तम: Difference between revisions
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स.सि./5/24/296/8 <span class="SanskritText">तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं प्रकाशविरोधि।</span> =<span class="HindiText">जिससे दृष्टि में प्रतिबन्ध होता और जो प्रकाश का विरोधी है वह तम कहलाता है।</span> (रा.वा./5/24/15/489/7); (त.सा./3/68/161); (द्र.सं./16/53/11)। रा.वा./5/24/1/485/14 <span class="SanskritText">पूर्वोपात्ताशुभकर्मोदयात् ताम्यति आत्मा, तभ्यतेऽनेन, तमनमात्रं वा तम:। </span><span class="HindiText">पूर्वोपात्त अशुभकर्म के उदय से जो स्वरूप को अन्धकारवृत करता है या जिसके द्वारा किया जाता है, या तमन मात्र को तम कहते हैं।</span> | |||
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<p> पाँचवीं धूमप्रभा नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में छत्तीस और विदिशाओं में बत्तीस श्रेणीबद्ध बिल है । इसकी पूर्व दिशा में निरुद्ध, पश्चिम में अतिनिरुद्ध, दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन नाम के चार महानरक है । इसका विस्तार आठ लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है । इसकी जघन्य स्थिति दस सागर तथा उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागर और एक सागर के पाँच भागों में दो भाग प्रमाण है । यहाँ नारकियों को अवगाहना पचहत्तर धनुष होती है । <span class="GRef"> महापुराण 10.31, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.83, 130, 156, 209, 265-286, 333 </span></p> | |||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == स.सि./5/24/296/8 तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं प्रकाशविरोधि। =जिससे दृष्टि में प्रतिबन्ध होता और जो प्रकाश का विरोधी है वह तम कहलाता है। (रा.वा./5/24/15/489/7); (त.सा./3/68/161); (द्र.सं./16/53/11)। रा.वा./5/24/1/485/14 पूर्वोपात्ताशुभकर्मोदयात् ताम्यति आत्मा, तभ्यतेऽनेन, तमनमात्रं वा तम:। पूर्वोपात्त अशुभकर्म के उदय से जो स्वरूप को अन्धकारवृत करता है या जिसके द्वारा किया जाता है, या तमन मात्र को तम कहते हैं।
पुराणकोष से
पाँचवीं धूमप्रभा नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में छत्तीस और विदिशाओं में बत्तीस श्रेणीबद्ध बिल है । इसकी पूर्व दिशा में निरुद्ध, पश्चिम में अतिनिरुद्ध, दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन नाम के चार महानरक है । इसका विस्तार आठ लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है । इसकी जघन्य स्थिति दस सागर तथा उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागर और एक सागर के पाँच भागों में दो भाग प्रमाण है । यहाँ नारकियों को अवगाहना पचहत्तर धनुष होती है । महापुराण 10.31, हरिवंशपुराण 4.83, 130, 156, 209, 265-286, 333