समयसार - गाथा 216: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं ।
तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि ।।216।।
वेद्य-वेदकभाव की क्षणिकता―वस्तुस्वरूप के बहुत मर्म की बात ज्ञानी सोच रहा है उपभोग के संबंध में कि दो प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं, एक इच्छा के समय का भाव और दूसरा भोगने के समय का भाव । इच्छा के समय के भाव का नाम है वेद्यभाव और भोगने के समय के भाव का नाम है वेदकभाव । क्या वेद्यभाव सदा रहता है? इच्छा का परिणमनरूप किया भाव क्या सदा रहता है? वह तो होता चला जाता है । समय-समय में नष्ट होता जाता है । इसी प्रकार उपभोग के भोगने का भाव क्या सदा रहता है? भोग का भी भाव समय-समय में नष्ट होता है ।
वेद्य-वेदकभाव की क्रमवर्तिता―भैया ! एक समय में जीव में क्या दो परिणाम हो सकते हैं कि इच्छा का भी परिणाम रहे और उसही के भोगने का भी परिणाम बने? जिस काल में इच्छा का परिणाम है उस काल में भोगने का परिणाम नहीं है और जिस काल में भोगने का परिणाम है उस काल में इच्छा का परिणाम नहीं है । सीधी बात देखो कि जब आपको यह इच्छा है कि इस समय 25 रु0 की आय होना चाहिए । इस इच्छा के समय में 25 रु0 आपके सामने हैं क्या? अगर हैं तो इच्छा ही नहीं हो सकती कि 25 रु0 की आय हो, चाहे नई इच्छा कर लो कि और 25 रु0 आने चाहिए । तो जो हस्तगत है उनकी चाह नहीं होती याने जो भोग भोगा जाता है उसकी चाह नहीं होती । जब इच्छा हो रही है तो इसका अर्थ है कि वह चीज आपके पास नहीं है और जो चीज पास नहीं है उसका अर्थ है कि उसका भोग नहीं हो रहा है । तो जब इच्छा हो रही है तब भोग नहीं होता और जब भोग हो रहा है तब इच्छा नहीं होती ।
मोहियों के वेद्य के समय में वेदकभाव की उत्सुकता―बड़े लोग, समर्थ लोग, पुण्योदय वाले लोग यह चाहते हैं कि जो हम चाहें सो तुरंत पूर्ति हो । कोई धैर्य नहीं करता, गम नहीं खाता । जैसे आपकी घर में इच्छा हुई कि आज तो पापड़ बनने चाहिए । तो आप कितनी विह्वलता करते हैं कि अभी बनने चाहिए । तो आप के घर में पत्नी कहती हैं कि आज कैसे बन सकते हैं । तो कहते हो कि नहीं, नहीं जल्दी तैयार करो । तुरंत तैयार करो । क्या चीज नहीं है जो आज नहीं बन सकते हैं । बतलाओ जो चीज न हो ला दें । जब इच्छा हुई तो उसी समय लोग उसे भोगने में अपना बड़प्पन महसूस करते हैं । हमारा उदय अच्छा है, हम बड़े हैं, हम जो सोचें वह तुरंत होना चाहिए । अच्छी बात है । उसमें इतनी देर न लगना चाहिए । एक घंटा लगना चाहिए । तो क्या 5 मिनट लगना चाहिए? पाँच मिनट भी न लगना चाहिए । एक मिनट लगे, एक सेकेंड लगे ! नहीं इच्छा तो ऐसी रहती है कि जिस समय इच्छा करूं उस समय पूर्ति हो । तो यह बात तो हो ही नहीं सकती । वस्तुस्वरूप नहीं कहता कि जिस काल में इच्छा हो उसी काल में उपभोग भी हो ।
वेद्यभाव व वेदकभाव का परस्पर में विरोध―भैया ! वेद्यभाव व वेदकभाव इन दोनों का परस्पर में विरोध है । जैसे राग और वैराग्य का विरोध है कि राग है तो वैराग्य का परिणाम नहीं है, वैराग्य है तो राग का परिणाम नहीं है, संसार और मोक्ष में विरोध है कि जिस समय संसार है उस समय में मोक्ष नहीं है, जिस समय में मोक्ष है उस समय में संसार नहीं है । मोक्ष होने के बाद फिर संसार नहीं होता, यह यहाँ विशेष है । इसी प्रकार इच्छा और भोग इन दोनों परिणामों में विरोध है । जिस काल में इच्छा है उस काल में उस ही पदार्थ संबंधी भोग नहीं है, जिस काल में भोग है उस काल में उस पदार्थ संबंधी इच्छा नहीं है ।
वेद्यभाव व वेदकभाव के युगपद् न होने पर दृष्टांत―एक मनुष्य धूप से सताया गया गर्मी में चला जा रहा है, जब बड़ी तेज धूप लगी तो उसके इच्छा होती है कि मुझे छायादार वृक्ष मिल जाये । छायादार वृक्ष पा लिया, उन वृक्षों के नीचे विश्राम कर दिया । जिस समय इच्छा कर रहा है उस समय क्या उसके ऊपर छाया है? नहीं है । वह सताया हुआ है, और मिल जाये छाया वाला वृक्ष और उस छाया के नीचे पहुंच जाये तो पहुंचने पर वह छाया का सुख भोगता है या वहाँ यह इच्छा करता है कि हे प्रभो मुझे छाया मिल जाये? उस समय वह इच्छा नहीं करता । वह उस समय विश्राम का आनंद लेता है, इच्छा नहीं करता है । तो भोग के समय में इच्छा नहीं है और इच्छा के समय में भोग नहीं है ।
ज्ञानी का ज्ञातृत्व―भैया ! बड़प्पन माना जाये तब जब कि इच्छा के ही काल में भोग हो जाये । इच्छा पहिले हुई, भोग बहुत बाद में होगा । ऐसा अंतर तो कोई नहीं सहना चाहता । पर क्या हो सकता है ऐसा कि इच्छा के ही काल में उपभोग हो जाये? कभी नहीं हो सकता । ऐसा ज्ञानी जानता है कि जिस काल में इच्छा करें उस काल में मिलता तो कुछ है नहीं और जिस काल में मिलता है उस काल में इच्छा पिशाचिनी रहती नहीं, तब फिर इच्छा क्यों की जाये? ऐसा ज्ञानी पुरुष का परिणाम रहता है । यह ज्ञानी आत्मा तो ध्रुव होने के कारण अथवा इसका जो स्वभाव है, ज्ञायकस्वरूप है वह ध्रुव है सो ज्ञानी आत्मा तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल स्वतःसिद्ध एक ज्ञायकस्वरूप रहता है, शाश्वत नित्य रहता है और जो वेद्य वेदक भाव है इच्छा का परिणाम और भोगने का परिणाम यह उत्पन्न और ध्वस्त होता रहता है । ये विभाव भाव हैं इसलिए क्षणिक हैं ।
वेद्यभाव की पूर्ति का अभाव―भैया ! अपने आपमें तीन बातें देखो―स्वयं, इच्छा और भोग । स्वयं तो नित्य है और इच्छा और भोग ये दोनों अनित्य हैं, उत्पन्न होते हैं, नष्ट हो जाते हैं । अब चाहने वाला यह स्वयं है । यह तो अवश्य नित्य है किंतु चाहने की पर्याय पर्यायरूप से तो अनित्य है । इस अपने को पर्यायरूप में न निरखकर नित्य निरखो । इसमें एक परिणाम होता है जो इच्छा को बनाता है तो चाहा हुआ जो वेद्य भाव है उस वेद्यभाव को जो वेदेगा वह वेदने वाला भाव जब उत्पन्न होता है तो चाहा जाने वाला भाव नष्ट हो जाता है, अर्थात् जब भोगने के परिणाम होते हैं तो इच्छा संबंधी भाव नष्ट हो जाता है । जब वह कांक्षमाण भाव, इच्छा वाला भाव नष्ट हो गया तो भोगने वाला भाव अब किसे वेदे? भोग उस इच्छा में नहीं भोग सकते । जब उस इच्छा में नहीं भोग सके तो इच्छा चाह करके ही मर गई । इच्छा का काम इच्छा के ही समय में नहीं हो सकता ।
चाह की तरस तरस कर ही मरने के लिये उत्पत्ति―जैसे किसी मनुष्य या स्त्री के बारे में कोई कहता है कि देखो वह बेचारा तो अमुक बात के लिए तरसता-तरसता ही मर गया, उसकी पूर्ति नहीं हो सकी । तरस-तरस कर प्राण गंवा दिए । इस प्रकार यह इच्छा भी तरस-तरस कर अपना विनाश कर लेती है । इच्छा का काम किसी भी पुरुष के नहीं बनता है, चाहे तीर्थंकर हो, चाहे चक्रवर्ती हो, साधारण मनुष्य हो, किसी के भी इच्छा की पूर्ति नहीं होती इच्छा के समय में, पर इच्छा तरस-तरस कर ही विनष्ट हो जाया करती है । ऐसा ज्ञानी पुरुष जानता है । इस कारण ज्ञानी पुरुष कुछ भी चाह नहीं करता । क्यों की जाये चाह, यह चाह तो चाह-चाहकर रह-रह कर नष्ट हो जायेगी । इससे कल्याण नहीं है । ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष भविष्यत् उपभोगों को नहीं चाहता है ।
वेद्य-वेदकभाव की अनवस्था―ज्ञानी जीव यह जानता है कि इच्छा के समय में उपभोग नहीं है और उपभोग के समय में इच्छा नहीं है तो इच्छा उपभोगरहित ही रही । जिस समय इच्छा की जा रही है किसी उपभोग की तो जब उपभोग का काल आता है तो इच्छा का भाव नष्ट हुआ, फिर वह उपभोग का परिणाम किस इच्छा को वेदे? यदि यह कहा जाये कि कांक्ष्यमाण वेद्यभाव की अनंतर होने वाली अन्य इच्छा को भोगेगा तो जब दूसरी इच्छा होगी, उससे पहिले वह वेदक भाव नष्ट हो जायेगा, उपभोग का परिणाम समाप्त हो जायेगा फिर उस इच्छा को कौन वेदेगा? यदि वेदक भाव के पश्चात् होने वाले भाव को वेदेगा ऐसा सोचा जाये तो वह वेदकभाव होने से पहिले ही वह वेद्य भाव नष्ट हो जायेगा, फिर वह वेदक किस वेद्य को वेदेगा? इस तरह कांक्ष्यमाणभाव और वेदकभाव इनकी अनवस्था हो जायेगी । इससे सीधा यह जानना कि इच्छा का भाव और भोग का भाव एक समय में नहीं होते हैं । जब भोग है तब इच्छा नहीं है और जब इच्छा है तब भोग नहीं है ।
ज्ञानी के भोग की वांछा के अभाव का कारण―भैया ! भोग ने किसी इच्छा का समागम नहीं कर पाया । कहो भोग के बाद जो इच्छा होगी उसे भोगेगा । पहिली इच्छा के बाद जो नई इच्छा होगी उसे भोग लेगा । तो नई इच्छा के पहिले तो भोग भी नष्ट हो गया । तात्पर्य यह है कि इच्छा की पूर्ति किसी के भी नहीं हो सकती । यह मोटी ही बात नहीं कही जा रही है किंतु सिद्धांत की बात कही जा रही है कि वस्तुस्वरूप ऐसा है कि इच्छा कभी पूर्ण हो ही नहीं सकती । इस सिद्धांत को जानने वाला ज्ञानी पुरुष किसी भी प्रकार की वांछा को नहीं करता । जब वेद्यभाव और वेदकभाव चलते हैं, नष्ट होते रहते हैं तो कुछ भी चाहा हुआ अनुभव में नहीं आ सकता । जब चाहा हुआ हो रहा है तब वह अनुभवविहीन है । जब अनुभव में आ रहा है तो चाहा हुआ नहीं है । इस कारण विद्वान ज्ञानी संत पुरुष कुछ भी चाह नहीं करते । परपदार्थों की चाह से वैभव से अत्यंत विरक्ति को प्राप्त होते हैं । इसको स्पष्ट करने के लिए अब यह अगली गाथा आ रही है ।