युक्त्यनुशासन - गाथा 29: Difference between revisions
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Revision as of 11:56, 17 May 2021
अवाच्यमित्यन्न च वाच्यभावादवाच्यभेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् ।
स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि स्व-रूपवाचीति वचो विरुद्धम् ।।29।।
(109) ‘समस्त तत्त्व अवाच्य है’ इस कथन में प्रतिज्ञाविरोध व स्ववचनविरोध―समस्त तत्त्व सर्वथा अवाच्य हैं याने वचनों के द्वारा कहे नहीं जा सकते । ऐसी एकांत मान्यता होने पर यह बताओ कि तत्त्व अवाच्य ही है यह कैसे कह दिया गया? यदि सर्वथा अवाच्य होता तो अवाच्य शब्द से भी न कहा जा सकता था । तो जो लोग तत्त्व को सर्वथा अवाच्य कहते हैं उनका कहना उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध हो जाता है, क्योंकि अवाच्य इस पद में भी कोई वाच्य अवश्य है याने अवाच्य शब्द बोलकर कुछ बात समझी गई या नहीं । समझी गई तो लो अवाच्य शब्द भी वाचक बन गया । यह किसी न किसी बात को तो बतलाता है । तब तत्त्व सर्वथा अवाच्य न रहा । यहाँ शंकाकार यदि यह कहे कि तत्त्व स्वरूप से अवाच्य ही है याने उसका जो निजी स्वरूप है वह वचन के अगोचर है तो ऐसा कहने वाले शंकाकार के सिद्धांत में कहा गया है कि सर्ववचन स्वरूपवाची हैं । तो यह कथन फिर उनका वर्तमानप्रतिज्ञा के विरुद्ध पड़ जाता है । सिद्धांत में तो बताया कि स्वरूप नहीं है वचन और यहाँ कह रहे हो कि तत्त्व स्वरूप से अवाच्य ही है । और यदि शंकाकार यह कहे कि तत्त्व पररूप से अवाच्य ही है । याने किसी भी ढंग से हम परतत्त्व की अपेक्षा से उसमें कुछ बोल नहीं सकते तो यह कथन भी प्रतिज्ञा के विरुद्ध है, क्योंकि इसी शंकाकार ने यह भी कहा है कि सर्ववचन पररूपवाची हैं । इस कारिका में सर्वथा अवाच्य की मान्यता का निराकरण किया है ।
(110) एकांतवादों से निराकरण का निर्देशन―यहाँ तक इन तथ्यों पर प्रकाश डाला गया कि तत्त्व भावमात्र ही नहीं हैं याने सब कुछ सद्रूप ही है, कुछ भी शब्द बोलने से सभी अर्थों का ग्रहण हो जाता है; ऐसा भावमात्र तत्त्व नहीं है । इसी तरह तत्त्व अभावमात्र ही नहीं है याने स्वरूप कुछ है नहीं, शून्य है, और किसी तरह उसमें शक्ति पर्याय ध्रुवता कुछ भी नहीं है, सर्व भ्रम ही भ्रम है; ऐसा अभाव मात्र ही तत्त्व नहीं है । इसी प्रकार उभयस्वरूप तत्त्व नहीं याने निरपेक्षरूप कुछ भावस्वरूप हो, कुछ अभाव-स्वरूप हो ऐसा भी तत्त्व नहीं है । जैसे मीमांसक-सिद्धांत में 7 पदार्थ माने हैं जिनमें 6 तो भावात्मक हैं―द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और एक अभावरूप है, जिसका नाम अभाव रखा गया है । तो ऐसा भाव और अभावरूप भी निरपेक्ष नहीं है । इसी प्रकार तत्त्व सर्वथा अवाच्य नहीं है कि वह वचनों द्वारा भी न बोला जा सके । तो यहाँ तक इन चारों मिथ्या एकांतों का निराकरण किया गया, और इसी निराकरण के सामर्थ्य से और भी जो मिथ्या प्रवाद हैं उनका भी निराकरण हो जाता है । जैसे कोई मानता है कि सर्वथा सत् अवाच्य तत्त्व है याने सत्ता है और अवाच्य है । तो कोई मानता है कि सर्वथा असत् अवाच्य तत्त्व है मायने शून्यरूप है और अवाच्य है । तो कोई कहता है कि उभय अवाच्य है याने सत्रूप भी है, असत्रूप भी है किंतु है अवाच्य ꠰ तो कोई कहता है कि अनुभय अवाच्य है याने न सत्रूप है, न असत्रूप है, और अवाच्य है । तो इस तरह के अनेक मिथ्या प्रवादों का यहाँ निराकरण समझना चाहिए ।