शीलपाहुड - गाथा 38: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
जिणवयणगहिदसारा विषयविरत्ता तपोधणा धीरा ।
सीलसलिलेण ण्हादा ते सिद्धालयसुहं जंति ।।38।।
(78) जिनवचनगृहीतसार आत्माओं का सिद्धालयलाभ लेने के लिए अधिकार―सिद्धात्मा के आनंद को कैसे जीव प्राप्त करते हैं, इसका वर्णन इस गाथा में किया गया है । जिन्होंने जिनेंद्रप्रणीतवचनों से सार ग्रहण किया है, जो विषयों से विरक्त हैं, तपस्वी हैं, धीर हैं ऐसे पुरुष शीलरूपी जल से स्नान किए हुए मोक्ष के सुख को प्राप्त करते हैं । इससे सर्वप्रथम कहा गया है कि जिन वचनों से जिन्होंने वस्तु का यथार्थस्वरूप जाना है वे पुरुष सिद्धालय को प्राप्त होते हैं । तो जीवों के कल्याण का प्रारंभ जिन वचनों से होता है कुछ सुने तब उस पर मनन चले और आत्मविकास की उन्नति हो तो सर्वमूल जिनागम रहा, जिससे सिद्ध होता कि सर्व कल्याण का मूल प्रारंभ स्वाध्याय से चलता है । तो जिन वचनों से जो वस्तुस्वरूप जाना उसका सार ग्रहण किया गया है । सार क्या है? अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति । धर्ममार्ग में जो कुछ भी ज्ञान है, चारित्र है, उस सबका उद्देश्य है शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होना । आत्मा को मोक्ष चाहिए तो मोक्ष अवस्था में जो कुछ यह जीव रहता है, बनता है उसका तो ज्ञान चाहिए । किसी पुरुष को किसी गांव में जाना है, गांव को यदि देखा हुआ है तो पूरा चित्रण उसके उपयोग में है तब तो जा रहा है । नहीं देखा है तो सुन-सुनकर उसका कुछ ज्ञान है चित्त में तब जा रहा है । मोक्ष जाना है तो कुछ तो निर्णय होना चाहिए कि मोक्ष क्या चीज है, मोक्ष में आत्मा किस तरह रहता हे, वहाँ क्या वर्तता है ? मोक्ष में आत्मा अकेला जितना इसका सहज स्वरूप है, जो कुछ स्वरूप सत्त्व है मात्र वही रहता है, उसके साथ अन्य का संयोग नहीं है, ऐसी जो अत्यंत विविक्त अवस्था है उसका नाम मोक्ष है, तो मोक्ष में रहा यह आत्मा ज्ञानमात्र, अकेला अपने स्वरूपास्तित्व वाला है, तो वहाँ अनंत आनंद है । इसका कारण यह है कि आत्मा का स्वरूप आनंद है । अनुपम आनंद है, आनंद से रचा हुआ है । ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ज्ञान के अविनाभावी आनंद से, आनंद के अविनाभावी ज्ञान से निश्चित समृद्ध है, वही सिद्ध अवस्था में व्यक्त हुआ है । तो जो सिद्ध अवस्था में आत्मा प्रकट होता है वह उस स्वरूप वाला सब कुछ अभी भी यहाँ हैं, अनादि से ऐसा ही है, किंतु कर्म और विकार के कारण यह स्वरूप ढका हुआ है, पर मोक्ष अवस्था में कोई नई बात बनती हो या कोई नई चीज इसमें आती हो सो बात नहीं है । जो है वही पूर्ण सिद्ध हो गया, इसी के मायने है मोक्ष । तो मोक्ष में क्या है? केवल ज्ञानज्योतिर्मय आत्मा, जिसके साथ न विकार है न कर्म है, न शरीर है, तो ऐसा ही स्वरूप इस समय यहाँ दिखता अपने में कि मैं स्वरूपास्तित्व से जो हूँ सो वही उतना ही मात्र हूँ । उस स्वरूप में विकार नहीं, कर्म नहीं, शरीर नहीं, शरीर और कर्म ये तो अत्यंत जुदे सत् पदार्थ हैं, उनका तो मेरे में सद्भाव कैसे हो सकता है? अब रहे विकार, सो ये विकार मेरे स्वरूपत: नहीं उत्पन्न हुए, किंतु आत्मा में ऐसी योग्यता है कि कर्मविपाक के बंधे हुए कर्मों का अनुभाग जैसा उदित होता है और जो कुछ गड़बड़ी विकार उन कर्मप्रकृतियों में होती है वहाँ चित्रित हो जाती है । फिर यह जीव चित्रित होने के कारण एक ज्ञान में धक्का पाता है जिसके कारण स्वरूप से विचलित होकर यह बाह्य पदार्थों में लग जाता है । तो ये विकार आत्मा के स्वरूप नहीं हैं, किंतु कर्मों के विकार को अपनाने की बात है । तो स्वरूप इस विकार से भी जुदा है, तो ऐसे अविकार, शरीररहित, कर्मरहित, ज्ञानमात्र अपने स्वरूप को निरखना यह ही सार का ग्रहण करना है । अपने सार कारणसमयसार में उपयोग रमायें, सर्वसिद्धि होगी ।
(79) कारणसमयसार को ग्रहणकर विषयविरक्त हुए आत्माओं का मोक्षमार्ग पर अधिकार―जिन जीवों ने जिन वचनों के प्रसाद में शुद्ध आत्मतत्त्व के सार को ग्रहण किया है वे ही पुरुष विरक्त होते हैं । विषयों में लगा रहे कोई, तो मोक्षमार्ग में कैसे गमन कर सकता है? वह तो विषयों में ही लंपट हो गया । तो आत्मस्वरूप में पहुंच पाने के लिए विषयों की गिरफ्तारी से निकलना अत्यावश्यक हैं, सो विषयों से विरक्ति ज्ञानपूर्वक होती है । वास्तविक ज्ञान वह है जिस ज्ञान में ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व ज्ञात होता हो और विषयों से विरक्ति रहती हो । यदि ये दो बातें नहीं हैं कि ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व का परिचय होना, और विषयों से विरक्ति होना, तो वह ज्ञान ज्ञान नहीं कहलाता । तो उस सहज ज्ञानस्वरूप को ग्रहण करने के कारण जीव के विषयविरक्ति होती है । तो जो विषयों से विरक्त हैं वे ही पुरुष मोक्षमार्ग में बढ़ सकते हैं । ज्ञान का और विषयविरक्ति का परस्पर प्रगति कराने वाला संबंध है । ज्यों-ज्यों विषयों से विरक्ति बढ़ती है त्यों-त्यों यह आत्मा अपने सारभूत ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में मग्न होता है, जगता है, प्रकाश पाता है और जैसे-जैसे ज्ञान में सहज ज्ञानस्वभाव प्रकाशित होता है वैसे ही वैसे विषयविरक्ति बढ़ती जाती है । तो जो पुरुष ज्ञानस्वरूप का भान कर चुके हैं वे विषयविरक्त होते हैं और विषयविरक्त पुरुष ही मोक्षसुख के अधिकारी होते हैं ।
(80) जिनवचनों से आत्मसार विदित कर विषयविरक्त आत्माओं का तपस्वी व धीर होकर मोक्षमार्ग में अधिकार―जिन वचनों से अंतस्तत्त्व का सार ग्रहण कर विषयों से जो विरक्त हुए हैं वे ही पुरुष तपश्चरण को स्वीकार करते हैं और जो शरीर में आसक्त हैं, मोही है वे पुरुष तपश्चरण क्यों करें? वे तो शरीर में आत्मबुद्धि के कारण जिस प्रकार वे आराम समझते हों उस प्रकार की कषाय में रहेंगे । तो तपश्चरण का कारण है विषयों से विरक्ति । तो जो पुरुष विषयों से विरक्त होते हैं व तपश्चरण को स्वीकार करते हैं । तपश्चरण में इच्छाओं का निरोध है, आत्मा के ज्ञानस्वरूप के आलंबन का बल है और इस बल प्रयोग से वह अपने में चैतन्यस्वरूप का प्रताप पाता है । तो ऐसे तपस्वी जन मोक्षसुख के अधिकारी होते हैं । जो पुरुष जिनागम से अंतस्तल के सार को प्राप्त कर चुके हैं और इस ही कारण विषयों से विरक्त हुए हैं और इस कारण तपश्चरण में लवलीन हो रहे हैं वे पुरुष धीर होते हैं । जिनका ज्ञान अविचलित निष्कंप प्रसन्नता को लिए हुए रहता हो उन पुरुषों को धीर कहते हैं । धीर पुरुष क्षमाशील होते हैं, वे किसी के द्वारा किए गए उपद्रव पर कुछ भी चित्त में क्रोधभाव नहीं लाते, क्योंकि उन्हें सर्व मायाजाल दिख रहा है । उपसर्ग भी माया है, उपसर्ग करने वाला भी मायारूप है, और कोई यदि उपसर्ग का निवारण करे तो वह भी एक मायारूप है । ऐसा बाह्य पदार्थ का सम्यक् बोध रहने के कारण वह पुरुष धीर रहता है, ऐसे धीर पुरुष मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं ।
(81) गृहीतात्मसार विषयविरक्त तपोधन धीर पुरुषों को शीलसलिल से स्नात होकर ही सिद्धावस्था की प्राप्ति―जिन पुरुषों में इतनी योग्यता आ चुकी है कि अंतस्तत्त्व का सार ग्रहण कर चुके हैं, विषयों से विरक्त हुए हैं, तपस्वी हैं, धीर हैं वे पुरुष शीलरूपी जल से स्नान कर चुके हुए मोक्ष के सुख को प्राप्त करते हैं । शीलजल क्या है? आत्मा का वह स्वच्छ बढ़ा हुआ सहज ज्ञानप्रकाश । उस ज्ञानप्रकाश में जिसने अपने उपयोग को नहलवा दिया है, निर्मल कर दिया है ऐसे स्नातक पवित्र आत्मा मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं । 5 प्रकार के निर्ग्रंथों में अंतिम निर्ग्रंथ का नाम स्नातक शब्द दिया है । स्नातक का अर्थ है―अरहंत भगवान । जो केवल ज्ञानोपयोग से निरंतर रहते हैं निर्विकार ज्ञानमात्र, जिनका प्रकाश लोकालोकव्यापक है, वे ज्ञानसलिल से स्नान किए हुए कहलाते हैं, ऐसे पवित्र प्रभु सिद्धालयसुख को प्राप्त करते हैं ।