प्रवचनसार - गाथा 244 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । (244)
समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥279॥
अर्थ:
[यदि यः श्रमण:] यदि श्रमण [अर्थेषु] पदार्थों में [न मुह्यति] मोह नहीं करता, [न हि रज्यति] राग नहीं करता, [न एव द्वेषम् उपयाति] और न द्वेष को प्राप्त होता है [सः] तो वह [नियतं] नियम से [विविधानि कर्माणि] विविध कर्मों को [क्षपयति] खपाता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैकाग्र्यस्य मोक्षमार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति -
यस्तु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति, स न ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदनासाद्यच ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्ट: स्वयमेव ज्ञानीभूतस्तिष्ठन्न मुह्यति, न रज्यति, न द्वेष्टि:, तथाभूत: सन् मुच्यत एव, न तु बध्यते । अत ऐकाग्र्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं सिद्धय्येत् ॥२४४॥
इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् ॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब एकाग्रता वह मोक्षमार्ग है ऐसा (आचार्य महाराज) निश्चित करते हुए (मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन का) उपसंहार करते हैं :-
जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को भाता है वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता; और उसका आश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान से अभ्रष्ट ऐसा वह स्वयमेव ज्ञानीभूत रहता हुआ, मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा (अमोही, अरागी, अद्वेषी) वर्तता हुआ (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बँधता नहीं है ।
इससे एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है ॥२४४॥