प्रवचनसार - गाथा 64 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । (64)
जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥66॥
अर्थ:
[येषां] जिन्हें [विषयेषु रति:] विषयों में रति है, [तेषां] उन्हें [दुःख] दुःख [स्वाभावं] स्वाभाविक [विजानीहि] जानो; [हि] क्योंकि [यदि] यदि [तद्] वह दुःख [स्वभावं न] स्वभाव न हो तो [विषयार्थं] विषयार्थ में [व्यापार:] व्यापार [न अस्ति] न हो ॥६४॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ यावदिन्द्रियाणां ताव-त्स्वभावादेव दु:खमेवं वितर्कयति -
येषां जीवदवस्थानि हतकानीन्द्रियाणि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दु:खम्, किंतु स्वाभावि-कमेव, विषयेषु रतेवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणुकुट्टनीगात्रस्पर्श इव, सफरस्य बडिशामिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदीपार्चीरूप इव, कुरङ्गस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुर्निवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्ननिपातेष्वपि विषयेष्वभि-पात: । यदि पुनर्न तेषां दु:खं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशांतशीतज्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रही-णदाहज्वरस्यारनालपरिषेक इव, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णमिव, विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढव्रणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्येत चासौ । तत: स्वभावभूतदु:खयोगिन एव जीवदिन्द्रिया: परोक्षज्ञानिन: ॥६४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है, ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं :-
जिनकी हत (निकृष्ट, निंद्य) इन्द्रियाँ जीवित (विद्यमान) हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाह्य संयोगों के कारण, औपाधिक) दुख नहीं है किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है । जैसे-
- हाथी हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की ओर,
- मछली बंसी में फँसे हुए मांस के स्वाद की ओर,
- भ्रमर बन्द हो जाने वाले कमल के गंध की ओर,
- पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर और
- हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं
- जिसका शीत-ज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिये उपचार करता तथा जिसका दाह-ज्वर उतर गया है वह काँजी से शरीर के ताप को उतारता तथा
- जिसकी आखों का दुख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आँजता तथा
- जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कान में फिर बकरे का मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और
- जिसका घाव भर जाता है वह फिर लेप करता दिखाई नहीं देता