समयसार - गाथा 129: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो ।
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ।।129।।
चूँकि ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय ही भाव होते हैं इस कारण ज्ञानी जीव के समस्त भाव ज्ञानमय ही होते हैं । और अज्ञानमय भावों से अज्ञानमय ही भाव होते हैं इस कारण अज्ञानी जीव के अज्ञानमय ही भाव होते है ।
ज्ञानी के ज्ञानमय भाव होने का कारण―भैया ! एक नीति है उपादानकारण सदृशं कार्य भवति―उपादान कारण के सदृश कार्य होता है । जैसे गेहूँ से अंकुर उत्पन्न होता है, चने के बीज से चने का अंकुर उत्पन्न होता है इसी प्रकार जिन जीवों को वस्तु के स्वरूपास्तित्व का दृढ़ निर्णय होने से स्व-पर का विवेक जग गया है, स्व का हित और अहित, किसी पर वस्तु की परिणति से होने की जिसकी मान्यता नहीं रही है और परद्रव्य को उसी परद्रव्य से परिणमा हुआ जो देखा करता है ऐसा पुरुष अन्याय, पक्ष, हठ आदि अट्टसट्ट बातों को नहीं बोल सकता । उनकी जितनी प्रवृत्तियां होगी वे ज्ञानमय प्रवृत्तियाँ होगी । प्रवृत्तियां न ज्ञानमय होती हैं न अज्ञानमय होती हैं । देह की प्रवृत्तियों तो सब जड़ प्रवृत्तियां है । और जड़ प्रवृत्तियों के कारणभूत कुछ राग द्वेष वृत्तियाँ भी हो जायें ज्ञानमय भाव फिर भी ज्ञानीजीव के जागृत रहता है ।
अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होने का कारण―अज्ञानमय भावों से जो भाव होते हैं वे सभी अज्ञानमयता को उल्लंघ करके नहीं होते सो अज्ञानमय भाव अज्ञानी के हुआ करते हैं । जैसे कि ज्ञानमय भावों से जो भी भाव होगा वह ज्ञानमयता को उल्लंघता नहीं इस कारण ज्ञानमय ही होता है । ज्ञानी के समस्त भाव ज्ञानमय होते हैं । वैसे ही अज्ञान के भावों में अज्ञानमयता का उल्लंघन न होने से समस्त भाव अज्ञानमय होते हैं ।
अज्ञानी और ज्ञानी के संग का प्रभाव―अज्ञानी मित्र होने से, मूढ़मित्र होने से बहुत-बहुत शल्य और बीच-बीच में विपत्तियां मिला करती हैं ꠰ यद्यपि वह मित्र है, हित की ही बात चाहता है पर वह क्या करें । उसका उपादान तो मूढ़ है । तो हित चाहते हुए भी ऐसी बात कहो बोल जाये कि जिससे वे वचन इसका असम्मान करने वाले हो सकते हैं और ज्ञानी जीव से बुराई भी हो जाये तो भी उसके द्वारा धोखा खतरा संभव नहीं है ꠰ भले ही अपनी नीति की सीमा में वह अपना कठोर व्यवहार रखे पर अन्याय और अयोग्य वृत्ति उसके नहीं हो सकती । कोई लोग तो ऐसा भी मान बैठे हैं कि चूँकि रावण की मृत्यु राम से हुई है सो रावण को मोक्ष हो गया । बड़े आदमी के द्वारा मर जाये यह भी बड़ा सौभाग्य है । यह तो उनकी बढ़कर बात हैं । लेकिन जैसे अंजना ने चाहा था कि यह पवनकुमार मुझे गालियां भी देवें लेकिन बोले तो कुछ, मुंह नहीं फेर रहे, बात भी नहीं बोलते हैं, दर्शन भी नहीं देते हैं, कम से कम गालियां ही दे-दे, बुरे वचन ही बोले पर सामने दिखाई दे जाएँ, यहाँ तक चाह हो गई थी । इसका मतलब यह कि ज्ञानी जीव से किसी भी रूप में हो मिलन तो हो जाये । चाहे सबके द्वारा निरादर होती हुई स्थिति में ही मिलन हो पर मिलन हो तो ज्ञानी से । चाहे ज्ञानी के थोड़ा क्रोध भी मेरे प्रति आ जाये पर मिले तो ज्ञानी ।
ज्ञानी के क्रोध में भी अज्ञानी की प्रसन्नता से अधिक हितकारिता―अज्ञानी की प्रसन्नता से भी अधिक हितकारी ज्ञानी का क्रोध होगा । अज्ञानी जीव की प्रसन्नता हितकारी नहीं हो सकती क्योंकि ज्ञानी जीव के अंतर में ज्ञानमय भाव होता है । किसी हित के लिए ही ज्ञानी जीव के कषाय उत्पन्न होती है । स्वार्थ के लिए नहीं होती है । कदाचित् हो भी कषाय तो भी उसका आंतरिक मूल शुद्ध ही होगा । उद्देश्य, लक्ष्य ज्ञानी का अशुद्ध नहीं हो सकता क्योंकि उसने आत्मस्वरूप को साक्षात्कार किया है, अनुभव किया है और स्पष्ट निर्णय हुआ है । अब उसके स्वार्थ वासना की बात के लिए कोई गुंजाइश नहीं रही । जैसे अज्ञानी जीव सिखाते-सिखाते भी हित की और ज्ञान की बात नहीं कर सकता है इसी तरह ज्ञानी पुरुष भी सिखाये-सिखाये भी मूढ़ता की बात नहीं कर सकता है । जंबूस्वामी को उनकी स्त्रियाँ दिन रात घेरे रहती थी और उन्हें ऐसी कहानी सुनाया करती थी कि जंबूस्वामी का चित्त घर के लोगों में हो जाये पर जिसके ज्ञानस्वरूप का साक्षात्कार हुआ है ऐसे पुरुष पर मोह की बातों का रंग नही चढ़ता है । हाँ प्रबल उदय आए और ज्ञान ही ज्ञानभाव को छोड़कर अज्ञानभावमय हो जाये तो वह ज्ञानी रहा ही नही । तो ज्ञानमय भाव की आशा नहीं है ।
अभेद पदार्थ में भेदविवक्षा से कथन―निश्चय रत्नत्रयमय जीव पदार्थ से अर्थात् ज्ञानीजीव से अथवा ज्ञानमयभाव से जो भी भाव होता है वह ज्ञानमय भाव होता है ꠰ इसका अर्थ क्या है कि ज्ञानमयभाव के ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय ही भाव होता है । तब सभी कारक एक ही बात हो गई । तो क्या सिद्ध हुआ कि जीव ही भावात्मक पदार्थ है । उससे एक भाव को धर्मी बनाया और एक भाव को धर्म बनाया । जीव ज्ञानमय है अर्थात् ज्ञानमयभाव स्वरूप है । वह ज्ञानमय भाव ही ज्ञानी जीव का ज्ञानमय भाव होता है । वह ज्ञानमय भाव क्या है? शुद्ध आत्मा की परिणति अथवा मोक्षरूपी पर्याय होती है ꠰ इस कारण स्वसम्वेदनरूप भेदविज्ञानी जीव समस्त ज्ञानभाव से ही रचा हुआ है, पर जिसके शुद्ध आत्मा की उपलब्धि नहीं है ऐसे पुरुष के मिथ्यात्व रागादिकरूप परिणाम होते हैं । ज्ञानी के सर्व भाव ज्ञान से रचे हुए हैं ।
दृष्टांतपूर्वक ज्ञानी के अंतरंग व बहिरंग का दर्शन:―जैसे माँ गुस्सा में आकर बच्चे को मुक्का भी मारे तो बच्चे को यों दिखाते हुए मुक्का मारती है कि उस मुक्के से जान निकल जायेगी पर बड़े वेग से आकर पीठ पर मुक्का फूल सा नहीं तो गेंद के मानिंद ही आ कर पड़ता है । क्योंकि उसके भीतर में मातृत्व भाव है, मगर कुछ ऐसा कारण हो आता है कि माँ के लिये उस बच्चे को पीटना ही पड़ता है इसी प्रकार ज्ञानी जीव के ज्ञानभाव स्थित होता है कदाचित् पूर्व अवस्था में कुछ क्रोध करने अथवा अपना गौरव रक्षित रखने की ऐसी कोई परिस्थिति भी आ जाये तो भी ये ऊपरी मुक्के दिखाने के समान हैं । भीतर से ज्ञानभाव जागृत रहता है । वह शरण मानता अपने शुद्ध आत्मस्वभाव का ही । ज्ञानी जीव का भाव ज्ञान से ही रचा हुआ होता है और अज्ञानी के समस्त भाव अज्ञान से ही रचे हुये होते हैं, इस ही बात को दृष्टांत के द्वारा समर्थित करते हैं।