सूत्रपाहुड़ गाथा 9: Difference between revisions
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Revision as of 17:10, 3 November 2013
उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो य ।
जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छदि होदि मिच्छतं ॥९॥
उत्कृष्ट सिंहचरित: बहुपरिकर्मां च गुरुभारश्च ।
य: विहरति स्वच्छन्दं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ॥९॥
आगे कहते हैं कि जो जिनसूत्र से च्युत हो गये हैं, वे स्वच्छंद होकर प्रवर्तते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं -
अर्थ - जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंह के समान निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म अर्थात् तपश्चरणादिक्रिया विशेषों से युक्त है तथा गुरु के भार अर्थात् बड़ा पदस्थरूप है, संघ नायक कहलाता है, परन्तु जिनसूत्र से च्युत होकर स्वच्छंद प्रवर्तता है तो वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - - जो धर्म का नायकपना लेकर-गुरु बनकर निर्भय हो तपश्चरणादिक से ब़ड़ा कहलाकर अपना सम्प्रदाय चलाता है, जिनसूत्र से च्युत होकर स्वेच्छाचारी प्रवर्तता है तो वह पापी मिथ्यादृष्टि ही है, उसका प्रसंग भी श्रेष्ठ नहीं है ॥९॥