योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 539: Difference between revisions
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इस ग्रन्थ के अध्ययन का फल -
(रथोद्धता)
योगसारमिदमेकमानस: प्राभृतं पठति योsभिमानस: ।
स्वस्वरूपमुपलभ्य सोsञ्चितं सद्म याति भवदोषवञ्चितम् ।।५४०।।
अन्वय : - इदं योगसारं प्राभृतं य: एकमानस: अभिमानस: पठति स: स्व-स्वरूपं उपलभ्य अञ्चितं सद्म याति (यत्) भव-दोष-वञ्चितं (अस्तिं) ।
सरलार्थ :- इस योगसार प्राभृत को जो एकचित्त होकर एकाग्रता से पढ़ता है, वह अपने स्वरूप को जानकर तथा सम्प्राप्त कर उस पूजित सदन को/लोकाग्र के निवासरूप पूज्य मुक्ति महल को प्राप्त होता है, जो संसार के दोषों से रहित है/संसार का कोई भी विकार जिसके पास नहीं आता ।