समयसार - गाथा 56: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
ववहारेण हु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीआ ।
गुणठाणंता भावा ण हु केई णिच्छयणयस्स ।।56।।
207. चित्स्वरूपातिरिक्त सकल भावों की पुद᳭गलपरिणामरूपता―अपने आपके आत्मा का स्वरूप ऐसी दृष्टि रखकर विचारना चाहिये कि मैं स्वयं केवल अपने ही में अपने ही सत्त्व से हूँ, मुझमें अन्य बात क्या आ सकती है ? इस तरह विचार जो करता है उसे जीव का स्वरूप विदित होता है और जीव के परिणमन को ही ध्यान में रखकर देखें तो ये सब इस समय जीव के रूप बन ही रहे हैं । रागी, द्वेषी मोही आदि अनेक रूपों में यह जीव बन रहा है, इनको निरखने से कोई सिद्धि नहीं है, संसार कटता नहीं है । हाँ ये भी ज्ञेय हैं, जान लिये जायेंगे । कैसे बना, क्यों बना, क्या निमित्त है ? जान लिया, पर चित्त में हम किसे बसायें रहे जिससे कि हमारा हित बने ? तो जहां चित्त में बसाये रहने का प्रश्न आता है वहाँ ऐसा ही शुद्ध जीवस्वरूप बसाये रहना योग्य है जो सहज है, मेरे सत्त्व मात्र से है, वह स्वरूप । वह स्वरूप है चैतन्यमात्र । उस चैतन्यमात्र जीव में ये रूप, रस, गंध आदिक कोई बखेड़ा नहीं है । ज्ञानियों ने जब अपने स्वरूप का अनुभव किया तो जाना कि यह जीवस्वरूप नहीं है, यह आत्मा की शुद्ध अनुभूति से भिन्न है । चाहे वर्ण आदिक भाव हों जो कि पुद्गलाश्रित हैं, जिनका कि पुद्गल उपादान है और चाहे रागादिक भाव हों जो कि नैमित्तिक हैं, उपादान जीव है, पर हैं वैभाविक । वे सारे के सारे भाव इस आत्मा से भिन्न ही हैं, इस कारण अंतरंग में तत्त्वदृष्टि से जब मैं देखता हूं तो भाव मेरे विदित नहीं होते । मेरे में तो एक सहज चैतन्यस्वरूप ही है । प्रश्न होता है कि जब वर्णादिक भाव मेरे जीव नहीं हैं तो अन्य ग्रंथों में क्यों बताया है? उसका उत्तर देते हैं ।
शास्त्रों में वर्णादिक जीव के बताने का व्यवहारनय से कथन―जितने भी ये वर्णादिक भाव गुणस्थान पर्यंत ये सब भाव जो जीव के हैं ऐसा बताया गया है, वह सब व्यवहारनय से कहा गया है । निश्चयनय के सिद्धांत में तो ये कोई भी भाव जीव के नहीं हैं । व्यवहारनय और निश्चयनय का रूप देखिये । व्यवहारनय तो पर्यायाश्रित है, पर्याय को निरखने वाला, पर्यायदृष्टि से, भेददृष्टि से, पर-संपर्कदृष्टि से जो बात विदित हो वह तो व्यवहारनय का काम है और निश्चयनय द्रव्याश्रित होता है केवल द्रव्य की दृष्टि से, प्रकरण में केवल जीव के स्वाभाविक भावों का आश्रय करके जो उत्पन्न होता है वह निश्चयनय है । तो चूंकि व्यवहारनय पर्यायाश्रित है सो जीव के जो औपाधिक भाव उत्पन्न हो रहे हैं उनका आश्रय करके ये भाव उठ रहे हैं । व्यवहारनय―यह किसी के भाव किसी में जोड़ता है । यह व्यवहारनय का काम है । यों यद्यपि अटपट नहीं जोड़ देता, किंतु कोई संबंध है, निमित्तनैमित्तिक भाव है, इतने मात्र भाव को लेकर यह पर के भावों से जुड़ता है, परंतु निश्चयनय एक द्रव्य के स्वभाव का आश्रय करके उठा तो पर के भाव इस जोड़ में नहीं जुड़े । अजीव जीव नहीं । तो यह कारण है कि वर्णादिक भाव इस व्यवहारनय से जीव के कहे हैं, पर वह व्यवहार भी युक्त नहीं, निश्चयनय के अनुसार । वस्तु का यथार्थ स्वरूप निश्चयनय से बताया है । जहां निश्चयनय का प्रकरण है वहाँ भगवंत द्वारा जीव का यह स्वरूप बताया है जिसमें ये गुणस्थान आदिक भाव नहीं हैं । क्यों नहीं हैं ये जीव के भाव ?
208. वर्णादिकों की निश्चय से प्रतिषेध्यता―वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत उन सब भावों को जीव के बताना व्यवहारनय है । निश्चयनय के आशय में तो वे सब कोई भी जीव के नहीं हैं । निश्चय से जीव का वह स्वरूप है जो सहज निरपेक्ष स्वतःसिद्ध हो और परिणमन की अपेक्षा भी परमार्थत वह परिणमन है जिसकी स्वभाव से एकता हो । स्वभाव से एकता वाला परिणमन वही हो सकता है जो उपाधि संबंध बिना मात्र स्वभाव से ही परिणमन हो किंतु अभी जिनका वर्णन किया गया है उनमें से कुछ तो ऐसे हैं कि वे प्रकट परद्रव्य रूप हैं और कुछ ऐसे हैं जो जीव की शक्ति के परिणमन तो हैं लेकिन हैं औपाधिक । इन सबको जीव के यों कहे गये हैं कहीं-कहीं कि एक क्षेत्रावगाह अथवा निमित्तनैमित्तिक भाव आदि कोई संबंध देखा जाता है । ये संबंध किसी के स्वरूप में तो हैं नहीं किंतु द्रव्य द्रव्यों में ऐसा नैकट्य अथवा अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है, अत: व्यवहार से उन्हें कहे गये हैं ।
209. पुद᳭गलोपादान व पुद्गलनिमित्तिक सर्वभावों से जीव की विविक्तता―अब इन उक्त सबमें जो जीव से भिन्न परद्रव्य रूप हैं वे ये हैं वर्ण, गंध, स्पर्श, रस, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक व स्थितिबंधस्थान । ये सब दो किस्म के हैं जिनमें से भाव रूप तो जीव के परिणमन रूप पड़ते हैं और द्रव्य रूप पुद्गल के परिणमन रूप पड़ते हैं । वे कुछ ये हैं―प्रत्यय, अनुभागस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान व जीवस्थान । विभाव उन्हें कहते हैं जो कि हैं तो जीव के परिणमन, परंतु हैं औपाधिक । वे ये हैं राग, द्वेष, मोह, अध्यात्मस्थान, योगस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान व गुणस्थान । ये सब व्यवहारनय से जीव के कहे गये हैं । निश्चयनय के आशय से वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत ये सभी भाव जीव के नहीं हैं अर्थात् इनसे से कोई भी भाव जीव का नहीं है ।
अब श्री कुंदकुंददेव कहते हैं जीव का वर्णादिक के साथ संबंध परमार्थ से नहीं है, निश्चय से वर्णादिक जीव के नहीं हैं ।