व्रतचयक्रिया: Difference between revisions
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Revision as of 15:13, 13 May 2020
(1) गर्भान्वय-त्रेपन क्रियाओं में पन्द्रहवीं क्रिया । इसमें ब्रह्मचर्यव्रत के योग्य कमर, जांघ, वक्ष-स्थल और सिर के चिह्न धारण किये जाते हैं । कमर में रत्नत्रय का प्रतीक तीन लर का मौन्जोबन्धन, जाँघ पर अर्हन्त कुल की पवित्रता और विशालता की प्रतीक धोती, वक्षस्थल पर सप्त परमस्थानों का सूचक सात लर का यज्ञोपवीत और सिर का मुण्डन कराया जाता है । इस चर्या में लकड़ी की दातौन नहीं की जाती, पान नहीं खाया जाता, अंजन नहीं लगाया जाता, हल्दी आदि का लेप लगाकर ध्यान नहीं किया जाता, अकेले पृथ्वी पर शयन करना होता है । यह सब द्विज तब तक करता है जब तक उसका विद्याध्ययन समाप्त नहीं होता । इसके पश्चात् उसे गृहस्थों के मूलगुण धारण करना और श्रावकाचार एवं अध्यात्मशास्त्र आदि का अध्ययन करना होता है । महापुराण 38.56, 109-120 ।
(2) दीक्षान्वय क्रियाओं में दसवीं क्रिया । इसमें यज्ञोपवीत से युक्त होकर शब्द एवं अर्थ दोनों प्रकार से उपासकाध्ययन के सूत्रों का भली प्रकार अभ्यास किया जाता है । महापुराण 39.57