लिंगपाहुड़ गाथा 8: Difference between revisions
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दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण ।
अट्ठं झायदि झाणं अणंतसंसारिओ होदि ॥८॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि उपधानानि यदि न लिङ्गरूपेण ।
आर्त्तं ध्यायति ध्यानं अनन्तसंसारिक: भवति ॥८॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - यदि लिंगरूप करके दर्शन ज्ञान चारित्र को तो उपधानरूप नहीं किये (धारण नहीं किये) और आर्त्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनन्तसंसारी होता है ।
भावार्थ - लिंग धारण करके दर्शन ज्ञान चारित्र का सेवन करना था वह तो नहीं किया और कुटुम्ब आदि विषयों का परिग्रह छोड़ा, उसकी फिर चिंता करके आर्त्तध्यान ध्याने लगा तब अनंतसंसारी क्यों न हो ? इसका यह तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शनादिरूप भाव तो पहिले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण कर लिया, उसकी अवधि क्या ? पहिले भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है ॥८॥