युक्त्यनुशासन - गाथा 35: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Revision as of 11:56, 17 May 2021
मद्यांगवद्भूत-समागमे ज्ञः शक्त्यंतर-व्यक्तिरदैव-सृष्टि: ।
इत्यात्म-शिश्नोदर-पुष्टि-तुष्टै-र्निर्हीमयैर्हा ! मृदव: प्रलब्धा: ।।35।।
(124) लौकायतिक पुरुषों के मंतव्य की समालोचना का प्रसंग―लौकिक अथवा लौकायतिक या कहो चार्वाक यहाँं यह कहते हैं कि चित्त जीव अथवा आत्मा यह कोई वस्तु नहीं है, यह तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन महाभूतों का संगम होने पर उत्पन्न हुआ है । जैसे कि मद्य के कारणभूत कोदों महुवा आदिक पदार्थ हैं सो वे सीधे-सीधे मद्य उत्पन्न नहीं करते किंतु उनका समागम बनने पर सड़ान करते हैं, शराब बनती है जो मद्य का कारणभूत है, ऐसे ही कोई जीव अलग वस्तु नहीं है, किंतु पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन भूतों का समागम होने पर यह एक चैतन्यशक्ति उत्पन्न हो जाती है और उस ही शक्ति का यह परिणाम विशेष है कि सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, विचार-विकल्प ये दिखने लगते हैं । तो उन भूतों का समागम मिलने पर उत्पन्न हुई जो शक्ति विशेष है उस ही का यह प्रकटपना है, यह कोई भाग्य की दृष्टि नहीं है या कोई स्वतंत्र चैतन्य पदार्थ नहीं है, और मरण भी इसलिए होता है कि वे चारों महाभूत जब बिखर जाते हैं तो उनमें से वह चैतन्यशक्ति भी बिखर जाती है । ऐसा एक लौकायतिकों का कथन है, जिसका उद्देश्य―रहना, खूब खाना-पीना, मौज करना, और तपश्चरण आदिक का कष्ट क्यों सहना? ऐसी चार्वाक् सिद्धांत के विषय में कुछ समालोचना की जाती है । अपने ही सांसारिक सुख के लिए सिद्धांत बनाने वाले चार्वाक केवल अपनी ही उदरपुष्टि और विषय-सेवन में संतुष्ट रहने वाले हैं । जिनमें धर्म के विषय में कुछ भी भावना नहीं है, उमंग नहीं है ऐसे पुरुष निर्लज्ज हैं, निर्भय हैं और वे जगत् के कोमल बुद्धि वाले भोले मनुष्यों को अपने वचनों ठगते रहते हैं ।
(125) लौकायतिक पुरुषों की मान्यता का ससमालोचन विवरण―आत्मशिश्नोदर-पुष्टितुष्ट पुरुषों का सिद्धांत है कि जब तक जियो सुख से जियो, जैसा चाहे खावो-पियो खूब मौज उड़ावो, मांस मदिरा का उनके परहेज नहीं; माता, बहिन, पुत्री इनका विभाग नहीं; मन में काम-वासना जगी तो जैसा चाहे अनर्थ करे, पुण्य पाप और उसके कारणभूत शुभपरिणाम अशुभपरिणाम इनकी दृष्टि में नहीं और परलोक मानते नहीं, जीव को भी नहीं मानते और यह कहकर दुनियां को ठगते हैं कि जानने वाला जीव कोई जुदा पदार्थ ही नहीं है ꠰ भय हृदय से निकल गया । लोकलाज जरा भी न रही, पापों में निरंकुश प्रवृत्ति हो रही । लोगों को विवेक करने की फिर आवश्यकता ही क्या है?
(126) लोकायतिक पुरुषो की मान्यता का ससमालोचनस्पष्टीकरण―जैसे मद को उत्पन्न करने वाली शक्ति किसी देवता के द्वारा नहीं आयी है, उन्हीं पदार्थों में से निकली है, ऐसे ही पृथ्वी आदिक पदार्थों में से ही यह चैतन्यशक्ति निकली है, ऐसा कथन करके ये जीवों को आत्मश्रद्धा से हटा रहे हैं । आत्मा को शांति कैसे प्राप्त होती है यह वहाँ विषय ही नहीं रह गया । बाह्य पदार्थों में उपयोग देने से, स्वच्छंद लगने से कहीं शांति भी आ सकती है क्या? लेकिन मूलभूत चैतन्य पदार्थ को तो वे एकदम उड़ा रहे हैं और भौतिकवाद बनाकर सांसारिक सुखों में उमंग देने की प्रेरणा करते हैं । इन लौकायतिकों का वचन है कि जैसे हरड़ जुलाब का काम करती है तो उससे जुलाब की शक्ति बनी है, उस शक्ति को किसी देवता ने पैदा नहीं किया, ऐसे ही इन चारों भौतिक पदार्थों में चैतन्यशक्ति स्वभाव से है, उसे किसी देवता ने पैदा नहीं किया । कदाचित् कभी कोई पुरुष हरड़ को खाये और जुलाब न हो तो कुछ और कोई कारण है । तो ऐसे ही कहीं अगर ये चारों चीजें इकट्ठी हो जायें और चैतन्यशक्ति प्रकट न हो तो उसमें भी कोई कारण है याने चैतन्य कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है । तो स्वतंत्र पदार्थ नहीं तो उसका परलोक कैसे होगा और जब परलोक ही नहीं है तो परलोक का भय करके अपने आपको कष्ट में डालने का प्रयास क्यों किया जा रहा है? न तो कोई यम, नियम आदिक करके कष्ट देना चाहते और न किसी तरह समाधि प्राणायाम आदिक करके कोई कष्ट की बात करना चाहते, इस तरह ये चार्वाक जो मन में आयी सो करने की बात कहते हैं और यथा-तथा प्रवृत्ति के लिए उमंग दिलाते हैं ꠰ ऐसे इन चार्वाकों के कथन से जीवों का कितना अनिष्ट हो रहा है ? परलोक का भय हृदय से निकल गया, लोक-लाज जरा भी न रही, पापों में निरंकुश प्रवृत्ति हो रही । लोगों को विवेक करने की फिर आवश्यकता ही क्या है?
(127) लौकायतिक से वचनों में विवेकी पुरुषों को ठगने की असमर्थता―इन चार्वाकों के कथन से यह जगत् बताया गया है । लेकिन भोले पुरुष ही ठगे जाते हैं, जो विवेकी पुरुष हैं वे नहीं ठगे जा सकते । वे जानते हैं कि जो ‘मैं’ है वह अनादि से है । वह किसी के संयोग से उत्पन्न नहीं होता । आत्मा उपयोग-लक्षणस्वरूप है, वह प्रमाण से सिद्ध है । कहीं चार भूतों के समागम से चैतन्य उत्पन्न नहीं होता और मानो उत्पन्न हुआ तो सत् उत्पन्न हुआ या असत् उत्पन्न हुआ? अगर चैतन्य सत् है तो वह तो पहले से ही था, उत्पन्न कैसे हो गया? जो असत् है वह किसी भी उपाय से उत्पन्न नहीं किया जा सकता । ऐसे इस आत्मतत्त्व की स्वयं सत्ता है और उसकी जो प्रतीति रखता है वह अनायास ही शांति प्रात कर लेता है । जब वह चैतन्यशक्ति सद्भूत है तो उसकी पर्यायें होती रहती हैं और जो पर्यायें हैं वे ही हर्षविषाद आदिक भाव हुआ करते, तो यों कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य सद᳭᳭भूत आत्मा है, ऐसा निर्णय हे वीर जिनेंद्र ! आपके स्याद्वाद शासन से ही होता है ।
(128) लोकायतिकों द्वारा मद्यांग का उदाहरण देने की असंगतता―यहाँ शंकाकार कहता है कि जिन चीजों से मदिरा उत्पन्न होती है इन चीजों में मदशक्ति पहले से मौजूद है, मगर वह प्रकट तो नहीं है । जब उनका समागम किया जाता है और सड़ाये जाते हैं तो उनमें वह शक्ति प्रकट होती है, तो ऐसे ही भूतों में शक्ति तो पड़ी है, पर जब इनका समागम होता है तब उसमें से शक्ति चैतन्य प्रकट होती है । यह कहना भी शंकाकार का ठीक नहीं, क्योंकि वह मदशक्ति भी कथंचित् नित्य चेतन में है और उसका कारण यह है कि मदशक्ति मदायला होने की, बेहोश होने की शक्ति चेतन में है, अचेतन तो एक पदार्थ है, जैसा है सो है । मदशक्ति अचेतन में नहीं, किंतु चेतन में है । जो सर्वथा अचेतन हैं उनमें मदशक्ति का होना असंभव है । मदशक्ति को संभावना भावमन और भावइंद्रिय में है । जब कभी कोई मद्य पीता है और बेहोश होता है तो बेहोश इंद्रियां होती हैं या जीव बेहोश होता है? इंद्रियाँ क्या हैं? वे तो जैसी हैं सो ही हैं । बेहोश होने पर भी शरीर में लगी हुई हैं । बेहोश होता है चेतन ही । तो मदशक्ति की संभावना चेतन में है । अगर अचेतन में मदशक्ति हो तो जब किसी बोतल में या किसी पात्र में मदिरा को रखा जाये तो वह बोतल या पात्र क्यों नहीं बेहोश होता है? उसे नशा आ जाना चाहिए ।
(129) शराबी पुरुषों की शराबी बर्तनों से तुलना―जैसी चेष्टा शराबी मनुष्यों की होती है वैसी चेष्टा उन बोतल और बर्तनों की तो नहीं हुआ करती । तो मदशक्ति अचेतन में नहीं है, चेतन में ही मदशक्ति की अभिव्यक्ति होती है । हां, उसके बाह्य कारण मदिरा आदिक है और अंतरंग कारण मोहनीयकर्म का उदय है । जीवों को जितने भी सुखदुःख आदिक होते हैं उनका अंतरंग कारण तो कर्मोदय है और बाह्य कारण इन बाह्य पदार्थों का समागम है । मोहनीयकर्म के उदय बिना बाह्य में मद्य आदिक का संयोग भी हो जाये तो भी मदशक्ति प्रकट नहीं होती? एक प्रश्न किया जाये कि जो आत्मा मुक्त हो गए हैं उनमें मदशक्ति अब क्यों नहीं प्रकट है? तो उसका कारण यह है कि वहाँं न अंतरंग कारण है और न बहिरंग कारण है । वह तो खालिस आत्मा है, उसके साथ कोई उपाधि नहीं है । तो जब मदशक्ति अचेतन में है नहीं, चेतन में ही है तब चैतन्यशक्ति के विरोध में अचेतन का उदाहरण देकर प्रतिपादन करना ठीक नहीं होता ।
(130) नित्यानित्यात्मक चेतनतत्त्व की सिद्धि―जो चेतनशक्ति है वह नित्य है, वह अन्य पदार्थों से विलक्षण स्वरूप रखने वाली है, और जब यह चेतनशक्ति नित्य है तो जैसे आज इस लोक और इस भव में है ऐसा ही आगे यह चेतन अगले लोक में, अगले भव में भी रहेगा, और इस वास्ते स्वर्ग अपवर्ग के साधन बनाये जाते हैं कि यह आत्मा आगे भी रहेगा तो उसकी कैसी स्थिति रहनी चाहिए? हर्ष वाली, सुख वाली या दुःख वाली । दुःख वाली स्थिति को तो कोई नहीं पसंद करता, दु:ख के साधन हैं खोटे परिणाम और खोटे परिणाम से वर्तमान में भी आकुलता है और भविष्य में भी आकुलता है । तो खोटे परिणाम न रहें, ऐसे जितने भी प्रयास हैं उन्हीं के मायने तो व्यवहार धर्म है और परमार्थत: ज्ञान ज्ञान में ही बस सके ऐसा पौरुष, बन जाये तो वह निश्चयधर्म का पालन है । तो वे चार्वाक यह मानकर चेतन का निषेध कर न सके कि चैतन्यशक्ति पहले से ही सत् है ।
(131) नित्यानित्यात्मक चेतनतत्त्व की सिद्धि के विषय में दूसरी बात―अब दूसरी बात; यदि शंकाकार कहे कि चैतन्यशक्ति रंच भी विद्यमान नहीं है इन पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदिक में और ऐसी अविद्यमान शक्ति ही व्यक्त होती है तो यह बात बिल्कुल प्रतीति-विरुद्ध है, जगत् में ऐसा कभी होता ही नहीं कि जो किसी भी रूप है ही नहीं, जिसका सत्त्व ही नहीं और वह किसी प्रकार उत्पन्न हो जाये या व्यक्त हो जाये, और ऐसा यदि वे मान लें कि चैतन्यशक्ति कथंचित् सत्रूप है, कथंचित् असत᳭रूप है तो इससे तो स्याद्वादशासन की ही सिद्धि हुई याने जैसा भव पाया, जैसे शरीर इंद्रिय का योग जुड़ा, उस रूप से चैतन्यशक्ति की व्यक्ति न थी, मगर मूलभूत चैतन्यपदार्थ तो पहले से ही था । तो यह स्याद्वाद का ही वर्णन समझिये । चेतन है और वह सदा रहने वाला है, उसकी अवस्थायें बनती रहती हैं । तो द्रव्यदृष्टि से चेतन नित्य है, पर्यायदृष्टि से चेतन अनित्य है । अब उस चैतन्यशक्ति की जो अभिव्यक्ति है याने शरीर के आकार परिणमे हुए पुद्गल के द्वारा जिस विकार की अभिव्यक्ति हुई है सो द्रव्यदृष्टि से तो सत᳭रूप ही है फिर भी पर्यायदृष्टि से जो न था सो उत्पन्न हुआ । इस चेतन के बारे में ये सब बातें कहना संभव है, जो था सो ही प्रकट हुआ जो न था सो प्रकट हुआ; जो था सो नष्ट हुआ आदिक सभी बातें द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि की अपेक्षा लगाकर संभव हैं । जब पर्यायदृष्टि से निहारते हैं तो यह कथन बनता है कि जो न था सो प्रकट हुआ है । जब द्रव्यदृष्टि से निहारते हैं, तो यह सिद्ध होता है कि जो था सो ही प्रकट हुआ है । कहीं असत् प्रकट नहीं हुआ और फिर इस चैतन्यतत्त्व की सिद्धि तो अनुभव से भी हो जाती है । प्रत्येक जीव ‘अपने आपमें हूँ’ ऐसा मानता है और ज्ञानस्वरूप पदार्थ मैं हूँ की कल्पना करता है । तो ज्ञानस्वभावी पदार्थ है, उसी को ही आत्मा कहते हैं । तो आत्मा है और अनादि से है, अनंतकाल तक रहेगा, अपने-अपने परिणाम के अनुसार यह अवस्थायें पाता है इस कारण इसको दुःख की अवस्था न मिले, शांति की अवस्था प्राप्त हो ऐसा उद्यम करना चाहिए ।