चारित्रपाहुड गाथा 4: Difference between revisions
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आगे कहते हैं कि जो तीन भाव जीव के हैं उनकी शुद्धता के लिए चारित्र दो प्रकार का कहा है -
एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया ।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविहं चारित्तं ।।४।।
एते त्रयोsपि भावा: भवंति जीवस्य अक्षया: अमेया : ।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनभणितं द्विविधं चारित्रं ।।४।।
तीन ही ये भाव जिय के अखय और अमेय हैं ।
इन तीन के सुविकास को चारित्र दो विध जिन कहा ।।४।।
अर्थ - ये ज्ञान आदिक तीन भाव कहे, ये अक्षय और अनन्त जीव के भाव हैं, इनको शोधने के लिए जिनदेव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है ।
भावार्थ - जानना देखना और आचरण करना ये तीन भाव जीव के अक्षयानंत हैं, अक्षय अर्थात् जिसका नाश नहीं है, अमेय अर्थात् अनन्त जिसका पार नहीं है, सब लोकालोक को जाननेवाला ज्ञान है इसप्रकार ही दर्शन है, इसप्रकार ही चारित्र है तथापि घातिकर्म के निमित्त से अशुद्ध हैं जो ज्ञान दर्शन चारित्ररूप हैं, इसलिए श्रीजिनदेव ने इनको शुद्ध करने के लिए इनका चारित्र (आचरण करना) दो प्रकार का कहा है ।।४।।