ज्ञानार्णव - श्लोक 1729: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
इत्यजस्रं सुदु:खार्ता विलापमुखरानना:।
शोचंते पापकर्माणि वसंति नरकालये।।1729।।
महादुःखपीड़ित नारकियों के विलाप का चित्रण―इस प्रकार निरंतर महान दु:खों से पीड़ित होता हुआ यह नारकी जीव मुख से पुकार विलाप करता हुआ अपने पूर्व के पापकर्मों का स्मरण करता हुआ बड़ा सोच करता है और नरक में दुःख भोगता है । यहाँ जैसे मनुष्यभव में कोई पाप किया हो और पीछे कोई दुर्गति हो जाय, दरिद्रता आ जाय, अपमान हो जाय, घर बर्बाद हो जाय तो जैसे यहाँ मनुष्य बड़ा सोच करता है, अपनी पुरानी बात सोच-सोच कर के मैंने देखो ऐसे पाप किये, उसके फल में इसी भव में निर्धन हो गए और कोई पूछने वाला नहीं रहा, तो कुछ नारकी जीव तो अवधि ज्ञानी भी होते, वे पूर्व भव की बातें भी विचार लेते हैं तो वहाँ बड़ा पश्चाताप करते हैं कि मैंने पूर्वभव में ऐसे नाना पापकर्म किया, जिनके फल में यहाँ बड़े दुःख भोगने पड़ रहे हैं । वह पापकार्य मूल में एक ही प्रकार का है―पर की ओर दृष्टि लगाना । पर से अलग होकर बाहरी पदार्थों में ही चित्त को फंसाना, जिससे विषय सुखों में आसक्ति होती है और विरोधी जीवों के प्रति बड़ा द्वेष जगता है । मूल में तो एक परदृष्टि है और उसके विस्तार में वे तो हैं ही, मगर प्रवृत्ति रूप में 5 पाप हैं―हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना और परिग्रह में ममता रखना । इन सभी प्रकार के पापकर्मों के फल में नरक गति में जन्म लेना पड़ता है, सो यह जीव बड़े दुःख में पड़ता है, निरंतर विलाप करता रहता है, अपने उन पापकर्मों का शोक करता रहता है, पर होता क्या है शोक से? उन नरकों का आयु इतनी विकट है कि शरीर के खंड-खंड भी हो जाते हैं पर उनका मरण नहीं होता । मरण जैसे दुःख पा लेते हैं फिर भी मरण नहीं होता, वे शरीर के खंड-खंड फिर इकट्ठा हो जाते हैं, फिर पूरा शरीर बन जाता है, फिर मरने मारने वाले बन जाते हैं ।