नियमसार - गाथा 59: Difference between revisions
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Revision as of 13:53, 17 April 2020
दट्ठूण इच्छिरूवं वांछाभावं णिवत्तदे तासु।
मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरियवदं।।59।।
ब्रह्मचर्य में कर्तव्य—व्यवहारचारित्र के प्रकरण में पंचमहाव्रतों में से यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप है। स्त्रियों का रूप देखकर उनमें वाछा परिणाम का न करना अथवा मैथुनसंज्ञा रहित जो परिणाम हैं उसे ब्रह्मचर्यव्रत कहा है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले पुरुष को शील के नव बाड़ों की भी रक्षा करनी चाहिए। कामनीय स्त्रीजनों के मन हरने वाले अंगों का निरीक्षण भी न करना चाहिए। यद्यपि बाह्यपदार्थों के प्रसंग से विकार नहीं होते किन्तु स्वयं के परिणाम से विकार होते हैं, फिर भी विकारपरिणामों के साधनभूत बाह्यपदार्थ हैं। इस कारण चरणानुयोग की पद्धति से बाह्यपदार्थों का प्रसंग भी दूर करना चाहिए।
सुन्दरता का मूल—एक पौराणिक घटना है, एक नगर का राजपुत्र शहर में भ्रमण कर रहा था। उसे किसी सेठ के घर पर एक वधू दिखी, वह रूपवती थी। राजपुत्र के मन में कामवासना जागृत हुई। अब वह न खाये, न पिये, उसही बेवकूफी की धुन में राजपुत्र कष्ट सहने लगा। किसी दासी ने पूछा कि आखिर ऐसा कौनसा कठिन काम है जिस पर तुम इतने उदास हो? कारण पूछा तो राजपुत्र ने बता भी दिया। दासी बोली कि हम इस कार्य की पूर्ति करेंगी। वह सेठ के घर पहुंची। उस वधू से बात कही। वधू सुशील थी। उसने निषेध किया। दासी ने कहा—अच्छा एक बार इस राजपुत्र से वार्ता तो कर लो। ठीक है, कहकर वधू ने समय दिया। वधू ने राजपुत्र से कहा कि तुम 15 दिन बाद हमारे मकान पर पधारना। 15 दिन में उस वधू ने क्या किया कि दस्तों की दवा ली जिससे खूब दस्त लगे। और दस्त एक मिट्टी के मटके में किया करे। 10 दिन में ही वह घड़ा मल से भर गया और उस घड़े के ऊपर रंग-बिरंगे चमकीले कागज आदिक लगाकर उसे बहुत सुहावना बना दिया, अब 15 वें दिन वह राजपुत्र आया तो उसे देखा तो बिल्कुल दुबली पतली, हड्डी निकली और सूरत भी बिगड़ी थी। राजपुत्र देखकर बड़े आश्चर्य में पड़ा। खैर, वह वधू कहती है कि इस शरीर से इन हड्डियों से प्रीति हो तो इन हड्डियों को निरख लो और मेरी सुन्दरता पर तुम मोहितहो तो चलो हमने अपनी सुन्दरता जहां रख दी है, दिखायें। वह ले गयी अपनी सुन्दरता का मूल दिखाने। कहा उस मटके को खोलो—उसके अन्दर सारी सुन्दरता भरी रक्खी है, उस सुन्दरता से तुम प्यार कर लो। जो उसने खोला कि सारा कमरा दुर्गन्ध से भर गया।
संसारी सुभट का पराक्रम—भैया ! क्या है इस शरीर के अन्दर। परन्तु रागभाव का उदय होता है तो कुरूप भी, बदशकल भी इसे सुहावना लगने लगता है। ज्ञान विवेक यदि बना हुआ हे तो ऊचे से ऊचे रूप में भी उसे सब असार ही नजर आता है। क्या है, भीतर से बाहर तक सर्वत्र अपवित्र-अपवित्र ही पदार्थ है। विधि ने तो यह मनुष्य शरीर मानों अपवित्र इसीलिए बनाया था कि यह जीव, यह मनुष्य ऐसे असार शरीर को देखकर ज्ञान और वैराग्य में बढ़ जायेगा, किन्तु देखो इस संसारी सुभट का पराक्रम यह व्यामोही मिथ्यादृष्टि जीव ऐसे अपवित्र शरीर में भी पवित्रता और हितकारिता का अनुभव बनाये जा रहा है।
ब्रह्मचारी की शुचिता व व्यभिचारी की अशुचिता—ब्रह्मचर्य के समान और व्रत क्या है? ब्रह्मचारी पुरुष को सदा पवित्र माना गया है। व्यभिचारी जीव मल-मल कर भी खूब साबुन से नहायें तो भी वे पवित्र नहीं कहे जा सकते। हाँ श्रावकजनों के स्वदार संतोषव्रत होता है। श्रावकजन केवल अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतुष्ट रहते हैं और वहाँ भी कामवासना अधिक नहीं रखते। वह कुछ भला है किन्तु पूर्ण पवित्रता पूर्ण ब्रह्मचर्य में है। वेश्यागामी पुरुष को, परस्त्रीगामी पुरुष को सदा सूतक बताया गया है। जैसे धर्ममार्ग में सूतक पातक लगता है जन्म के 10 दिन तक अर्थात् बच्चा जिसके घर में पैदा होता है वह 10 दिन तक भगवान् का अभिषेक न करे, अष्टद्रव्यों से पूजन न करे आदिक कुछ रुकावटें की जाती हैं। साधु को पात्र में आहार दान न दें। ऐसे ही मरणकाल में 12 दिन का पातक लगा करता है और बारहवें दिन के बाद तेरहवें दिन वह शुद्ध हो जाता है। यह तेरहवां दिन साधु को आहार कराने का है जिसे लोग कहते हैं तेरहवीं। वह तेरहवीं तो साधुवों का हक है, पर साधुवों का हक छुड़ाकर पंचों ने अपना हक कर लिया। 12 तक पात्र दान नहीं कर सकता, तेरहवेंदिन पात्रदान करेगा। तो जन्म और मरण में 10-12 दिन के ही सूतक पातक होते हैं किन्तु जो व्यभिचारी है, परस्त्रीगामी है अथवा परपुरुषगामिनी स्त्री है, या वेश्यागामी पुरुष है या स्वयं वेश्या है, इनको तो जिन्दगी भर का सूतक पातक है। उनको अधिकार नहीं दिया गया कि वे अभिषेक करें।
गृहस्थों का कर्तव्य स्वदारसंतोष व्रत व अधिकाधिक पूर्ण ब्रह्मचर्य—गृहस्थजनों के स्वदार संतोष व्रत तो नियम से होना चाहिए। स्वस्त्री के सिवाय अन्य किसी स्त्री के प्रति खोटा परिणाम भी न रखना, काम सम्बन्धी यह व्रत तो प्रत्येक गृहस्थ के होना ही चाहिए। न हो यदि यह व्रत तो उससे केवल एक ही नुकसान नहीं है, सारे नुकसान हैं। प्रथम तो उसका चित्त अस्थिर रहेगा क्योंकि परस्त्री दूसरे के अधिकार की स्त्री है उससे छिपकर चोरी-चोरी कहीं अवसर बनाकर कितनी विडम्बनाएं करेगा, उसका चित्त स्थिर नहीं रह सकता। फिर दूसरे कामवासना की अधिकता का बंध है। फिर पिटाई भी लगे, जेल भी जाय, कहो जान भी चली जाय। दूसरे पुरुष को मालूम होने पर वह गम न खायेगा। वह तो जान लेने की सोचेगा। ये सारे नुकसान है और धर्मधारण करने का तो पात्र ही नहीं हो सकता, इसलिए स्वदार संतोषव्रत तो श्रावक के होता ही है, परन्तु स्वदारा में भी ब्रह्मचर्य का घात बहुत कम करे, अधिकाधिक ब्रह्मचर्य का पालन करे। अब इस भादों में सोलह कारण व्रत आयेंगे, ऐसे व्रतों में ब्रह्मचर्य का पालन करें। यह चातुर्मास सम्बन्धी वातावरण भी धर्मपालन के लिए बना है। तो भाद्र मास भर तो पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नियम से होना चाहिए।
ब्रह्मचर्य का प्रभाव—भैया ! ब्रह्मचर्य में अनेक गुण हैं—बुद्धि व्यवस्थित रहे, सदा निर्भयता रहे, आत्मसाधन का पात्र हो सके। पंचेन्द्रिय के विषयों में यद्यपि रसना का विषय, घ्राण का विषय, नेत्र का विषय और कर्ण का विषय ये भी विषय ही हैं, किन्तु इन विषयों को अलग से कहा, पाप में नहीं दिखाया और एक स्पर्शन इन्द्रिय का विषय जो कामसेवन है उस कामसेवन को क्यों दिखाया? इसका कारण यह है कि अन्य विषयों के प्रसंग में भी कदाचित् गुणी पुरुषों को होश रह सकता है, विवेक रह सकता है किन्तु कामसेवन के प्रसंग में विवेक का रहना बहुत कठिन है। इस कारण इस कुशील को अलग से पाप में गिनाया गया हैं। ‘जहां सुमति तहं सम्पति नाना; जहां कुमति तहं विपति निधाना।’ सुमति हमारी बन सके, उसका मूल उपाय तो ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य के घात में हानि की सूचना—किसी कवि ने लिखा है—कोई उपदेश दे रहा था कि ब्रह्मचर्य का पालन करो। किसी ने पूछा महाराज हम ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन न कर सकें तो? अच्छा वर्ष में दो चार दिन छोड़कर बाकी समय तो ब्रह्मचर्य का पालन करो। कोई दूसरा पूछने लगा। इतना भी हम नहीं कर सकते तो? अच्छा एक माह में दो तीन दिन छोड़कर बाकी सब दिन तो ब्रह्मचर्य से रहो और इतना भी न कर सकें तो 10-5 दिन और बढ़ा लो। और इतना भी न कर सकें तो? भाई ऐसा करो कि पहिले बाजार से जाकर कफन खरीदकर ले आवो, अपने घर में धर लो और फिर जो मन में आए सो करो।
ब्रह्मचर्य तप के अभाव में बरबादी—ब्रह्मचर्य के समान तप क्या होगा? वह पुरुष धर्मात्मावों का प्यारा है, भगवान् का भक्त है, मोक्षमार्ग का पथिक है जो ब्रह्मचर्य व्रत का बहुत आदर करता है। देखो और विषयों के सेवन में बल वीर्य नहीं घटता, आत्मबल तो वहाँ भी घटता है किन्तु कुशील सेवन में शक्ति भी घटे और अनेक विपत्तियां भी आयें। चलो भोजन किया बढ़िया रसीला खाया, रस खाया, शरीर पुष्ट होगा, थोड़ा मान लो, पर कुशीलसेवन से लाभ कौनसा मिला? शरीरबल भी घटा, और दो चार मिनट के कामसेवन के ध्यान में रहकर दो चार घंटे भी बरबाद किये, दिमाग बिगड़ गया, कर्म बंध भी विकट हो गया, सारे नुकसान ही है। फिर भी यह व्यामोही जीव अपनी बरबादी को नहीं देखता है और मूढ़ता के ही कार्य करता है। ब्रह्मचर्य को परम तप बताया गया है। और तप ही क्या, जितने भी गुण हैं, तप, आत्मतेज, धन, बल सब कुछ इस ब्रह्मचर्य पर आधारित हैं। मनुष्य को सत्संग का बड़ा ध्यान रखना चाहिए। कभी ऐसी खोटी गोष्ठी में न रहें जिस गोष्ठी में रहकर इसका ध्यान बिगड़े, खोटी बातों की ओर चित्त जाय।
खोटी गोष्ठी का असर—पूर्व काल में एक चारुदत्त सेठ हो गये हैं, वे बड़े नम्र विनयी धर्मात्मा थे। चारुदत्त जब कुमार थे, छोटी उम्र के थे, किशोर अवस्था के थे तब शादी हो गयी, परन्तु स्त्री के साथ रहें ही नहीं। कुछ जानते भी न थे, इतना प्राकृतिक सुशील थे। लोग बड़े हैरान हुए कि इस चारुदत्त को काम की वासना कैसे जगे, इनमें काम की प्रकृति कैसे आये? बहुत उपाय किया घर में, पर कुछ सफलता न मिली। तो सलाह करके चारुदत्त के चाचा ने ऐसा सोचा कि इसे वेश्यावों की गली में से ले जाया जाये, और सामने से एक दुष्ट मदोन्मत्त हाथी को छोड़ा जाय तो उस विपत्ति के प्रसंग में इसे वेश्या के घर ले चलेंगे। वेश्याएं तो बड़ी नटखट होती हैं, इसे वश कर लेंगी। ऐसा ही किया। एक सकरी गली में चारुदत्त को ले गए और सामने से एक हाथी छुड़वा दिया। चारुदत्त और चाचा दोनों वेश्या के घर पहुंचे। चाचा को कोई प्रयोजन न था, चारुदत्त को मात्र फंसाने का भाव था। वेश्या जुवा की चीज सामने रखकर कहने लगी, चाचा जी खेलिये ना, चाचा जी चौपड़ खेलने लगे। चारुदत्त बैठ गया। उसने भी सीख लिया, चारुदत्त से कहा कि तुम भी कोई गोट फैंको, लगावो अपने दाव में, तो थोड़ा उसे भी खिलवाया। इतने में चाचा तो कोई बहाना करके थोड़ी देर को घर से निकल गये और यहाँ चारुदत्त की बुद्धि खराब हो गयी ! उस वेश्या की लड़की ने उसे प्रेमालाप किया और ऐसा संकल्प किया कि हम तुम्हारे सिवाय अन्य किसी पुरुष के साथ प्रीति न रक्खेंगी। इस तरह से वह फंस गया। घर आता रहा और जाता रहा। और जितना भी घर में धन था सब चारुदत्त ने बरबाद कर दिया। फिर अंत में उनका सुधार हुआ, त्याग हुआ, सब कुछ हुआ, पर देखो तो सही कि जिसको कुछ भान भी न था, जानता भी न था, बड़ा सुशील पुरुष था, वह भी खोटी संगति में आकर अपने पद से च्युत हो गया।
शीलभाव की निर्मलता—महाराज सुनाया करते थे कि एक गरीबिनी के 2 लड़के बनारस में पढ़ रहे थे। बोर्डिंग हाउस में रहते थे मुफ्त ही पढ़ते थे। वे गरीब थे, वे दोनों एक ही बिस्तर में सोते थे। एक ही साथ पढ़ते थे। बड़े बुद्धिमान् थे। तो कई वर्षों तक खूब पढ़ा। बाद में बड़े लड़के की शादी हो गयी, घर रहे, पर कुछ जाने नहीं खोटी बात को। तो बहू ने ननद को कहा, ननद ने मां को कहा, मां ने कहा कि बेटा तुम्हें उसी कमरे में रहना चाहिए। क्यों मां? अरे बेटा वहाँ रहा ही जाता है। एकांत कमरे में ही रहना चाहिए और एक ही संग सोना चाहिए। उससे क्या होता है? अरे उससे संतान होती हैं, कुल चलता है, तो लड़का बोलता है कि मां तू बड़ी झूठी है। अरे एक साथ सोने से बच्चे हों तो 5-7 वर्ष हम दोनों भाई बनारस में एक साथ सोये तो अभी तक बच्चे क्यों न हुए? तो देखो वह बालक कितनी निर्मलता से भरा हुआ था। सिखाते-सिखाते भी खोटी बात न आने पाये, ऐसे पुरुष भी हुआ करते हैं।
ब्रह्मचर्य की पवित्रता से नरजन्म की सफलता—ब्रह्मचर्य से बढ़कर और पवित्रता किसे मानते हो? साधुजन ब्रह्मचर्य की मूर्ति हैं और इसी कारण वे स्नान भी नहीं करते तो भी उनका शरीर पवित्र माना जाता है और पूजा जाता है। जीवन में एक इस ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन करो। इससे नर-जन्म की सफलता पायेंगे। नहीं तो यह समय गुजर जायेगा, मरणकाल निकट आ जायेगा। गुजर गए, किन्तु ब्रह्मचर्य की साधना न कर सके, उस मलिनता के परिणाम में वश कर जीवन खो दिया तो क्या लाभ पाया? जिनकी आयु अधिक है, जो 40, 50 वर्ष के हो गए, ऐसे गृहस्थजनों को तो मय स्त्री के आजन्म व्रत ले ही लेना चाहिए। कौनसी कठिनाई है, उससे लाभ अनेक हैं, और जो युवकजन हैं उनको भी पर्वों के दिनों में अष्टमी, चतुर्दशी, दशलाक्षणी, अष्टाह्निका, तीनों में ऐसे पर्वों में ब्रह्मचर्य का नियम रखना और साथ ही महीना में तीन, चार दिन की छूट रखकर बाकी सब दिनों में ब्रह्मचर्य व्रत रखना चाहिए और गर्भ धारण के बाद जब तक बालक दो वर्ष का न हो जायें, 1।। वर्ष का न हो जावे तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। अपने कर्तव्य से चूके तो वहाँ केवल अपना ही अनर्थ नहीं किया गया, दूसरे का भी अनर्थ किया । फिर कामसेवन में तत्त्व क्या निकला? क्या मिल गया? धनी बन गये अथवा शरीरबल बढ़ गया? बल्कि उनका भी नुकसान, शरीरबल का भी नुकसान और आंतरिक ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मदेव से भी हाथ धोया। सारे नुकसान ही होते हैं।
दीनवृत्ति—इस कल्पित विषयसुख के सम्बन्ध में क्षत्रचूड़ामणि में यह लिखा है कि इस विष्टा, मल, मूत्र आदिक से वेष्टित इस चर्म के साथ यह बराक दीन प्राणी कामसेवन करता हुआ, अपने को सुखी मानता हुआ गड्ढे में, बरबादी में गिरा रहा है, इसकी इसे खबर भी नहीं है। कामनियों में किसी प्रकार का कौतूहल न करे हसी मजाक भरी बात न बोले, चित्त में उनकी वाछा न रखे और ब्रह्मचर्य का पालन करे।
गृहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत में ही भला गुजरा—भैया !एक बात और जानियेगा कि जो स्त्री अच्छी है, कुलीन है, रूपवती है, वह स्त्री तो किसी परपुरुष को चाहती भी नहीं है। जो चाहने वाली होगी परपुरुष को, वह अनेक अवगुणों से भरी हुई होगी। रूप भी उत्तम नहीं होता है कुशील स्त्री का भाव परिणाम भी ऊचा नहीं होता। आकर्षण हुआ करता है तो गुणों के साथ हुआ करता है। कोई बालक काला भी हो, थोड़ा गन्दा भी रहता हो, किन्तु विनयशील हो, क्षमावान् हो, आपकी सेवा करे तो आपको वह बालक कितना प्रिय लगता है और कोई बालक रूप का बड़ा सुन्दर हो तो उस रूप को खाना थोड़े ही है; जबकि वह गाली बोलता है, छल कपट करता है और आपका नुकसान किया करता है, गुस्सा भी हो जाता है तो ऐसा बालक आपको सुहायेगा क्या? नहीं सुहायेगा। तो गुणों के साथ लौकिक बातों का भी आकर्षण चलता है। जिसमें गुण होंगे, उसके साथ तो कामवासना का सम्बन्ध बन ही नहीं सकता। परस्त्री या परपुरुष की बात कह रहे हैं कि जिससे कामवासना का सम्बन्ध बन जाये वह अवगुणों से भरा हुआ होगा, वह आकर्षण के योग्य नहीं है। इसलिए एक यह निर्णय रखना कि गृहस्थजन स्वदारसंतोष व्रत का पालन करें और जिनके स्त्री नहीं है, वे गृहस्थजन पूर्ण ब्रह्मचर्य का अन्तरङ्ग से पालन करें।
ब्रह्मचर्य परमदेवता—यह ब्रह्मचर्य व्रत उत्तमता से वहाँ होता है कि पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद नाम की जो कषायें हैं, उनके तीव्र उदय में जो मैथुन संज्ञा के परिणाम होते हैं, उनका त्याग जहां रहे। पवित्र परिणाम जहां रहता है, वहां काम का भाव ही न रहे तो ऐसे सन्त पुरुषों में ब्रह्मचर्य व्रत होता है। इस ब्रह्मचर्य व्रत की पूजा करें, इसका आदर करें। जैसे कि अहिंसाव्रत हमारे आदर के योग्य है ऐसे ही ब्रह्मचर्यव्रत हमारे आदर करने के योग्य है। अहिंसा को देवता का रूप कहा है, अहिंसा को ब्रह्म कहा है। अहिंसा नाम में तो ब्रह्म लगाना पड़ा, पर ब्रह्मचर्य में तो ब्रह्म शब्द पहिले से ही लगा हुआ है। अत: ब्रह्मचर्य परमब्रह्म है।
परमार्थ आचरण—भैया !ऐसी वृत्ति रखो कि तुम्हारे व्यवहार को देखकर दूसरे जन भी ब्रह्मचर्य व्रत में उत्साही हों। शुद्ध मन से अपने ज्ञानस्वरूप ब्रह्म का आदर करें और यह मन में परिणाम रक्खें कि मुझे तो इस निज ज्ञानस्वरूपब्रह्म में रमना है। यही है परमार्थ उत्तम ब्रह्मचर्य। जहां मेरा यह काम पड़ा हुआ है कि मुझे अपने आत्मा के स्वरूप में लीन होना है, ऐसा काम का उद्देश्य करें, वहाँ किसी परपुरुष या परस्त्री का रूप देखने का मन में खोटा परिणाम न करें। ब्रह्मचर्य से सब कुछ लाभ होगा, सो अधिकाधिक ब्रह्मचर्य का पालन करें, इसमें ही हित है।
शुद्ध आशय बिना वचनों से क्या लाभ?—जैसे यश, नाम, कीर्ति की चाह न रखनी चाहिये—ऐसे ही उपदेश करके कोई यश और नाम की चाह का ही उद्देश्य बनाये और लोग कहें कि वाह, कितना वैराग्यपूर्ण उपदेश इसने कहा है? ऐसे यश की चाह की मन में भावना रहे और उस भावना से ही प्रेरित होकर दुनिया को यश न चाहना चाहिए, यश बुरी चीज है आदिक। इस प्रकार के उपदेश करे तो उसका उपदेश उसके लिये कोई लाभ देने वाला नहीं है। इस ही प्रकार कामनियों की शरीर विभूति को, वैराग्य दिलाने वाली बात को सुने और सुनते हुए स्त्रियों के शरीर वैभव का ही स्मरण रखे अथवा ब्रह्मचर्य की चर्चा में और देहरूप से वैराग्य होने की चर्चा करते हुए में स्त्रियों के मनोहर अंगों का स्मरण किया करे तो उस चर्चा से और श्रवण से लाभ क्या हुआ? अरे ! लाभ तो कुछ भी नहीं हुआ।
वास्तविक लाभ की दृष्टि—हे मुमुक्षु आत्मन् ! तू एक शाश्वत् अनादि अनन्त नित्य प्रकाशमात्र इस कारण सहजपरमात्मतत्त्व की उपासना छोड़कर अत्यन्त असार क्षणिक सुख के लिये जो कि कल्पितमात्र है, इस क्षणिक मायास्वरूप देह के क्यों व्यामोह को प्राप्त होता है? वास्तविक लाभ वहाँ होता है, जहां अन्तरङ्ग से सर्वथा पूर्ण दृढ़तापूर्वक कामवासना का परित्याग करे और एक निजज्ञायकस्वरूप दर्शन की धुनि बनाये, वही वास्तविक योगी है, वही परमहस है। जैसे लोक में कहते हैं कि परमहस संन्यासी बाह्य बातों से बेखबर रहते हैं। कोई जबरदस्ती खिलावे तो खाये। कहां पड़े हैं, क्या हो रहा है? कुछ सुधि नहीं है। वह अपने ब्रह्मस्वरूप के अवलोकन में ही लीन रहा करते हैं। ऐसी उत्कृष्ट अवस्था जहां है, निज शुद्ध ज्ञायक स्वरूप के ही अनुभव में चित्त रमा करे, ज्ञान बसा करे—ऐसे योगी संत ही परमार्थ ब्रह्मचर्य की मूर्ति हैं।
दृढ़ सत्संकल्प—भैया ! दृढ़ता के साथ संकल्प करें कि कामवासना सम्बन्धी बातें, दुर्भाव सम्बन्धी बातें अपने में न आने दें—ऐसी दृढ़ साधना के साथ ब्रह्मचर्यव्रत का पालन साधु-संत-महन्तों के होता है। सर्व व्रत तप साधनाओं का मूल यह ब्रह्मचर्यव्रत है। कल्पना करो कि कोई पुरुष ब्रह्मचर्यव्रत का तो पालन नहीं करता, किन्तु परस्त्रीगमन, वेश्यागमन आदि बहुत चस्के लगे हैं और वह धर्मकार्य में आगे-आगे बढ़े, पूजन, विधान, समारोह, यज्ञ, मन्त्र, होम, पूजा आदि सब करे तो बताओ तो सही कि उन सब कर्तव्यों का वहाँ पर क्या अर्थ है? और एक पुरुष ब्रह्मचर्य का सच्चा पालक है, स्वप्न में भी कामवासना जागृति नहीं होती है, ऐसा पुरुष तो स्वत: ही धर्मात्मा है।
शुद्ध आशय की भावना—धर्म तन-मन-वचन की चेष्टा से नहीं हुआ करता है। धर्म तो आत्मा के शुद्ध आशय में है। ऐसी प्रार्थना करे आत्मप्रभु से, परमार्थप्रभु से कि हे नाथ ! और चाहे जितने संकट आ जायें, पर चित्त में दुर्भाव उत्पन्न न हों। शुद्ध ज्ञायकस्वरूप निजब्रह्म में आचरण करने का नाम परमार्थ ब्रह्मचर्य है। इस परमार्थ ब्रह्मचर्य की साधना के लिये जो शीलव्रत अंगीकार किया गया है, वह ही ब्रह्मचर्य महाव्रत है। अब इस ब्रह्मचर्य महाव्रत के वर्णन के बाद परिग्रह त्याग महाव्रत का स्वरूप कह रहे हैं—