शीलपाहुड - गाथा 22: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
वारि एकम्मि य जम्मे सरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो ।
विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकांतारे ।।22।।
(43) विषयविषपान से अनेक जन्मों में आत्मप्राण का घात―जो ऊपर के छंद में बात कही थी उसी का स्पष्टीकरण कर रहे हैं कि विष की वेदना से जीव मरा तो एक जन्म में ही मरा, मगर विषयरूपी विष से जो जीव मरा वह संसार में जन्म ले-लेकर अनेक बार मरता है । ये विषय ऐसे विष है और तथ्य तो यह है कि जिसने अपने शील अमृत का पान नहीं किया, आत्मा का स्वरूप अमूर्त ज्ञानमात्र, शरीर में इस समय अवस्थित परमात्मतत्त्व, भगवान जैसा स्वभाव उस स्वरूप को जिसने नहीं देखा, उस स्वरूप का जिसने अनुभव नहीं किया वह पुरुष सुख तो चाह रहा है और भीतर यह सुख स्वरूप है उसका इसे पता है नहीं, सो यह बाहर में सुख ढूंढ़ता है और पंचेंद्रिय के विषयों को अपने सुख का साधन मानकर उनका संग्रह करता है । फल क्या होता है कि अपने शील से उल्टे चल रहे ना, तो शील से उल्टी प्रवृत्ति होने के कारण ऐसे कर्मों का बंध होता जो इस जीव को चिरकाल तक संसार में भ्रमाते हैं । कर्म-कर्म तो सब कहते हैं, पर कर्म असल में चीज क्या है, इसके बारे में जैनसिद्धांत के जाननहार को छोड़कर प्राय: पता नहीं । वे तकदीर है, कोई रेखा है, कोई भाग्य है, अनेक शब्दों से बोलेंगे, मगर स्पष्टतया जैसे हम कहते हैं कि यह चौकी है, यह तख्त है ऐसी ही कोई वास्तव में चीज है क्या कर्म? तो जैन सिद्धांत बतलाता है, कर्म हैं । जैसे ये दिखने वाले पदार्थ स्थूल हैं, पुदगल है ऐसे ही स्थूल तो नहीं, किंतु सूक्ष्म ऐसे पुद᳭गल हैं कि जो पुद᳭गल कार्माणवर्गणायें जीव के बुरे भाव का, शुभ अशुभ भाव का निमित्त पाकर कर्मरूप बन जाती है और उन कर्मों का जब उदय होता है तब इस जीव में अक्स पड़ता है वहाँ इसके एक क्षोभ होता है जिससे यह जीव दु:खी होता है । वे कर्म बंध कैसे जाते हैं? तो उन कर्मों के बंधने का कारण है अपने शील के खिलाफ चलना । हमारा शीलस्वभाव है ज्ञान । उस ज्ञान शीलस्वभाव के खिलाफ चलेंगे तो कर्म बंधेंगे । जन्ममरण करेंगे, संसार में भ्रमण करते रहना पड़ेगा ।
(44) आत्मशील की उपासना से ही आत्मकल्याण―भैया ! जब सारा उपाय, सारे साधन, सर्वस्व चीज हम में तैयार है, कल्याण की बात किसी दूसरी जगह से लाना नहीं है, हम ही स्वयं कल्याणरूप हैं तो क्यों नहीं अपने में दृष्टि की जाती है? क्यों नहीं अपने आपको ज्ञान में विभोर किया जाता है? इन विषयकषायों की भावना को छोड़कर अपने शीलस्वभाव की दृष्टि करनी चाहिए । धर्म का सार क्या है? जितना जो कुछ भी पढ़ा-लिखा जाता है वह अपने शीलस्वरूप आत्मा को जानकर शील में रम जाने के लिये । तो अपना एक निर्णय बनायें कि सार की चीज बाहर कहीं नहीं है । सार चीज है तो मेरे आत्मा में ही है । मेरे आत्मा से बाहर मेरे कल्याण का कहीं स्थान नहीं है । ऐसा निर्णय करके अपने में इस स्वभाव को देखें और ज्ञातादृष्टा रहकर अपने शील की सत्य पूजा करें, यह कार्य तो आत्मा के कल्याण का है, बाकी बाहर कितना भी भटकते रहें, उससे आत्मा का न उद्धार है, न अभी भी सुख शांति है । इससे एकचित्त होकर एक निर्णय बनाकर अपने ज्ञानस्वभाव की आराधना का प्रयत्न करें ।