योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 94: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म को जीवकृत कहा जाता है - <p class="SanskritGatha"> कोपादिभि: कृ...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
कर्मजनित देहादिक विभाव अचेतन हैं - | |||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमा: ।<br> | |||
विकारा: कर्मजा: सर्वे चैतन्येन विवर्जिता: ।।९४।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> अन्वय </b>:- | <p><b> अन्वय </b>:- देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमा: सर्वे विकारा: कर्मजा: चैतन्येन विवर्जिता: । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p><b> सरलार्थ </b>:- संसारी जीव के संयोग में पाये जानेवाले शरीर, संहनन, संस्थान, गति, जाति आदिरूप (पुरोगमा शब्द का अर्थ इत्यादि होता है) जितने भी विकार अर्थात् विभाव हैं, वे सर्व नामकर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं एवं चेतना रहित हैं । </p> | ||
<p class="GathaLinks"> | <p class="GathaLinks"> | ||
[[योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 93 | पिछली गाथा]] | [[योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 93 | पिछली गाथा]] |
Revision as of 23:08, 19 January 2009
कर्मजनित देहादिक विभाव अचेतन हैं -
देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमा: ।
विकारा: कर्मजा: सर्वे चैतन्येन विवर्जिता: ।।९४।।
अन्वय :- देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमा: सर्वे विकारा: कर्मजा: चैतन्येन विवर्जिता: ।
सरलार्थ :- संसारी जीव के संयोग में पाये जानेवाले शरीर, संहनन, संस्थान, गति, जाति आदिरूप (पुरोगमा शब्द का अर्थ इत्यादि होता है) जितने भी विकार अर्थात् विभाव हैं, वे सर्व नामकर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं एवं चेतना रहित हैं ।