शीलपाहुड गाथा 14: Difference between revisions
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आगे कहते हैं कि जो उन्मार्ग के प्ररूपण करनेवाले कुमत-कुशास्त्र की प्रशंसा करते हैं, वे बहुत शास्त्र जानते हैं तो भी शीलव्रतज्ञान से रहित हैं, उनके आराधना नहीं है -
कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं ।
शीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति ।।१४।।
कुमतकुश्रुतप्रशंसका: जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि ।
शीलव्रतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधका भवंति ।।१४।।
यद्यपि बहुशास्त्र जाने कुमत कुश्रुत प्रशंसक ।
रे शीलव्रत से रहित हैं वे आत्म-आराधक नहीं ।।१४।।
अर्थ - जो बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं और कुमत कुशास्त्र की प्रशंसा करनेवाले हैं वे शीलव्रत और ज्ञान रहित हैं, वे इनके आराधक नहीं हैं ।
भावार्थ - जो बहुत शास्त्रों को जानकर ज्ञान तो बहुत रखते हैं और कुमत कुशास्त्रों की प्रशंसा करते हैं तो जानो कि इनके कुमत से और कुशास्त्र से राग है प्रीति है तब उनकी प्रशंसा करते हैं - ये तो मिथ्यात्व के चिह्न हैं, जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ ज्ञान भी मिथ्या है और विषय- कषायों से रहित होने को शील कहते हैं वह भी उसके नहीं है, व्रत भी उसके नहीं है, कदाचित् कोई व्रताचरण करता है तो भी मिथ्याचारित्ररूप है, इसलिए दर्शन ज्ञान चारित्र का आराधनेवाला नहीं है, मिथ्यादृष्टि है ।।१४।।