कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 221: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:32, 2 July 2021
तेसु अतीदा णंता अणंत-गुणिदा य भावि-पज्जाया ।
एक्को वि वट्टमाणो एत्तिय-मेत्तो वि सो कालो ।।221।।
पर्यायों की अनंतता―उन जीव पुद्गल आदिक पदार्थों में अतीत पर्यायें अनंत हैं और उनसे अनंतगुनी भविष्य की पयार्य हैं और वर्तमान की पर्याय एक है, उन सब पर्यायों मात्र यह काल है अथवा यह एक पर्याय है । चेतन की पर्यायें कितनी गुजर गई हैं? तो उसे कहेंगे कि जितने अतीतकाल गुजरे हैं उतनी पर्यायें गुजरी हैं । अतीतकाल कितना गुजरा है? इसका अनुमान एक शुद्ध जीवराशि की माप से कहा जाता है । 608 जीव 6 महीना 8 समय में मुक्त होते हैं―ऐसा एक साधारण नियम है । तब जितने आज तक सिद्ध हुए हैं उनमें 6 महीना 8 समय के माप से संख्यात आवलियों का गुणा कर दिया जाय तो अतीतकाल का प्रमाण निकल आयगा । कितना है यह सब समझने के लिए कहा जा रहा है । नहीं वह अतीतकाल गिनती में न आ जायगा । अनंत समय गुजर गया, और भविष्यकाल कितना होगा । तो इससे भी अनंतगुना समय होगा । यद्यपि अतीतकाल का भी अंत नहीं है और भविष्यकाल का भी अंत नहीं है इस दृष्टि से दोनों ही समान हैं, लेकिन एक यह दृष्टि रखी गई है कि इस जीव में पर्यायें सदा होती रहेगी उस पर बल देने के लिए कह रहे हैं । भावी
पर्यायें उससे अनंतगुनी हैं और वर्तमान पर्याय एक है । यों इतना मात्र अर्थात् समस्त पर्यायें मात्र ये पदार्थ कहलाते हैं । ये सब पर्यायें जैसे अनंत जीव में है, अनंत पुद्गल में हैं ऐसे ही अनंत पर्यायें अन्य द्रव्य में भी हुई और होंगी । अधर्म, आकाश, काल में भी ऐसी ही अनंतपर्यायें हुई हैं, और अनंत पर्यायें होंगी । ये द्रव्य सूक्ष्म है और इनसे इस जीव का व्यवहार भी नहीं चलता आया है अतएव यह सूक्ष्म विषय है । जीव का व्यवहार तो जीव और पुद्गल के परिणमन से बीच चलता रहता है । जीव जीव से व्यवहार करता है । जीव पुद्गल से व्यवहार करता है । जीव के निमित्त से दूसरे जीव का कुछ उपकार विकल्प होता और पुद्गल के निमित्त से भी जीव का उपकार विकल्प होता ।
भेदविज्ञान द्वारा झमेले से छुटकारा―हम आपका जो झमेला है वह सब जीव पुद्गल के बीच का है । हमें भेदविज्ञान का उपयोग इस जीव और पुद्गल पर विशेषतया करना है । मेरे से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं वे अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते हैं । अपने आपमें उनमें स्वत: परिणमन होता है मेरे से नहीं और मेरे में परिणमन मेरा स्वत: होता है, किसी अन्य जीव से निकलकर नहीं होता । इस प्रकार सर्व पुद्गल द्रव्य अणु-अणुमात्र देह भी और कुछ भीतर कर्म अणु मर्म के अणु जो कुछ भी हैं सब पुद्गल द्रव्य मुझसे अत्यंत भिन्न हैं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्य का स्वरूप रख रहे हैं । तो मैं अपने स्वरूप से चल रहा हूँ, दूसरे के स्वरूप से नहीं चलता । इस वस्तु स्वरूप का दृढ़ विश्वास करके जो समस्त परवस्तुओं से उपेक्षा कर सकेगा वह अपने आपमें अंतःप्रकाशमान भगवत् तत्त्व के दर्शन कर पायेगा और जो इन बाहरी पदार्थों के विकल्पों में ही उल्का रहेगा वह खुद भगवत्स्वरूप होकर भी खुद का दर्शन नहीं कर सकता है और न उस अनुपम आनंद का लाभ प्राप्त कर सकता है । हमारा कर्तव्य है कि हम भेदविज्ञान में अपनी बुद्धि अधिकाधिक लगायें, मैं सबसे निराला हूँ ऐसा अनुभव करने का यत्न करें तो इस पौरुष से हम आपके समस्त संसार संकट टल सकेंगे ।