बोधपाहुड़ गाथा 56: Difference between revisions
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उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च १अत्थइ ।
सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ॥५६॥
उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति ।
शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥५६॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
परिषह सहें उपसर्ग जीतें रहें निर्जन देश में ।
शिला पर या भूमितल पर रहें वे सर्वत्र ही ॥५६॥
जैनदीक्षावाले मुनि उपसर्गपरीषह में समभाव रखते हैं और जहाँ सोते हैं, बैठते हैं, वहाँ निर्जन प्रदेश में शिला, काष्ठ, भूमि में ही बैठते हैं, सोते हैं, इसप्रकार नहीं है कि अन्यमत के भेषीवत् स्वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार जानना चाहिए ॥५६॥