शीलपाहुड़ गाथा 37: Difference between revisions
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णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धीय १वीरियायत्तं ।
सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥३७॥
ज्ञानं ध्यानं योग: दर्शनशुद्धिश्च वीर्यायत्त: ।
सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधिं ॥३७॥
आगे कहते हैं कि जो ऐसा हो वह जिनमार्ग में रत्नत्रय की प्राप्तिरूप बोधि को प्राप्त होता है -
अर्थ - ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता - ये तो वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन से जिनशासन में बोधि को प्राप्त करते हैं, रत्नत्रय की प्राप्ति होती है ।
भावार्थ - ज्ञान अर्थात् पदार्थों को विशेषरूप से जानना, ध्यान अर्थात् स्वरूप में एकाग्रचित्त होना, योग अर्थात् समाधि लगाना, सम्यग्दर्शन को निरतिचार शुद्ध करना - ये तो अपने वीर्य (शक्ति) के आधीन है, जितना बने उतना हो, परन्तु सम्यग्दर्शन से बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, इसके होने पर विशेष ध्यानादिक भी यथाशक्ति होते ही हैं और इससे शक्ति भी बढ़ती है । ऐसे कहने में भी शील ही का माहात्म्य जानना, रत्नत्रय है वही आत्मा का स्वभाव है, उसको शील भी कहते हैं ॥३७॥