नियमसार - गाथा 4: Difference between revisions
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Revision as of 13:53, 17 April 2020
णियमं मोक्खउवायोओ तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं।
एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होइ।।4।।
मोक्ष और मोक्षोपाय―मोक्ष नाम है ऐसे अपूर्व महान् आनन्द के लाभ का जो कि सहज स्वाधीन है और समस्त कर्मों के विध्वंस हो जाने के निमित्त से प्रकट हुआ है, ऐसे सहज परिपूर्ण आनन्द के लाभ का नाम है मोक्ष और महान् आनन्द की प्राप्ति का उपाय है निरतिचार रत्नय की परिणति। आत्मश्रद्धान्, आत्मज्ञान और आत्मरमण हैं महान आनन्द के प्राप्त करने का उपाय, इसी का ही नाम मोक्ष है, सर्वसंकटों से छुटकारा हो जाना और स्वाधीन सहज शाश्वत आनन्द का लाभ होना। ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन तीनों का अब जुदा-जुदा प्ररूपण करते हैं।
परमार्थत: वस्तु की एकरूपता―भैया ! यद्यपि किसी भी पदार्थ में उसका स्वरूप एक है और प्रतिसमय परिणमन एक है। उस वस्तु में न कोई गुणभेद है और न वस्तु में पर्याय का भेद है। एक समय में एक वस्तु का एक ही परिणमन होता है और वह जिस रूप है उस ही रूप है, पर व्यवहार में उसकी समझ करने के लिए पर्याय का भेद किया जाता है और पर्यायभेद के माध्यम से गुणभेद किया जाता है और इसी कारण किसी द्रव्य में जब कोई बात विलक्षण मालूम होती हो तो झट एक गुण और मान लेते हैं। जब गुणभेद किया जाता है तो कुछ भी विलक्षणता प्रतीत हुई कि उसकी ही आधारभूत शक्ति और मान लो।
चित्स्वभाव की त्रिशक्तिरूपता―यहाँ प्रयोजनभूत शक्ति को तीन भागों में बांटा है–ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और चारित्रशक्ति। चूँकि प्रत्येक जीव इन तीनों बातों में मिल रहा है। कुछ न कुछ वह ज्ञान करेगा और कहीं न कहीं उसका विश्वास होगा, और किसी न किसी जगह वह रमेगा। ये तीनों बातें प्रत्येक जीव में पायी जाती है, चाहे एकेन्द्रिय हो चाहे पंचइन्द्रिय हो, प्रत्येक जीव में ये तीन प्रकार की वृत्तियाँ पायी जाती हैं और कार्य भी तब होता है जब तीनों में भोग रहता है।
ज्ञान, श्रद्धान्, आचरण बिना कार्य न होने के कुछ उदाहरण―दुकान का काम क्या विश्वास, ज्ञान और आचरण के बिना हो सकता है ? नहीं हो सकता। दुकान के लायक ज्ञान होना चाहिए, विश्वास होना चाहिए और फिर उसको करने लगे तो दुकान का काम बनता है। किसी को कोई बड़ा संगीतज्ञ बनना है तो उसके चित्त में कोई एक बड़ा संगीत में जो निपुण हो उसका नाम रहता है, उसकी श्रद्धा है, इस तरह हम बन सकते हैं। अपने आपमें यह श्रद्धान है उसे कि हम संगीत सीख सकते हैं और फिर संगीत की विधियों का वह ज्ञान करे और फिर बाजा लेकर उस पर हाथ चलाने लगे तो अभ्यास करते-करते संगीतज्ञ हो सकता है। छोटा छोटा अथवा बड़ा काम कोई भी हो, श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र के बिना नहीं होता।
धर्मकार्य के लिये श्रद्धान ज्ञान आचरण का विश्लेषण―यह धर्म का भी काम, मोक्ष का काम, संकटों से छूटने का काम श्रद्धान ज्ञान और चारित्र बिना नहीं होता। इसका नाम है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। तो वस्तु एक है, आत्मा एक है और वह परिणम रहा है जो कुछ सो परिणम रहा है। अब उसकी समझ बनाने के लिए उसमें यह भेद किया जा रहा है कि यह तो ज्ञान है, यह दर्शन है और यह चारित्र है। तो उन दर्शन, ज्ञान, चारित्रों का लक्षण अब अगली गाथाओं में शुरू होगा। वस्तुत: मोक्ष का उपाय आत्मा की निर्दोषता होना है। अब उस परिणति को हम भेदकल्पना करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के रूप में जानते हैं, यह अनुकूल कल्पना है, वस्तुस्वरूप के अनुसार है, इसलिए यह वस्तु के स्वरूप तक पहुँचाने वाला कथन है। भेदकल्पना करके जो वर्णन किया जाय वहाँ भेदकल्पना में अटकने के लिए वर्णन नहीं है किन्तु वह तो एक संकेत है।
आत्मा की अभेदरूपता के परिचय का फल―वस्तुत: ये तीनों भिन्न नहीं हैं। ज्ञानस्वरूप आत्मा है, आत्मा को छोड़कर अन्य कुछ ज्ञान नहीं है। दर्शन भी आत्मा है, आत्मा को छोड़कर दर्शन अन्य कुछ नहीं है और चारित्र भी आत्मा है। ऐसे इस आत्मस्वरूप को जो जानता है और उसमें ही रमण करता है वह फिर जन्म नहीं लेता। इसको किन्हीं शब्दों से कह लो। माता के उदर में फिर नहीं पहुँचता, फिर माता का दुग्धपान नहीं करता अर्थात् जन्म नहीं लेता, निर्वाण को प्राप्त होता है। करके देखो तो बात मालूम होती है कि क्या शांति है ? क्या आनन्द है ? वह तो करे बिना अनुभव में नहीं आता है। और करना भी बड़ा सुगम है दृष्टि हो जाय तो। बाहर तो सब जगह आफत ही आफत है। किस पदार्थ में हित का विश्वास करें ? कौन शरण है, किसकी शरण गहे ?
जीवों के प्रति व्यापक उदारदृष्टि की प्राथमिकता―भैया ! जैसे जगत के सभी जीव भिन्न हैं, अपने स्वरूप को लिए हुए हैं इसी प्रकार गोष्ठी में और कुटुम्ब में जो दो चार जीव हैं वे भी मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं। वे अपने स्वरूप को लिए हुए हैं। कितना मोह का गहरा अंधकार है कि उनके पीछे अपने आपको बरबाद किए जा रहे हैं। उनका पालन पोषण करना यह खुद के हाथ की बात नहीं है। खैर करे कुटुम्ब के पोषण का काम व विकल्प, किन्तु उनके अतिरिक्त अन्य जीवों को कुछ भी न देखना, न उनमें कुछ दया आए, न उनके साथ न्यायवृत्ति रखे, यह तो महामोह है। भैया ! किसी जीव पर अन्याय तो न रखे, न पोषण कर सकें हम दूसरों का, कुटुम्ब को छोड़कर तो उस जातीयता के नाते कि ये भी जीव है उन पर अन्याय तो न करें, इतनी बुद्धि नहीं जगती, यह मोह का बड़ा अंधकार है।
अब उन तीन तत्त्वों में प्रथम सम्यक्त्व का वर्णन करते है।