प्रवचनसार - गाथा 253 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
वेज्जवच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । (253)
लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा ॥283॥
अर्थ:
[वा] और [ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम्] रोगी, गुरु (पूज्य, बड़े), बाल तथा वृद्ध श्रमणों की [वैयावृत्यनिमित्तं] सेवा के निमित्त से, [शुभोपयुता] शुभोपयोगयुक्त [लौकिकजनसंभाषा] लौकिक जनों के साथ की बातचीत [न निन्दिता] निन्दित नहीं है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
समधिगतशुद्धात्मवृत्तीनां ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानां वैयावृत्त्यनिमित्तमेव शुद्धात्मवृत्ति-शून्यजनसंभाषणं प्रसिद्धं, न पुनरन्यनिमित्तमपि ॥२५३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब लोगों के साथ बातचीत करने की प्रवृत्ति उसके निमित्त के विभाग सहित बतलाते हैं(अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण को लोगों के साथ बातचीत की प्रवृत्ति किस निमित्त से करना योग्य है और किस निमित्त से नहीं, सो कहते हैं ) :-
शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही (शुभोपयोगी श्रमण को) शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगों के साथ बातचीत प्रसिद्ध है (शास्त्रों में निषिद्ध नहीं है), किन्तु अन्य निमित्त से भी प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है ॥२५३॥