भावपाहुड गाथा 116: Difference between revisions
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आगे इससे उलटा जीव है वह पुण्य बांधता है ऐसा कहते हैं -
तव्विवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो ।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव वज्जरियं ।।११८।।
तद्विपरीत: बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापन्न: ।
द्विविधप्रकारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितम् ।।११८।।
भावशुद्धीवंत अर जिन-वचन अराधक जीव ही ।
हैं बाँधते शुभकर्म यह संक्षेप में बंधन-कथा ।।११८।।
अर्थ - उस पूर्वोक्त जिनवचन का श्रद्धानी मिथ्यात्वरहित सम्यग्दृष्टि जीव शुभकर्म को बांधता है जिसने कि भावों में विशुद्धि प्राप्त की है । ऐसे दोनों प्रकार के जीव शुभाशुभ कर्म को बाँधते हैं, यह संक्षेप में जिनभगवान् ने कहा है ।
भावार्थ - पहिले कहा था कि जिनवचन से पराङ् मुख मिथ्यात्व सहित जीव है, उससे विपरीत जिन आज्ञा का श्रद्धानी सम्यग्दृष्टि जीव विशुद्ध भाव को प्राप्त होकर शुभकर्म को बाँधता है, क्योंकि इसके सम्यक्त्व के माहात्म्य से ऐसे उज्ज्वल भाव हैं, जिनसे मिथ्यात्व के साथ बंधनेवाली पापप्रकृतियों का अभाव है । कदाचित् किंचित् कोई पाप प्रकृति बंधती है तो उनका अनुभाग मंद होता है, कुछ तीव्र पापफल का दाता नहीं होता । इसलिए सम्यग्दृष्टि शुभकर्म ही को बाँधनेवाला है, इसप्रकार शुभ-अशुभ कर्म के बंध का संक्षेप से विधान सर्वज्ञदेव ने कहा है, वह जानना चाहिए ।।११८।।