पञ्चसंग्रह: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 21:43, 5 July 2020
पञ्चसंग्रह
इस नाम के चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं–दो प्राकृत गाथाबद्ध हैं और दो संस्कृत श्लोकबद्ध । प्राकृत वालों में एक दिगम्बरीय है और एक श्वेताम्बरीय ।325। इन दोनों पर ही अनेकों टीकायें हैं । संस्कृत वाले दोनों दिगम्बरीय प्राकृत के रूपान्तर मात्र होने से ।326। दिगम्बरीय हैं । पाँच-पाँच अधिकारों में विभक्त होने से तथा कर्मस्तव आदि आगम प्राभृतों का संग्रह होने से इनका ‘पञ्चसंग्रह’ नाम सार्थक है ।343। गोमट्टसार आदि कुछ अन्य ग्रन्थ भी इस नाम से अपना उल्लेख करने में गौरव का अनुभव करते हैं । इन सबका क्रम से परिचय दिया जाता है ।
- दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसंग्रह–
सबसे अधिक प्राचीन है । इसके पाँच अधिकारों के नाम हैं–जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका । षट्खण्डागम का और कषायपाहुड़ का अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणास्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है । कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व का विवेचन करते हैं ।343। इसमें कुल 1324 गाथायें तथा 500 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । समय–इसके रचयिता का नाम तथा समय ज्ञात नहीं है । तथापि अकलंक भट्ट (ई. 620-680) कृत राजवार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि.श.8 से पूर्व ही अनुमान किया जाता है ।351। (जै./1/पृष्ठ) । डॉ. A.N.Up. ने इसे वि.श.5-8 में स्थापित किया है । (पं.सं./प्र. 39) ।
- श्वेताम्बरीय प्राकृत पञ्चसंग्रह–
श्वेताम्बर आम्नाय का प्राकृत गाथाबद्ध यह ग्रन्थ भी दिगम्बरीय की भाँति 5 अधिकारों में विभक्त है । उनके नाम तथा विषय भी लगभग वही हैं । गाथा संख्या 1005 है । इसके रचयिता चन्द्रर्षि महत्तर माने गए हैं, जिन्होंने इस पर स्वयं 8000 श्लोक प्रमाण ‘स्वोपज्ञ’ टीका लिखी है । इसके अतिरिक्त आ. मलयगिरि (वि. श. 12) कृत एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है । मूल ग्रन्थ को आचार्य ने महान या यथार्थ कहा है ।351। समय–चन्द्रर्षि महत्तर का काल वि.श.10 का अन्तिम चरण निर्धारित किया गया है ।366। (देखें चन्द्रर्षि ), (जै./1/351, 366) ।
- 3-4. संस्कृत पञ्चसंग्रह–
दो उपलब्ध हैं । दोनों ही दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसंग्रह के संस्कृत रूपान्तर मात्र हैं । इनमें से एक चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी श्रीपाल मुत डड्ढा की रचना है और दूसरा आचार्य अमितगति की । पहले में 1243 और दूसरे में 700 अनुष्टुप् पद्य हैं और साथ-साथ क्रमशः 1456 और 1000 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । समय–आ. अमितगति वाले की रचना वि.सं.1073 में होनी निश्चित है । डड्ढा वाले का रचनाकाल निम्न तथ्यों पर से. वि. 1012 और 1047 के मध्य कभी होना निर्धारित किया गया है । क्योंकि एक ओर तो इसमें अमृतचन्द्राचार्य (वि.962-1012) कृत तत्त्वार्थसार का एक श्लोक इसमें उद्धृत पाया जाता है और दूसरी ओर इसका एक श्लोक आचार्य जयसेन नं. 4 (वि. 1050) में उद्धृत है । तीसरी ओर गोमट्टसार (वि. 1040) का प्रभाव जिस प्रकार अमितगति कृत पञ्चसंग्रह पर दिखाई देता है, उस प्रकार इस पर दिखाई नहीं देता है । इस पर से यह अनुमान होता है कि गोमट्टसार की रचना डड्ढा कृत पञ्चसंग्रह के पश्चात् हुई है । (जै./1/372-375) ।
- 5-6. पञ्चसंग्रह की टीकायें–
5. दिगम्बरीय पञ्चसंग्रह पर दो टीकायें उपलब्ध हैं । एक वि.1526 की है, जिसका रचयिता अज्ञात है । दूसरी वि.1620 की है । इसके रचयिता भट्टारक सुमतिकीर्ति हैं ।448। परन्तु भ्रान्तिवश इसे मुनि पद्मनन्दि की मान लिया गया है । वास्तव में ग्रन्थ में इस नाम का उल्लेख ग्रन्थकार के प्रति नहीं, प्रत्युत उस प्रकरण के रचयिता की ओर संकेत करता है जिसे ग्रन्थकर्त्ता भट्टारक सुमतिकीर्ति ने पद्मनन्दि कृत ‘जंबूदीव पण्णति’ से लेकर ग्रन्थ के ‘शतक’ नामक अन्तिम अधिकार में ज्यों का त्यों आत्मसात कर लिया है ।449। पञ्चसंग्रह के आधार पर लिखी गयी होने से भले इसे टीका कहो, परन्तु विविध ग्रन्थों से उद्धृत गाथाओं तथा प्रकरणों की बहुलता होने से यह टीका तो नाममात्र ही है ।448। लेखक ने स्वयं टीका न कहकर ‘आराधना’ नाम दिया है ।445। चूर्णियों की शैली में लिखित इसमें 546 गाथा प्रमाण तो पद्यभाग है और 4000 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । (जै./1/पृष्ठ संख्या), (ती./3/379) । 6. इन्हीं भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा रचित एक अन्य भी पञ्चसंग्रह वृत्ति प्राप्त है । यह वास्तव में अकेले सुमतिकीर्ति की न होकर इनकी तथा ज्ञानभूषण की साझली है । वास्तव में पञ्चसंग्रह की न होकर गोमट्टसार की टीका है, क्योंकि इसका मूल आधार ‘पञ्चसंग्रह’ नहीं है, बल्कि गोमट्टसार की ‘जीवप्रबोधिनी’ टीका के आधार पर लिखित ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रन्थ है । ग्रन्थकार ने इसे ‘लघुगोमट्टसार’ अपर नाम ‘पञ्चसंग्रह’ कहा है । समय–वि. 1620 । (जै./1/471-480) ।
- अन्यान्य पञ्चसंग्रह–
इनके अतिरिक्त भी पञ्चसंग्रह नामक कई ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है । जैसे ‘गोमट्टसार’ के रचयिता श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उसे ‘पञ्चसंग्रह’ कहा है । श्रीहरि दामोदर वेलंकर ने अपने जिनरत्न कोश में ‘पञ्चसंग्रह दीपक’ नाम के किसी ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो कि इनके अनुसार गोमट्टसार का इन्द्र वामदेव द्वारा रचित संस्कृत पद्यानुवाद है । पाँच अधिकारों में विभक्त इसमें 1498 पद्य हैं । (पं.सं./प्र.14/ A.N.Up.) ।