लिंगपाहुड गाथा 6: Difference between revisions
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Latest revision as of 10:41, 4 January 2009
आगे फिर कहते हैं -
कलहं वादं जूवा णिच्चं बहुाणगव्विओ लिंगी ।
वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ।।६।।
कलहं वादं द्यूतं नित्यं बहुानगर्वित: लिंगी ।
व्रजति नरकं पाप: कुर्वाण: लिंगिरूपेण ।।६।।
अर कलह करते जुआ खेलें मानमंडित नित्य जो ।
वे प्राप्त होते नरकगति को सदा ही जिन लिंगधर ।।६।।
अर्थ - जो लिंगी बहुत मान कषाय से गर्ववान हुआ निरंतर कलह करता है, वाद करता है, द्यूतक्रीड़ा करता है, वह पापी नरक को प्राप्त होता है और पाप से ऐसे ही करता रहता है ।
भावार्थ - जो गृहस्थरूप करके ऐसी क्रिया करता है, उसको तो यह उलाहना नहीं है, क्योंकि कदाचित् गृहस्थ तो उपदेशादिक का निमित्त पाकर कुक्रिया करता रह जाय तो नरक न जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है ।।६।।