शीलपाहुड़ गाथा 18: Difference between revisions
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सव्वे वि य परिहीणा रूवणिरूवा वि पडिदसुवया वि ।
सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं ॥१८॥
सर्वेऽपि च परिहीना: रूपविरूपा अपि पतितसुवयसोऽसि ।
शीलं येषु सुशीलं सञ्जीविदं मानुष्यं तेषाम् ॥१८॥
आगे कहते हैं कि जिनके शील है सुशील हैं उनका मनुष्यभव में जीना सफल है अच्छा है -
अर्थ - जो सब प्राणियों में हीन हैं, कुलादिक से न्यून हैं और रूप से विरूप हैं, सुन्दर नहीं हैं, ‘पतितसुवयस:’ अर्थात् अवस्था से सुन्दर नहीं है, वृद्ध हो गये हैं, परन्तु जिनमें शील सुशील है, स्वभाव उत्तम है, कषायादिक की तीव्र आसक्तता नहीं है उनका मनुष्यपना सुजीवित है, जीना अच्छा है ।
भावार्थ - लोक में सब सामग्री से जो न्यून हैं, परन्तु स्वभाव उत्तम है, विषय-कषायों में आसक्त नहीं हैं तो वे उत्तम ही हैं, उनका मनुष्यभव सफल है, उनका जीवन प्रशंसा के योग्य है ॥१८॥