समयसार - गाथा 300: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
को णाम भणिज्ज वुहो णाउं सव्वे पराइये भावे ।
मज्झमिणंति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।।100।।
स्वकीय ज्ञान में परात्मबुद्धि का अभाव―अपने आत्मा को शुद्ध जानते हुए समस्त अन्य भावों को परकीय जान करके ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य होगा जो परकीय भावों को मेरा है―ऐसे वचन कहे । जिसको अपने और पराये का पता है वह तो पागल की नाई कभी अपने को अपना कह दे, कभी पराये को अपना कह दे, किंतु जिसको अपने भावों का निश्चय है और पराये भावों का निर्णय है वह पुरुष परकीय भाव को अपना नहीं कह सकता । हमने तो आप लोगों को एक दिन भी भूल की बात नहीं देखी कि कोई दूसरे के लड़के को अपना बोल देता हो । आप हमेशा अपने लड़के को ही खूब अपना कहते और गले लगाते और उसके पीछे जिंदगी भर मरते हैं । हमने तो कोई भूल नहीं देखी । तो जैसे लोक व्यवहार में आप सयाने चतुर है, वहाँ भूल नहीं करते हैं, वहाँ परमार्थ से सारी भूल पर जैसे व्यवहार में भूल नहीं करते ऐसे परमार्थ की बात जानकर भी तो वे भूल रहना चाहिएँ यहाँ दूसरे के लड़के को पराया बनाना और अपने घर के लड़के को अपना बताना विवेक नही है, यही भूल है । तो क्या पर के लड़के को अपना कहना और अपने लड़के पराया कहना यह विवेक है? यह भी भूल है । सबको पदार्थ समझना और उनके स्वरूप को अपने आत्मा के स्वरूप की नाई समझना । सो विवेक है ।
निरापद आत्मतत्त्व―निज आत्मा कैसा है ? शुद्ध है अर्थात् केवल है, खालिस है, अकेला है, अपने स्वरूपमात्र है । इसमें न शरीर है, न द्रव्यकर्म है, न रागादिक भाव है, कोई पर आपत्ति नही है, ऐसा यह शुद्ध आत्मा है जैसा ज्ञानी पुरुष जान रहा है । वह विधि तो बतावो जिस विधि से हम भी जानने की कोशिश करे । उसकी विधि पूछते हो तो उस शुद्ध आत्मा के जानने की विधि यह है कि सर्वपदार्थों को भिन्न और अहित जानकर अपने आपमें परम समतारस से परिणम होओ, यह विधि है आत्मा को जानने की । जानना हो तो यह विधि करके देख लो । और यह विधि करते न बने तो कम से कम इतनी सज्जनता तो रखिए कि अरे लोग ऐसी विधि कर लेते हैं, ऐसी श्रद्धा तो रखिये । अपनी ही तरह समस्त जीवों को अज्ञानी तो न समझिये ।
व्यर्थ का अहंकार―भैया ! सबसे बड़ा एक दोष जीव में यह आ गया है कि अपने मुकाबले किसी दूसरे को कुछ मानता ही नहीं है । वह जानता है कि दुनिया में पूरी डेढ़ अकल है, उसमें से एक अकल तो मुझे मिली है और आधी अकल सब जीवों में बांटी गयी है । यों यह अपने को बड़ा
समझता है कि मैं पूरी बुद्धिमानी के साथ चिंतन कर रहा हूं। पर काहे की बुद्धिमानी? केवलज्ञान उत्पन्न होने से पहिले तक छद्मस्थ अवस्था है, उनके अज्ञान का उदय कहा गया है औपाधिक भाव की अपेक्षा और उनका असत्य वचन भी बताया गया है 12वें गुणस्थान तक । तो सर्वज्ञता पाये बिना हम अपने को सब जैसा एकसा ही समझे । हमारी कोई ऐसी स्थिति नहीं है जो अहंकार के लायक हो ।
सर्वनैपुण्य के अभाव का एक उदाहरण―एक 18,19 वर्ष का लड़का बी. ए. पास करके उसकी खुशी में एक समुद्र में टहलने के लिए जाने लगा । तो समुद्र में नाव खेने वाले से कहता है कि ऐ मांझी, तू मुझे इस समुद्र की सेर करा । मांझी बोला कि 1) किराया होगा । हां 1) ले, और क्या चाहता है? अब नाव जब चलती है तो बैठे-बैठे चुपचाप नहीं रहा जाता, गप्पें की जाती है । एक नाव और एक नाई की हजामत, इनमें चुपचाप नहीं बैठा जाता है । जिसकी हजामत बन रही वह चाहे बैठा रहे चुप क्योंकि छुरा लगने का डर है, पर नाई तो गप्प करता ही रहेगा । वहां नाव में यह बी. ए पास बालक कहता है कि ऐ मांझी, तू कुछ पढ़ा लिखा है? बोला―नही मालिक । तो तू ए. बी. सी. डी भी नहीं जानता? बोला―नहीं मालिक । तो तू अ आ इ ई भी नहीं जानता? यह भी नहीं जानता । तो तेरा बाप पढ़ा लिखा है? बाप भी नहीं पढ़े लिखे है । हमारी परंपरा से यह नाव का व्यापार चल रहा है । वह लड़का बोला―बेवकूफ, नालायक, और भी कुछ गालियां देकर जिनको मैं नहीं जानता, कहता है कि ऐसे ही इन बिना पढ़े लिखे लोगों ने भारत को बरबाद कर दिया । अब सुनता गया बेचारा, क्योंकि अपराधी तो था ही, पढ़ा लिखा न था । जब नाव एक मील दूर पहुंच गई तो वहाँ ऐसी भँवर उठी कि वह नाव मँडराने लगी । सो वह बी. ए. पास बालक डर कर कहता है कि अच्छी तरह नाव खेना ताकि नाव डूब न जाये । तो वह बोला कि यह तो डूब ही जायेगी, ऐसी कठिन स्थिति है । और हम पर कृपा करना हम नाव छोड़कर तैरकर निकल जायेंगे । अब वह डरा । तो मांझी बोलता है कि बाबू साहब तुमने पानी में तैरना सीखा कि नहीं? बोला कि हमने नहीं सीखा । तो जितनी गालियां बाबू साहब ने दी थी उतनी ही गालियां देकर वह मांझी कहता है कि ऐसे लोगों ने ही भारत को बरबाद कर दिया है । मात्र ए. बी. सी. डी. पढ़ लिया, कला कुछ सीखी नहीं, इस कलाविहीन पुरुषों ने ही तो भारत को बरबाद कर दिया ।
अज्ञानी और ज्ञानी की लखन―तो भैया ! किसको कहा जाये कि यह अपने ज्ञान में पूरा है, कोई किसी प्रकार के ज्ञान में पूरा है, कोई किसी प्रकार के ज्ञान में पूरा है । अब हमसे आप कहने लगें कि जरा इतिहास पर भी व्याख्यान दो, तो क्या दे देंगे? भले ही पौराणिक बातों को कहकर थोड़ा, बोल दे, सो भी अधिक नहीं । तो काई मनुष्य किसी भी वैभव से पूर्ण संपन्न नहीं है, फिर ऐसा सोचना बिना सींग वाले पशु का ही काम है कि दुनिया को डेढ़ अकल है सो एक मिली हम को और आधी सबको बँट गयी । ज्ञानी पुरुष दूसरे को देखता है तो सबको एक स्वरूप में देखता है और जब परिणमन की मुख्यता से देखते हैं और व्यक्ति की अपेक्षा देखते हैं तो सबको अपने से न्यारे देखते हैं ।
अज्ञानी और ज्ञानी के पक्ष और निष्पक्षता―लोग अपने पुत्रों का पक्ष लिया करते हैं । उसने किसी को पीटा भी हो, किसी पर ऊधम भी किया हो तो जब झगड़ा आयेगा तब दूसरे बालक का ऐब देखेंगे, अपने बालक का ऐब न देखेंगे । कदाचित दूसरे लड़के वाले यह शिकायत करें कि तुम्हारे लड़के ने हमारे बच्चे को पीट क्यों? दिया तो क्या उत्तर मिलेगा कि हमारे लड़के के पास तुम्हारा लड़का बैठता क्यों है ? लो, यह कसूर मिला । किंतु जो ज्ञानी गृहस्थजन है वे अपने बच्चे के अन्याय का पोषण नहीं किया करते हैं । अपने पुत्र को भी, यदि अन्यायी है तो दंडित करते हैं । ऐसे ही उपयोग में दोष है तो अपने उपयोग को दंडित करते हैं ज्ञानीपुरुष ।
प्रज्ञा का पुरुषार्थ―जो अपने आत्मा को समतापरिणाम से परिणत होकर अभेदरत्नत्रयरूप भेदज्ञान से परिणत होकर शुद्ध आत्मा की भावना में निरत होकर अपने आपको शुद्ध केवल ज्ञायकस्वरूपमात्र जानता है और इन रागद्वेषादिक भावों को ये पर के उदय से उत्पन्न हो जाते हैं―यह निश्चय करता है, इस कारण मुझे यह पूर्ण निर्णय है कि मेरा तो एक नियत चैतन्यभाव ही है, अन्य कुछ मेरा स्वरूप नहीं है । फिर वह कैसे पर भावों को अपना कहेगा ? जो प्राणी ऐसी प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी बनता है, जो प्रज्ञा विभाव में और आत्मस्वरूप में नियत स्वलक्षण का विभाग पटकने वाला है उस प्रज्ञा के कारण जो ज्ञानी हुआ है वह तो एक चैतन्यमात्र भाव को आत्मीय जानता है । वह तो जो ज्ञान हो रहा है उस वृत्ति को भी नहीं पकड़ता है, जानता भर है कि यह भी नष्ट होने वाली चीज है, किंतु जाननरूप परिणमन का जो सात है ऐसा जो ज्ञायकस्वरूप है, ऐसा जो ज्ञानस्वभाव है उसको जानता है कि मैं हूँ । मैं तो ज्ञान के द्वारा एक चैतन्यमात्र अपने आपको जानता हूँ ।
चिन्मात्र भाव की धारणा―जो अन्य शेष भावों को परकीय जानता है ऐसा जानता हुआ यह ज्ञानी पुरुष परभाव का यह मेरा हैं―ऐसा कैसे बोल सकता है क्योंकि पर को और आत्मा को निश्चय से एवं स्वामी संबंध नहीं होता है, इस लिए सर्व प्रकार से चित्स्वरूप भाव ही ग्रहण करना चाहिए ओर बाकी शेष समस्त भाव दूर करने चाहिएं । जो चिड़िया का
सबसे छोटा बच्चा होता है उसे चेनुवा बोलते हैं । अभी यह चेनुवा है, इसे छेड़ो नहीं । जो चल नहीं सकता, हिल नहीं सकता, एक मांस का लेथड़ जैसा पड़ा हुआ है, जिसके श्वास का भी पता नहीं पड़ता कि चलता है या नहीं । जैसे तुरंत अंडा फूटा उसी समय जैसा लेथड़ हुआ उसे लोग चेनुवा कहते हैं । लोगों के कहने में बहुत पूर्वकाल में मर्म क्या था कि अभी इसके शरीर ही नहीं बना है । यद्यपि कुछ शरीर है मगर वह पूर्ण नहीं है इसलिए शरीर की दृष्टि नहीं है । जो साधारण चीज होती है उसको लोग मना करके कहते हैं । जैसे किसी लड़की को पेट कुछ पतला हो तो उसे क्या कहते हैं कि इसके पेट ही नहीं है । तो तुच्छ जैसी चीज रह जाये तो उसे लोग कुछ नहीं बोला करते हैं । तो उस चेनुवा को मनुष्य यह बोला करते कि उसके शरीर ही नहीं है । तो क्या है? चिन्मात्र । मात्र चैतन्य है, चित् के सिवाय यह और कुछ नहीं है । भाव तो किसी जमाने में यह था ।
स्वातंत्र्यसिद्धांत की सेवा―अब इस चिन्मात्र तत्त्व को भीतर की गहराई के साथ देखते चले जाएँ तो कैसा स्थिर ध्रुव, कुछ जिसके बारे में नहीं कहा जा सकता, ऐसा एक ज्योतिमात्र तत्त्व मिलेगा । उस चिन्मात्र प्रभु की उपासना का ऐसा बड़ा चमत्कार है कि जो पद तीन लोक में सर्वोत्कृष्ट है वह पद चिन्मात्र की आराधना करने वाले को मिलता है । इस कारण हे गंभीर दिल वालो, उदार चित्त वालो, अर्थात् जो जरा-जरासी बातों में विह्वल नहीं होते, आकुलित नहीं होते दूसरों के बारे में गलत नहीं सोचते ऐसे गंभीर और उदार चित्त वाले हे आत्मावो ! तुम मोक्ष के अर्थी तो हो ही, संसार का कुछ भी वैभव आप नहीं चाहते हो और न किसी वैभव को देखकर अपना बड़प्पन समझते हो । तो तुम्हें क्या चाहिए कि वस्तु की स्वतंत्रता वाले सिद्धांत की सेवा करो। ।
जैनसिद्धांत की प्रमुख विशेषता―भैया ! जैनदर्शन में अनेक विशेषताएँ हैं, जिनमें अक्सर लोग यदि पूछे कि जैन धर्म के महत्त्व की बात क्या है ? तो लोग बताते हैं कि इसमें त्याग का महत्त्व है, इसमें अहिंसा का महत्त्व है, इसमें अपरिग्रह का महत्त्व है । इसमें आचरणों को क्रम-क्रम से पालन करने की पद्धति बतायी है । पहिले इतना त्यागो, फिर इस तरह बढ़ो, इस तरह से अनेक बड़ी बातें हैं । हैं वे भी बड़ी बातें, मगर सबसे बड़ी बात यह है कि वस्तु का यथार्थ स्वरूप इस दर्शन में लिखा है, जिसके कारण मोह टूट जाता है, यह खास विशेषता है जैन सिद्धांत की और तो सब ठीक ही है ।
मुख्यलाभ के साथ गौणलाभ की प्राकृतिकता―बढ़िया खूब लंबी गेहूं की बाल पैदा हों तो भूसा तो खूब मिलेगा ही, यह भी काम की चीज है । किंतु इस भूसा से ही तो संतुष्ट तो किसान न हो जायेगा किंतु इस खेत में जो अनाज पैदा होगा उसका महत्त्व है । एक बीज में चार पांच अंकुश निकलते हैं और एक-एक अंकुश की बाल में 40-40 के करीब दाने होते हैं । यों कोई अनाज आदि उत्पन्न हो तो वह है खेती की विशेषता । मूल चीज में विशेषता है तो उसमें और चीजों की विशेषता होगी ही । जैनसिद्धांत के कुल में स्वयं ही यह बात देखी होगी कि न कोई जीव की हत्या करे, न कोई मांस खाते, न कोई मदिरा पीते और अब तो समय निकृष्ट आया ना, इसलिये बलपूर्वक यह कहने को त्यागियों की जबान गृहस्थ समाज ने रोक दी है कि मत बोलो कि इस कुल में रात्रि को नहीं खाया जाता है । जहाँ उत्तम आचरणों की प्रथा है, पापुलेशन देख लो सब जगह दृष्टि पसार कर, उन्हीं विशेषतावों की लोग तारीफ करते हैं, मगर जैनसिद्धांत की सर्वोपरि एक विशेषता को नजर लाएं, यहाँ वह प्रत्येक वस्तु को अपने ही स्वरूप में तन्मय बताने की उपदेश है जिसके अवगम से मोह हट जायेगा ।
वस्तुविज्ञान से सावधानी―भैया ! यदि वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान है तो तुम कितना ही इस मोह को रोको कि अरे मोह तू न खत्म हो, नहीं तो मोह का सारा मजा खत्म हो जायेगा तो भी मोह रह नहीं सकता क्योंकि वस्तु का स्वरूप आपकी दृष्टि में आया कि अरे मोह में आनंद है कहां? वस्तुस्वातंत्र्य के अनुभव से जो स्वाधीन सहज आनंद प्रकट होता है उसके अनुभव के बाद आप यह चाहेंगे कि हे सहज आनंद ! तुम ही सदाकाल रहो । मैं एक क्षण को भी अपने स्वरूप की दृष्टि से चिगकर किसी पर की ओर उन्मुख नहीं होना चाहता । मिलेगा क्या पर की उन्मुखता में अच्छा तुम किस पर की ओर उन्मुख होना चाहते हो, धन वैभव सोना चांदी ये जड़ है, अचेतन है, ये कुछ भी आपके धैर्य के लिए चेष्टा नहीं करते । तो नाक, थूक, मल आदि से भरे हुए दूसरे शरीर से भी क्या मिलेगा ? अपना ही सब खोकर जायेंगे मित्रजन, अनुरागीजन जो बड़ा प्रेम दिखाते हैं, यह प्रेम प्रदर्शन का बड़ा धोखा है कि हम आप ज्ञानानंदनिधान ब्रह्मस्वरूप से चिगकर अंधे और पागल हो जायेंगे ।
निर्विघ्नस्वगृह से न हटने का संदेश―भैया ! अपने इस सुरक्षित आनंदमय घर से निकलकर जगह-जगह ठोकर खिलाने वाले पर घर की ओर उन्मुख क्यों होते हो? जैसे सावन की तेज घटा में जब कि तेज वर्षा हो रही है, मूसलाधार वर्षा चल रही है और यदि हम बड़ी अच्छी कोठरी में बैठे हों जहाँ एक भी बूंद नहीं चू रही है तो ऐसी कोठरी से निकलकर मूसलाधार वर्षा में जाने का चाहेंगे क्या? इसी तरह इस सम्यक्त्व के काल में, जब कि अन्यत्र बाहर सब जगह क्लेश और चिंतावों का वातावरण छाया है मूसलाधार विपत्तियां नहीं हैं, बड़ा स्वाधीन सहजआनंद प्रकट हो रहा है ऐसी स्थिति आनंदमय निज में बैठकर एक बार आनंद से लुप्त होकर क्या तू इस मूसलाधार वर्षा में बाहर निकलना चाहता है ? ऐसा जो करेगा उसे बुद्धिमान् नहीं कहा जा सकता ।
अमोघ प्रकाश―इस जगत् में सर्वत्र अज्ञान और मोह का अंधेरा छाया है । जिस अंधेरे में बसा हुआ प्राणी अपने स्वरूप को शांति के मार्ग को तो प्राप्त करता ही नहीं, उल्टा क्लेश का उपाय बढ़ाया करता है । यदि जिनेंद्र देव का यह सद्वचन न होता तो जीव कैसे दु:ख से छूटकर सुख में पहुंच पाते? उपासना में चाहिए रागद्वेषरहित सर्वज्ञदेव और कर्तव्य में चाहिए रागद्वेष से परे होना―इन दोनों का उपाय बने कैसे ? इसका मात्र एक उपाय जो अत्यंत सुलभ है, बताया तीर्थंकर परमदेव ने कि हे आत्मन् ! तुम्हारा जो सहज ज्ञातृत्वस्वभाव है, चैतन्यस्वभाव है उसको जान लो तो तुम्हें प्रभु की भी श्रद्धा बनेगी और निर्दोषता का कर्तव्य भी बनेगा । भगवान ने स्पष्ट आगम में प्रकट किया है कि हे भव्य जीवों ! तुम लोगों के लिए प्रथम पदवी में तुम्हारे स्वरूप के ज्ञान के लिए मेरा शरण है, तुम्हारे स्वरूप के स्मरण के लिए तुम्हें शरण है, पर तुम केवल मुझको ही शरण मानकर मेरे पास मत आवो । किंतु अपना परमार्थ शरण जो तुम्हारे आत्मा में अंतस्तत्त्व बसा है उसकी शरण पहुंचो ।
जैन उपदेश की सत्य घोषणा―भगवान को यदि अभिमान होता, उन्हें सांसारिक महत्त्व की इच्छा होती तो यह उपदेश देते कि तेरे लिए कहीं कुछ शरण नहीं है। तू केवल मेरी शरण में रह और हाथ जोड़, सिर रगड़। प्रभु की ऐसी शुद्ध ज्ञानवृत्ति होती है कि अपने लिए कुछ भी चमत्कार नहीं चाहता। भैया ! ज्ञानीजन ही जब यों निरहंकार होकर रहते हैं और परजीवों से उपेक्षित रहते हैं, अपने स्वरूप की आराधना में सजग रहते हैं तो प्रभु भगवंत कैसे यह विकल्प करेगा कि तुम एक मेरी ही शरण में आवो।
प्रभुशरण―भैया ! गहो शरण प्रभु की और खूब गहो शरण, भव-भव के बांधे हुए पापों के भस्म करने के लिए बड़ी दृढ़ता से गहो प्रभु के चरण और आनंद और खेद के मिले हुए भावों से निकले आंसुवों से अपने पाप से धोवो खूब, यह पहली पदवी में आवश्यक है, फिर जैसे कर्मभाव हल्के हों, विकल्प भाव कम हों मन से, अपने में विश्राम लेने की स्वयं इसे खबर हो जाती है कि अपने आप मुझे यह करना है जो अपना सहजस्वरूप है सो देखते रहो।
सत्संगति व शास्त्राभ्यास―भैया ! सत्संगति व शास्त्राभ्यास ये दो ऐसे प्रबल साधन हैं जीव के उद्धार के कि जिन साधनों में रहे, कभी तो अवश्य आत्मा की तृप्ति पायेगा। किंतु यह मोही दोनों से दूर रहना चाहता है और इसके एवज में असत्संगति करके और गप्प चर्चा में रहकर अपने आप पर क्लेश भार बढ़ाता है। ज्ञानी जीव अपने आपमें प्रेरणा ला रहा है कि मैं एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूं और मुझमें जो अन्य नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं वे मुझसे पृथक् लक्षण वाले हैं। वे सब मैं नहीं हूं क्योंकि वे सबके सब परद्रव्य ही हैं। जो जीव परद्रव्यों को ग्रहण करता है वह अपराधी है, वह नियम से बंधता है, जो परद्रव्यों का ग्रहण नहीं करता वह अनपराधी है। अपने ही आत्मद्रव्य में बसा हुआ जो मुनि है वह कर्मों से नहीं बंधता, इसी विषय को स्पष्ट करने के लिए उदाहरणपूर्वक तीन गाथाएं एक साथ कही जा रही हैं।