योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 522: Difference between revisions
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विरक्त त्यागी का स्वरूप -
स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षोsपि निरुद्धविषय-स्मृति: ।
सर्वदा सुस्थितो जीव: परत्रेह च जायते ।।५२३।।
अन्वय : - (य: जीव:) स्वार्थ-व्यावर्तिताक्ष: निरुद्धविषय-स्मृति: अपि (स:) जीव: इह च परत्र सर्वदा सुस्थित: जायते ।
सरलार्थ :- जो ज्ञानी जीव अपने स्पर्शनेंद्रियादि को उनके स्पर्शादि विषयों से (क्षेत्र की अपेक्षा से) अलग/भिन्न रखता है अर्थात् प्रत्यक्ष में इंद्रियों से विषयों को भोगता नहीं है और स्पर्शादि विषयों का स्मरण भी नहीं करता अर्थात् पहले भोगे गये भोगों का कभी स्मरण नहीं करता एवं न उन्हें फिर से भोगने की इच्छा ही करता है - वह ज्ञानी जीव इस भव में तथा परभव में भी सदा सुखी रहता है ।