बोधपाहुड़ गाथा 11: Difference between revisions
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जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ णिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं ।
सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥११॥
य: चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् ।
सा भवति वन्दनीया निर्ग्रन्था संयता प्रतिमा ॥११॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
जो देखे जाने रमे निज में ज्ञानदर्शन चरण से ।
उन ऋषीगण की देह प्रतिमा वंदना के योग्य है ॥११॥
जो शुद्ध आचरण का आचरण करते हैं तथा सम्यग्ज्ञान से यथार्थ वस्तु को जानते हैं और सम्यग्दर्शन से अपने स्वरूप को देखते हैं इसप्रकार शुद्धसम्यक्त्व जिनके पाया जाता है - ऐसी निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है, वह वंदन-करने योग्य है ।
जाननेवाला, देखनेवाला, शुद्धसम्यक्त्व, शुद्धचारित्र स्वरूप निर्ग्रन्थ संयमसहित इसप्रकार मुनि का स्वरूप है वही ‘प्रतिमा’ है, वही वंदन करने योग्य है; अन्य कल्पित वंदन करने योग्य नहीं है और वैसे ही रूपसदृश धातुपाषाण की प्रतिमा हो वह व्यवहार से वंदने योग्य है ॥११॥