कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 315: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:32, 2 July 2021
उत्तम गुण-गहण रओ उत्तम-साहूण विणय संजुत्तो ।
साहम्मिय-अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो ।।315।।
ज्ञानी पुरुष की दृष्टि और वृत्ति―जो उत्तम गुणों के ग्रहण में रत हैं, उत्तम साधुवों के विनय से संयुक्त हैं, साधर्मी जनों में जो अनुराग रखते हैं वही सत्यदृष्टि वाले उत्कृष्ट पुरुष कहलाते हैं । श्रम भी क्या करना है ? वीतरागता, शुद्ध ज्ञानप्रकाश, जिनका संबंध समस्त सदाचार से है ऐसे उत्तम गुणों के ग्रहण की ही जिनकी धुन बन गई है ऐसे वे पुरुष उत्तम मुनि श्रावक आदिक के जो गुण हैं उनमें रुचि रखते हैं, इसी कारण वे साधर्मी जीवों में विनयपूर्वक रहते हुए उनकी सेवा करते हैं । जिनको साधु के गुणों पर दृष्टि होगी, भक्ति उनके ही जगेगी, साधुवों की वास्तविक सेवा वे ही कर सकेंगे और अपने आपमें गुणों को वे ही बढ़ा सकेंगे जिनको दूसरे के गुण भी उत्तम दिख रहे हैं और अपने आपका स्वरूप भी नजर में आ रहा है । ऐसे पुरुष सम्यग्दृष्टि होते हैं । सम्यग्दृष्टि के ये बाह्य चिन्ह बताये जा रहे हैं ।
अज्ञानियों की दयनीय स्थिति―वे पुरुष तो दयनीय स्थिति के हैं जो मानते हैं कि ये मेरे बच्चे हैं, यह मेरी स्त्री है, इनके लिए मेरा तन, मन, धन, वचन सर्वस्व है, बाकी जीव तो गैर हैं, ऐसा, जिनका भाव बना है वे तो गरीब हीन दयापात्र पुरुष है, वे बड़ी विपदा में पड़े हुए है, वे संसार के भँवर में डूब रहे हैं, उनको कोई प्रकाश प्राप्त नहीं हो रहा है । उनका जीना भी मरना है, उनके जीवन से उनको क्या लाभ ? उनके जीवन से दूसरों को क्या लाभ ? जो इतने मोही हैं, जो घर के लोग हैं वे ही जिनको सब कुछ नजर आते हैं, और जगत के जीव गैर नजर आते हैं । इस जीव पर अनादि वासना से ऐसा मोह पड़ा हुआ है कि जिसके कारण इसको सन्मार्ग प्राप्त नहीं होता । उस प्रसंग को धिक्कार है जिसकी यह द्वैतबुद्धि भीतर से उत्पन्न होती है और कभी भी यह भावना नहीं बना पाता कि जैसे अन्य जीव सब गैर हैं इसी प्रकार घर में बसने वाले जीव भी गैर हैं, मुझसे निराले हैं । यदि घर के परिवारजनों की भाँति दूसरे पर भी प्रेम नहीं उमड़ाया जा सकता है तो इस ओर से भी समानता का भाव लेवें कि जैसे जीव के जीव गैर हैं उसी प्रकार ये घर के जीव भी गैर हैं, गैर मानें तो सबको और अपने स्वरूप के समान माने तो सबको । जो पुरुष इन जीवों में इतना भेद डाल देते हैं कि ये ही मेरे सब कुछ हैं, इनके लिए हीं मेरा जीवन है वे पुरुष, दयनीय हैं, दीन हैं, हीन हैं, संसारी है, जन्म मरण की परंपरा करने वाले हैं । ऐसी दयनीय दशा धनिकों की प्राय: करके हो जाती है, क्योंकि जहाँ संग है प्रसंग है वहाँ ही यह मोह पुष्ट होता है । यह नियम की बात तो नहीं कह रहे लेकिन ये बाह्य प्रसंग ऐसे ही हैं कि अनेक अवगुणों को हृदय में बसा दें, गरीब भी हैं और वे भी उपयोग ऐसा रखते हैं, तृष्णा करते हैं तो वे भी धनिकों की तरह ही दयनीय हैं ।
यथार्थ द्रष्टा की संपन्नता―जो अपने को ज्ञानानंदस्वरूप अनुभवता है और यह निर्णय किए हुए है कि, इस मुझ आत्माराम को बाह्यपदार्थ की किसी की आवश्यकता नहीं है । मैं अपने आपमें ही निरंतर रत रहूं, उसी में तृप्त रहूं, ऐसी जिसकी कामना है वही पुरुष उत्कृष्ट है, सम्यग्दृष्टि है । जो साधर्मी जनों में अनुराग रखते हैं,
जैनधर्म के आराधक पुरुषों में जिनका वात्सल्य है वे पुरुष सम्यग्दृष्टि हैं । जिनधर्म के मायने जो रागद्वेष रहित भगवान ने तत्त्व बताया है उस तत्त्व की ओर जो लगे है वे कहलाते हैं जैनधर्म के आराधक । केवल जैनकुल में उत्पन्न होने से वे जैनधर्म के आराधक न कहलाने लगेंगे । अथवा जो जैन मजहब में पैदा नहीं हुए वे जैनधर्म के आराधक न बन सकेंगे, यह भी नियम न होगा । जिनकी वस्तुस्वरूप के यथार्थ दर्शन से प्रीति है, ज्ञान और वैराग्य में जिनका उमंग है वही पुरुष जैनधर्म का आराधक है । ज्ञानी पुरुष अपने आपको ज्ञानानंदवैभव से संपन्न अनुभव करता है इसी कारण वह अमीर है, और जिनको आत्मस्वरूप की सुध नहीं है वे चाहे चक्री भी हो जायें, वे चाहे कितना ही कुछ वैभव प्राप्त कर लें फिर भी दयनीय हैं, गरीब है, क्योंकि उन्हें संतोष मिल ही नहीं सकता ।