प्रवचनसार - गाथा 59 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
जादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । (59)
रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणिदं ॥61॥
अर्थ:
[स्वयं जात] अपने आप ही उत्पन्न [समंतं] समंत (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) [अनन्तार्थविस्तृतं] अनन्त पदार्थों में विस्तृत [विमलं] विमल [तु] और [अवग्रहादिभि: रहितं] अवग्रहादि से रहित- [ज्ञानं] ऐसा ज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं] ऐकान्तिक सुख है [इति भणित] ऐसा (सर्वज्ञ-देव ने) कहा है ॥५९॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथाभेदनयेन पञ्चविशेषणविशिष्टं केवलज्ञानमेव सुखमिति प्रतिपादयति --
जादं जातं उत्पन्नम् । किं कर्तृ । णाणं केवलज्ञानम् । कथं जातम् । सयं स्वयमेव । पुनरपि किंविशिष्टम् । समंतं परिपूर्णम् । पुनरपि किंरूपम् । अणंतत्थवित्थडं अनन्तार्थविस्तीर्णम् । पुनः कीदृशम् । विमलं संशयादिमल-रहितम् । पुनरपि कीदृक् । रहियं तु ओग्गहादिहिं अवग्रहादिरहितं चेति । एवं पञ्चविशेषणविशिष्टंयत्केवलज्ञानं सुहं ति एगंतियं भणिदं तत्सुखं भणितम् । कथंभूतम् । ऐकान्तिकं नियमेनेति । तथाहि --
परनिरपेक्षत्वेन चिदानन्दैकस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादानकारणं कृत्वा समुत्पद्यमानत्वात्स्वयं जायमानं सत्, सर्वशुद्धात्मप्रदेशाधारत्वेनोत्पन्नत्वात्समस्तं सर्वज्ञानाविभागपरिच्छेदपरिपूर्णं सत्, समस्तावरण-क्षयेनोत्पन्नत्वात्समस्तज्ञेयपदार्थग्राहकत्वेन विस्तीर्णं सत्, संशयविमोहविभ्रमरहितत्वेन सूक्ष्मादिपदार्थ-परिच्छित्तिविषयेऽत्यन्तविशदत्वाद्विमलं सत्, क्रमकरणव्यवधानजनितखेदाभावादवग्रहादिरहितं च सत्, यदेवं पञ्चविशेषणविशिष्टं क्षायिकज्ञानं तदनाकुलत्वलक्षणपरमानन्दैकरूपपारमार्थिकसुखात्संज्ञालक्षण-प्रयोजनादिभेदेऽपि निश्चयेनाभिन्नत्वात्पारमार्थिकसुखं भण्यते – इत्यभिप्राय: ॥५९॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब चार गाथाओं में निबद्ध मुख्यतया अतीन्द्रिय सुख का प्रतिपादक चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, अभेद नय से पाँच विशेषणों से विशिष्ट केवलज्ञान ही सुख है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
[जादं] - उत्पन्न है । कर्तारूप कौन उत्पन्न है - इस वाक्य में कर्ता कौन है ? [णाणं] - केवलज्ञान उत्पन्न है । वह कैसे उत्पन्न हैं? [सयं] - स्वयं ही वह उत्पन्न है? । वह केवलज्ञान और किस विशेषता वाला है? [समत्तं] – परिपूर्ण है । किस स्वरूपवाला है? [अणंतत्थवित्थडं] – वह अनन्त पदार्थों में विस्तृत है । वह और कैसा है? [रहियं तु ओग्गहादिहिं] - और वह अवग्रहादि से रहित है । वह और कैसा है? [विमलं] - संशयादि मल से रहित है । इसप्रकार पांच विशेषणों सहित जो केवलज्ञान है [सुहं ति एगंतियं भणियं] - वह सुख कहा गया है । वह सुख कहा गया है? वह नियम से (सर्वथा) सुख कहा गया है ।
वह इसप्रकार -
- पर-निरपेक्ष होने से ज्ञानानन्द एक-स्वभावी निज-शुद्धात्मा को उपादान-कारण करके (निज शुद्धात्मारूप उपादान-कारण से) उत्पन्न होने से स्वयं उत्पन्न होता हुआ,
- सम्पूर्ण शुद्धात्म-प्रदेशों के आधारत्व से उत्पन्न होने के कारण समस्त अर्थात् सर्वज्ञान के अविभागी परिच्छेदों (प्रतिच्छेदों) से परिपूर्ण होता हुआ,
- सम्पूर्ण आवरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को जाननेवाला होने से विस्तृत होता हुआ और
- संशय-विमोह-विभ्रम से रहित होने से सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थों के ज्ञान के विषय में अत्यंत विशद होने से विमल होता हुआ
- क्रम-करण की बाधा से उत्पन्न खेद का अभाव होने से अवग्रहादि रहित होता हुआ