प्रवचनसार - गाथा 8 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:56, 23 April 2024
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं ।
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ॥8॥
अर्थ:
[द्रव्यं] द्रव्य जिस समय [येन] जिस भावरूप से [परिणमति] परिणमन करता है [तत्कालं] उस समय [तन्मयं] उस मय है [इति] ऐसा [प्रज्ञप्तं] (जिनेन्द्र देव ने) कहा है; [तस्मात्] इसलिये [धर्मपरिणत: आत्मा] धर्मपरिणत आत्मा को [धर्म: मन्तव्य:] धर्म समझना चाहिये ॥८॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मनश्चारित्रत्वं निश्चिनोति -
यत्खलु द्रव्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलौष्ण्यपरिणता-य:पिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवतीति सिद्धमात्मन-श्चारित्रत्वम् ॥८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब आत्मा की चारित्रता (अर्थात् आत्मा ही चारित्र है ऐसा) निश्चय करते हैं :-
वास्तव में जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूप से परिणमन करता है, वह द्रव्य उस समय उष्णता रूप से परिणमित लोहे के गोले की भाँति उस मय है, इसलिये यह आत्मा धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है । इसप्रकार आत्मा की चारित्रता सिद्ध हुई ॥८॥