प्रवचनसार - गाथा 67 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । (67)
तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥69॥
अर्थ:
[यदि] यदि [जनस्य दृष्टि:] प्राणी की दृष्टि [तिमिरहरा] तिमिर-नाशक हो तो [दीपेन नास्ति कर्तव्यं] दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है, अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता, [तथा] उसी प्रकार जहाँ [आत्मा] आत्मा [स्वयं] स्वयं [सौख्यं] सुख-रूप परिणमन करता है [तत्र] वहाँ [विषया:] विषय [किं कुर्वन्ति] क्या कर सकते हैं? ॥६७॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथात्मनः स्वयमेव सुखस्वभावत्वान्निश्चयेनयथा देहः सुखकारणं न भवति तथा विषया अपीति प्रतिपादयति --
जइ यदि दिट्ठी नक्तंचरजनस्य दृष्टिः तिमिरहरा अन्धकारहरा भवति जणस्स जनस्य दीवेण णत्थि कायव्वं दीपेन नास्ति कर्तव्यं । तस्य प्रदीपादीनां यथा प्रयोजनं नास्ति तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति तथा निर्विषयामूर्तसर्वप्रदेशाह्लादकसहजानन्दैकलक्षणसुखस्वभावो निश्चयेनात्मैव, तत्र मुक्तौ संसारे वाविषयाः किं कुर्वन्ति, न किमपीति भावः ॥६७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब इन्द्रिय-विषय भी सुख के कारण नहीं हैं - इस तथ्य की प्रतिपादक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का तीसरा भाग प्रारम्भ होता है ।)
अब आत्मा का, स्वयं ही सुख स्वभाव होने से, जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं है; ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
[जइ] यदि [दिट्ठी] निशाचर प्राणियों की दृष्टि [तिमिरहरा] अन्धकार को नष्ट करने वाली है, तो [जणस्स] प्राणी को [दीवेण णत्थि कायव्वं] दीपक से कोई कर्तव्य नहीं रहता । उसे जैसे दीपक से प्रयोजन ही नहीं है [तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति] उसी प्रकार निश्चय से आत्मा ही निर्विषय, अमूर्त, सर्व प्रदेशों से आह्लाद को उत्पन्न करने वाला सहजानन्द एक लक्षण सुख स्वभावी है, वहाँ मुक्त अथवा संसारी दशा में विषय क्या करते हैं? कुछ भी नहीं - यह भाव है ।