प्रवचनसार - गाथा 167 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा । (167)
पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ॥179॥
अर्थ:
[द्विप्रदेशादय: स्कंधा:] द्विप्रदेशादिक (दो से लेकर अनन्तप्रदेश वाले) स्कंध [सूक्ष्मा: वा बादरा:] जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और [ससंस्थाना:] संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं वे [पृथिवीजलतेजोवायव:] पृथ्वी, जल, तेज और वायुरूप [स्वकपरिणामै: जायन्ते] अपने परिणामों से होते हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मन: पुद्गलपिण्डकर्तृत्वा-भावमवधारयति -
एवममी समुपजायमाना द्विप्रदेशादय: स्कन्धा विशिष्टावगाहनशक्तिवशादुपात्त-सौक्ष्म्यस्थौल्यविशेषा विशिष्टाकारधारणशक्तिवशाद्गृहीतविचित्रसंस्थाना: सन्तो यथास्वं स्पर्शादि-चतुष्कस्याविर्भावतिरोभावस्वशक्तिवशमासाद्य पृथिव्यप्तेजोवायव: स्वपरिणामैरेव जायन्ते । अतोऽवधार्यते द्वयणुकाद्यनन्तानन्तपुद्गलानां न पिण्डकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१६७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह उत्पन्न होनेवाले द्विप्रदेशादिक स्कंध—जिनने विशिष्ट अवगाहन की शक्ति के वश सूक्ष्मता और स्थूलतारूप भेद ग्रहण किये हैं और जिनने विशिष्ट आकार धारण करने की शक्ति के वश होकर विचित्र संस्थान ग्रहण किये हैं वे—अपनी योग्यतानुसार स्पर्शादिचतुष्क के आविर्भाव और तिरोभाव की स्वशक्ति के वश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायुरूप अपने परिणामों से ही होते हैं । इससे निश्चित होता है कि द्विअणुकादि अनन्तान्त पुद्गलों का पिण्डकर्ता आत्मा नहीं है ॥१६७॥