प्रवचनसार - गाथा 63 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
मणुआसुरामरिंदा अहिद्दुदा इन्दिएहिं सहजेहिं । (63)
असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥65॥
अर्थ:
[मनुजासुरामरेन्द्रा:] मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती) असुरेन्द्र और सुरेन्द्र [सहजै: इन्द्रियै:] स्वाभाविक (परोक्ष-ज्ञानवालो को जो स्वाभाविक है ऐसी) इन्द्रियों से [अभिद्रुता:] पीड़ित वर्तते हुए [तद् दुःखं] उस दुःख को [असहमाना:] सहन न कर सकने से [रम्येषु विषयेषु] रम्य विषयों में [रमन्ते] रमण करते हैं ॥६३॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ परोक्षज्ञानिनामपारमार्थिकमिन्द्रियसुखं विचारयति -
अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसर्पतां तत्सामग्रीभूतेषु स्वरसत एवेन्द्रियेषु मैत्री प्रवर्तते । अथ तेषां तेषु मैत्रीमुपगतानामुदीर्णमहामोहकालानलकवलितानां तप्तायोगोलानामिवात्यन्तमुपात्ततृष्णानां तददु:खवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते । ततो व्याधिस्थानीयत्वादिन्द्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च न छद्मस्थानां पारमार्थिकं सौख्यम् ॥६३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, परोक्षज्ञानवालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं :-
प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव के कारण परोक्ष ज्ञान का आश्रय लेने वाले इन प्राणियों को उसकी (परोक्ष ज्ञान की) सामग्री रूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही (स्वभाव से ही) मैत्री प्रवर्तती है । अब इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को, उदय-प्राप्त महा-मोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है, इसलिये तप्त लोहे के गोले की भाँति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है; उस दुःख के वेग को सहन न कर सकने से उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान (रोग में थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार के समान) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है । इसलिये इन्द्रियाँ व्याधि समान होने से और विषय व्याधि के प्रतिकार समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है ॥६३॥