भावपाहुड गाथा 84: Difference between revisions
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आगे | आगे कहते हैं कि जो `पुण्य' ही को `धर्म' जानकर श्रद्धान करता है उसके केवल भोग का निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं है -<br> | ||
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सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि ।<br> | |||
पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।८४।।<br> | |||
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श्रद्दद्धाति च प्रत्येति न रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति ।<br> | |||
पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।८४।।<br> | |||
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<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
अर पुण्य भी है धर्म - ऐसा जान जो श्रद्धा करें ।<br> | |||
वे भोग की प्राप्ति करें पर कर्म क्षय न कर सकें ।।८४।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर श्रद्धान करते हैं, प्रतीति करते हैं, रुचि करते हैं और स्पर्श करते हैं उनके `पुण्य' भोग का निमित्त है । इससे स्वर्गादिक भोग पाता है और वह पुण्य कर्म के क्षय का निमित्त नहीं होता है, यह प्रगट जानना चाहिए । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> शुभक्रियारूप पुण्य को धर्म जानकर इसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करता है, उसके पुण्यकर्म का बंध होता है, उससे स्वर्गादिक के भोगों की प्राप्ति होती है और उससे कर्म का क्षयरूप संवर-निर्जरा-मोक्ष नहीं होता है ।।८४।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:58, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जो `पुण्य' ही को `धर्म' जानकर श्रद्धान करता है उसके केवल भोग का निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं है -
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि ।
पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।८४।।
श्रद्दद्धाति च प्रत्येति न रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति ।
पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।८४।।
अर पुण्य भी है धर्म - ऐसा जान जो श्रद्धा करें ।
वे भोग की प्राप्ति करें पर कर्म क्षय न कर सकें ।।८४।।
अर्थ - जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर श्रद्धान करते हैं, प्रतीति करते हैं, रुचि करते हैं और स्पर्श करते हैं उनके `पुण्य' भोग का निमित्त है । इससे स्वर्गादिक भोग पाता है और वह पुण्य कर्म के क्षय का निमित्त नहीं होता है, यह प्रगट जानना चाहिए ।
भावार्थ - शुभक्रियारूप पुण्य को धर्म जानकर इसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करता है, उसके पुण्यकर्म का बंध होता है, उससे स्वर्गादिक के भोगों की प्राप्ति होती है और उससे कर्म का क्षयरूप संवर-निर्जरा-मोक्ष नहीं होता है ।।८४।।