेकों धर्मों का निर्देश
स्याद्वादमंजरी/22/270/17 शब्देष्वपि उदात्तानुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवदघोषताल्पप्राणमहाप्राणतादय: तत्तदर्थप्रत्यायशक्त्यादयश्चावसेया:। = पदार्थों की तरह शब्दों में भी उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, विवृत, संवृत, घोष, अघोष, अल्पप्रमाण, महाप्राण आदि पदार्थों के ज्ञान कराने की शक्ति आदि अनंत धर्म पाये जाते हैं।
- शब्द के संचार व श्रवण संबंधी नियम
धवला 13/5,5,26/222/9 सह-पोग्गला सगुप्पतिपदेसादो उच्छलिय दसदिसासु गच्छमाणा उक्कस्सेण जाव लोगंतं ताव गच्छंति।...सव्वे ण गच्छंति, थोवा चेव गच्छंति। तं जहा-सद्दपज्जाएण परिणदपदेसे अणंता पोग्गला अवट्ठाणं कुणंति। विदियागासपदेसे तत्तो अणंतगुणहीणा। तिंदियागासपदेसे अणंतगुणहीणा। चउत्थागासपदेसे अणंतगुणहीणा। एवमणंतरोवणिधाए अणंतगुणहीणा। होदूण गच्छंति जाव सव्वदिसासु वादवलयपेरंतं पत्ताति। परदो किण्ण गच्छंति। धम्मात्थिकायाभावादो। ण च सव्वे सद्द-पोग्गला एगसमएण चेव लोगंतं गच्छंति त्ति णियमो, केसिं पि दोसमए आदिं कादूण जहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण लोगंतपत्ती होदि त्ति उवदेसादो। एवं समयं पडिं सद्दपज्जाएण परिणदपोग्गलाणं गमणावट्ठाणाणं परूवणा कायव्वा।
धवला 13/5,5,26/ गाथा 3/224 भासागदसमसेडिं सद्दं जदि सुणदि मिस्सयं सुणदि। उस्सेडिं पुण सद्दं सुणेदि णियमा पराघादे।3।
धवला 13/5,5,26/126/1 समसेडीए आगच्छमाणे सद्द-पोग्गले परवादेण अपरघादेण च सुणदि। तं जहा-जदि परघादो णत्थि तो कंडुज्जुवाए गइए कण्णछिद्दे पविट्ठे सद्द-पोग्गले सुणदि। पराघादे संते वि सुणेदि, दो समसेडीदो पराघादेण उस्सेडिं गंतूण पुणो परांघादेण समसेडीए कण्णछिद्दे पविट्ठाणं सद्दं-पोग्गलाणं सवणुवलंभादो। उस्सेडिं गदसद्द-पोग्गले पुण पराघादेणेव सुणेदि, अण्णहा तेसिं सवणाणुववत्तीदो।
संचार संबंधी - शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेश से उछलकर दसों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अंत भाग तक जाते हैं। ...सब नहीं जाते थोड़े ही जाते हैं। यथा - शब्द पर्याय से परिणत हुए प्रदेश में अनंतपुद्गल अवस्थित रहते हैं। (उससे लगे हुए) दूसरे आकाश प्रदेश में उनसे अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाश प्रदेश में उससे लगे हुए अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाश प्रदेश में उससे अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। इस तरह वे अनंतरोपनिधा की अपेक्षा वातवलय पर्यंत सब दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश के प्रति अनंतगुणे हीन होते हुए जाते हैं। प्रश्न- आगे क्यों नहीं जाते ?
उत्तर- धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वातवलय के आगे नहीं जाते हैं। ये सब शब्द पुद्गल एक समय में ही लोक के अंत तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। किंतु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कम से कम दो समय से लेकर अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा लोक के अंत को प्राप्त होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में शब्द पर्याय से परिणत हुए पुद्गलों के गमन और अवस्थान का कथन करना चाहिए।श्रवण संबंधी - "भाषागत समश्रेणिरूप शब्द को यदि सुनता है तो मिश्र को ही सुनता है। और उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द को यदि सुनता है तो नियम से परघात के द्वारा सुनता है" ।3। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द पुद्गलों को परघात और अपरघात रूप से सुनता है। यथा - यदि परघात नहीं है तो बाण के समान ऋजुगति से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलों को सुनता है। पराघात होने पर भी सुनता है क्योंकि, समश्रेणि से पराघात द्वारा उच्छ्रेणि को प्राप्त होकर पुन: पराघात द्वारा समश्रेणि से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलों का श्रवण उपलब्ध होता है। उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द पुन: पराघात के द्वारा ही सुने जाते हैं अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है।
- ढोल आदि के शब्द कथंचित् भाषात्मक हैं
धवला 14/5,6,83/61/12 कधं काहलादिसद्दाणं भासाववएसो। ण, भासो व्व भासे त्ति उवयारेण कालादिसद्दाणंपि तव्ववएससिद्धीदो।
प्रश्न- नगारा आदि के शब्दों की भाषा संज्ञा कैसे है। (अर्थात् इन्हें भाषा वर्गणा से उत्पन्न क्यों कहते हो)?
उत्तर- नहीं, क्योंकि, भाषा के समान होने से भाषा है इस प्रकार के उपचार से नगारा आदि के शब्दों की भी भाषा संज्ञा है।
- शब्द पुद्गल की पर्याय है आकाश का गुण नहीं
पंचास्तिकाय/79 सद्दो स्कंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो। पुट्ठेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिगो णियदो।79। = शब्द स्कंधजंय है। स्कंध परमाणु दल का संघात है, और वे स्कंध स्पर्शित होने से-टकराने से शब्द उत्पन्न होता है; इस प्रकार वह (शब्द) नियत रूप से उत्पाद्य है।79। अर्थात् पुद्गल की पर्याय है। ( प्रवचनसार/132 )।
राजवार्तिक/5/18/12/468/4 शब्दो हि आकाशगुण: वाताभिघातबाह्यनिमित्तवशात् सर्वत्रोत्पद्यमान इंद्रियप्रत्यक्ष: अन्यद्रव्यासंभवी गुणिनमाकाशं सर्वगतं गमयति, गुणानामाधारपरतंत्रत्वादिति: तन्न: किं कारणम् । पौद्गलिकत्वात् । पुद्गलद्रव्यविकारो हि शब्द: नाकाशगुण:। तस्योपरिष्टात् युक्तिर्वक्ष्यते। = प्रश्न-शब्द आकाश का गुण है, वह वायु के अभिघात आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है, इंद्रियप्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अत: अपने आधारभूत गुणी आकाश का अनुमान कराता है ?
उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है। शब्द पुद्गल द्रव्य का विकार है आकाश का गुण नहीं।(और भी देखें मूर्त - 6)।प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/132 शब्दस्यापींद्रियग्राह्यत्वाद्गुणत्वं न खल्वाशंकनीयं। ...अनेकद्रव्यात्मकपुद्गलपर्यायत्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् ।...न तावदमूर्तद्रव्यगुण: शब्द:...अमूर्तद्रव्यस्यापि श्रवणेंद्रियविषयत्वापत्ते:। ...मूर्तद्रव्यगुणोऽपि न भवति। ...तत: कादाचित्कत्वोत्खातनित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुणत्वम् । ...न च पुद्गलपर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कंधस्येव स्पर्शनादींद्रियविषयत्वम् । अपां घ्राणेंद्रियाविषयत्वात् ।
- ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि शब्द भी इंद्रिय ग्राह्य होने से गुण होगा; क्योंकि वह विचित्रता के द्वारा विश्वरूपत्व (अनेकानेक प्रकारत्व) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेक द्रव्यात्मक पुद्गल पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है।
- शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है क्योंकि, ...अमूर्त द्रव्य के भी श्रवणेंद्रिय की विषयभूतता आ जायेगी।
- शब्द मूर्त द्रव्य का गुण भी नहीं है...अनित्यत्व से नित्यत्व के उत्थापित होने से (अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है और नित्य नहीं है, इसलिए) शब्द गुण नहीं है।
- यदि शब्द पुद्गल की पर्याय हो तो वह पृथिवी स्कंध की भाँति स्पर्शनादिक इंद्रियों का विषय होना चाहिए अर्थात् जैसे पृथिवी स्कंधरूप पुद्गल पर्याय सर्व इंद्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गल पर्याय सभी इंद्रियों से ज्ञात होनी चाहिए (ऐसा तर्क किया जाये तो) ऐसा भी नहीं है क्योंकि पानी (पुद्गल की पर्याय है, फिर भी) घ्राणेंद्रिय का विषय नहीं है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/138/186/11 )।
- शब्द को जानने का प्रयोजन
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/10 इदं सर्वं हेयतत्त्वमेतस्माद्भिन्नं शुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थ:। = यह सर्व तत्त्व हेय है। इससे भिन्न शुद्धात्म तत्त्व ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।
- शब्द की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद-देखें सप्तभंगी - 5.8।
- शब्द अल्प हैं और अर्थ अनंत हैं-देखें आगम 4.5।